मोदी व भाजपा को दुश्मन नहीं केवल ‘राजनीतिक विरोधी’ मानें राहुल

punjabkesari.in Friday, Jun 07, 2019 - 03:52 AM (IST)

‘मैं आपको गारंटी देता हूं कि हम 52 (लोकसभा) सदस्य हर एक इंच पर भाजपा से लडऩे जा रहे हैं।’ यह युद्ध-घोषणा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक जून को संसद भवन के सैंट्रल हॉल में आयोजित पार्टी संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए की। यक्ष प्रश्न है कि जैसा राहुल गांधी ने ‘एक-एक इंच पर लडऩे’ का उद्घोष किया है, उस पृष्ठभूमि में कांग्रेस भाजपा से मुकाबला कैसे करेगी? क्या वह एक जागरूक और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाएगी या फिर जनहित में लागू होने वाली सरकारी योजनाओं को बाधित, उसकी आलोचना और उसके खिलाफ  संघर्ष करेगी? 

यह प्रश्न तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हम राहुल के उन्मादी विचार की तुलना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस वक्तव्य से करते हैं जो उन्होंने 23 मई को चुनाव परिणामों की घोषणा के समय दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में दिया था। तब उन्होंने कहा था, ‘चुनावों के बीच क्या हुआ, वो बात बीत चुकी है। हमें सबको साथ लेकर चलना है। विरोधियों को भी देशहित में साथ लेकर चलना है। काम करते-करते कोई गलती हो सकती है लेकिन मैं बदइरादे और बदनीयत से कोई काम नहीं करूंगा।’ उस समय प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा था, ‘अब देश में केवल दो जातियां ही रहने वाली हैं और देश इन दो जातियों पर ही केन्द्रित होने वाला है। एक जाति गरीब है और दूसरी जाति देश को गरीबी से मुक्त कराने के लिए कुछ न कुछ योगदान देने वालों की।’ 

जनादेश का अपमान
क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इन विचारों में विरोधी पक्षों के प्रति द्वेष की कोई भावना परिलक्षित होती है, जिस पर राहुल गांधी ‘एक-एक इंच की लड़ाई’ संबंधित वक्तव्य देने हेतु विवश हो गए? प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में गरीबी के खिलाफ एकजुट होने की बात कही थी। अब बजाय इसके कि राहुल सैंट्रल हॉल के अपने संबोधन में सरकार को उसके पूर्ववर्ती वायदों का स्मरण करवाते या गरीबी उन्मूलन संबंधी योजनाओं पर नजर रखने की बात कहते अथवा फिर इस दिशा में काम करने और