मृत्यु से शरीर समाप्त होता है, आत्मा नहीं

punjabkesari.in Saturday, Apr 13, 2024 - 05:05 AM (IST)

बैसाखी का दिन और अमृतसर का जलियांवाला बाग दोनों एकसाथ याद आ जाते हैं। इस जगह का कायाकल्प कर दिया गया है लेकिन वक्त का असर उन लम्हों पर नहीं पडऩे दिया जो एक नृशंस हत्याकांड की गवाही देते हैं। 

मृत्यु का तांडव : जब आप यहां प्रवेश करते हैं तो सिहरन सी होती है, दिल दहलने जैसा हो जाता है। सोचने लगते हैं कि कैसे कोई इंसान अपने अंदर मौजूद हैवान को इतना खुला छोड़ सकता है कि मासूम औरतों, बच्चों और मर्दों को अपने सिरफिरेपन का शिकार बनाने में तनिक भी न हिचकिचाए। दीवारों पर गोलियों के निशान जिंदा हो उठते हैं कि कैसे निहत्थे लोगों के शरीरों को चीरते हुए ये बने होंगे। बाग में संकरे रास्ते से कैसे लोग वहां जमा हुए होंगे, यह आज भी साफ दिखता है। 

उन्हें नहीं मालूम था कि यह उनकी जिंदगी का आखिरी दिन है। अंग्रेज तो थे ही मारने वाले लेकिन जब अपने ही गोलियां चलाते हुए दिखे होंगे तो लोग कैसे भौंचक्के होकर उनकी तरफ देखते हुए मौत के आगोश में चले गए होंगे। कुएं में कूद कर बचने की उम्मीद में लाशों में बदलते हुए लोगों के चेहरों पर अंतिम भाव क्या आए होंगे, इसकी कल्पना करने से भी डर लगता है। खून से रंगती धरती का रंग लाल होकर काला पड़ा होगा, इसकी झलक आज भी मिलती है। यहां जाकर मन कसैला हो जाता है लेकिन फिर एक उजाला सामने आता है क्योंकि इस नरसंहार ने अत्याचार की पराकाष्ठा को भी पार कर दिया था। इसके साथ ही स्वतंत्र होने का अर्थ भी समझ में आ गया था। 

मृत्यु क्या है? : बैसाखी पर्व पर एक ओर इस हृदय विदारक घटना की स्मृति और दूसरी ओर मस्ती भरा मौसम, लहलहाते खेत, भरे पूरे खलिहान और जिंदा होने का सबूत देती नौजवानों की टोलियां। जीवन नश्वर तो है ही और शरीर का अंत निश्चित है। कई बार यह सवाल मन में उठता है अगर जीवन एक अनुभव है तो मृत्यु क्या है ?
मिर्जा गालिब की पंक्तियां हैं 
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मजा क्या
और जब मौत अचानक आ जाए तो उसका इस्तकबाल कैसे हो ;
है खबर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
अंत समय में घबराहट कैसी और डरना भी क्यों
हम थे मरने को खड़े, पास न आया, न सही
आखिर उस शोख के तरकश में कोई तीर भी था
कोई कुछ भी कहे, एक दिन तो जाना तय ही है ;
पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर, नाहक
आदमी कोई हमारा, दम-ए-तहरीर भी था
मौत की तैयारी भी क्या करनी, जब आएगी देखा जाएगा;
रौ में है नक्श-ए-उमर कहां देखिए थमे
न ही हाथ बाग पर है न पा है नकाब में
अक्सर लोग कहते पाए जाते हैं कि उन्हें मरने तक की फुर्सत नहीं है, इतना कुछ बच गया है करने के लिए, बहुत काम बाकी है। इस पर इकबाल ने क्या खूब कहा है ;
बाग-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफर दिया था क्यों
कार-ए-जहां दराज है, अब मेरा इंतजार कर 

मृत्यु के समय मनुष्य कैसा महसूस करता है, इस बारे में कोई एक निश्चित तथ्य नहीं है। वैज्ञानिकों और मानसिक स्थिति के बारे में शोध कर रहे विशेषज्ञों का अलग अलग मत है। सब अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्या करते हैं। कोई कहता है कि जब अंतिम सांस लेने का समय आता है तो व्यक्ति अपने जीवन में घटी सभी अच्छी बुरी घटनाओं को एक रील की तरह चलते हुए देखता है। कुछ लोग मरने से पहले अपने दोस्तों, मिलने जुलने वालों और सगे संबंधियों से मिलने निकल जाते हैं। यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार न हों और स्वास्थ्य ठीकठाक रहता हो और लगे कि अब बहुत हुआ, चलने की तैयारी हो जाए तो ऐसे लोग बहुत सहज भाव से अपने को सब भौतिक चीजों से अलग करने में लग जाते हैं। अर्नेस्ट हेमिंग्वे जब एक बम विस्फोट में बुरी तरह घायल हो गए और मौत नजर आ रही थी, उस क्षण का वर्णन बाद में एक पत्र में इस तरह किया  ‘‘मौत बहुत मामूली चीज है। मैंने मौत को देखा और उसकी असलियत समझ में आ गई। मरना मेरे लिए बहुत आसान था। जो कुछ अब तक मैंने किया, उस सब से आसान।’’ मृत्यु के अपने अनुभव पर उन्होंने कई बढिय़ा कहानियां लिखी हैं। ‘‘आत्मा शरीर से बाहर जा रही है, उड़ान भर रही है और फिर लौट रही है’’। 

मृत्यु का आभास जब होने लगता है तो सामने एक प्रकाश पुंज का निर्माण होता दिखाई पडऩे लगता है। आलौकिक ऊर्जा से संचालित अनोखी चमक लिए एक रौशनी दिखाई देती है। प्रतीत होता है कि सब सुख दु:ख समाप्त हो गए हैं, सांसारिक वस्तुओं से संबंध तोड़कर आत्मा इस प्रकाश में विलीन होने जा रही है। कुछ लोगों ने अंत काल को एक सुरंग में प्रवेश करने जैसा वर्णन किया है। एक दिव्य दृश्य की कल्पना जिसमें दिवंगत आत्माओं से मिलना, उनके साथ अपनी स्मृतियों को सांझा करना और फिर अनंत की यात्रा पर चल पडऩा। 

कर्मों का लेखा-जोखा :  यह शरीर तो मिट्टी में मिल ही जाएगा लेकिन हमारे जो कर्म हैं, उनका फल तो अवश्य ही मिलेगा। कह सकते हैं कि जब मर ही गए तो क्या लेना और क्या देना, सब कुछ यहीं रहेगा। इसी के आधार पर स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई। कुछ लोग जो मृत्यु के अनुभव के बाद जीवित पाए गए उनका कहना है कि उन्हें अपने बचपन, जवानी और अब तक की सभी घटनाएं याद आती गईं और अब जब कभी उस अनुभव के बारे में बात करते हैं तो एक तरह का मानसिक तनाव हो जाता है। वे उसे शब्दों में बयान कर पाने में असमर्थ हैं, उसका कोई तरीका भी नहीं है। कोई यदि तैरते हुए डूबने लगे, लंबी सीढ़ी से नीचे गिरते समय या फिर आप फोन पर व्यस्त हैं और सामने से कोई गाड़ी टक्कर मार दे तो दिमाग की हालत बता पाना आसान नहीं है। 

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस भी व्यक्ति को यह अनुभव होते हैं, उन्हें वैसा ही मान लेना चाहिए जैसा किसी भुक्तभोगी ने उनका वर्णन किया है। यह एक मानसिक क्रिया है, यदि इसे न समझकर उस व्यक्ति से बहुत अधिक सवाल जवाब किए गए तो उसका मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है। यह एक गंभीर रोग में बदल सकता है। इसकी चिकित्सा भी नहीं है सिवाय इसके कि नींद की दवाइयां दे दी जाएं। इसमें बातचीत के जरिए ही कुछ सुधार हो सकता है। यह एक थैरेपी की तरह है जिसमें मृत्यु के अनुभव को भुलाने में मदद मिल सकती है। कई बार यह अनुभव व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते और वह उनका गुुलाम बनने लगता है। 

जिस तरह जंगल में किसी हाथी या किसी हिंसक पशु अथवा घरों में पालतू जानवरों की आदतों को बदला जाता है, उसी तरह मृत्यु के अनुभवों से पीछा छुड़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हाथी के शिशु को पैदा होते ही एक जंजीर से बांध दिया जाता है अर्थात् उसका एक दायरा तय कर दिया कि जहां तक जंजीर जाएगी, वहीं तक ही दुनिया है। अब जब वह बड़ा हो जाता है तो स्वयं अपना पैर जंजीर में बांधे जाने के लिए बढ़ा देता है। अब महावत उसे जैसे चाहे और जहां चाहे ले जा सकता है। मानसिक स्थिति भी इसी तरह से बनती है। मनुष्य के पास सोचने समझने की शक्ति है जो पशुओं में नहीं, इसलिए उनके लिए किसी पुरानी और दु:खद स्मृति से बाहर निकलना आसान है। 

पवन, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश हमारे प्राकृतिक तत्व हैं। इनका उपयोग किसी भी स्थिति से उबरने के लिए होता है। अब क्योंकि न तो मनुष्य ने इनका निर्माण किया और न ही वह इनका संचालक है, इसलिए इन तत्वों से छेड़छाड़ करने का उसका कोई अधिकार नहीं है। जीवन हो या मृत्यु इन्हीं पर आधारित है। इन तत्वों के साथ सहयोग करते हुए इन्हें अपने अनुकूल तो बनाया जा सकता है लेकिन इनके साथ खिलवाड़ करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। मनुष्य का जीवन आवागमन के चक्र से बंधा है लेकिन प्रकृति कभी परिवर्तित नहीं होती। इसी तरह हमारे कर्म ही निर्णायक हैं और उनका फल मिलना अवश्यंभावी है।-पूरन चंद सरीन
    


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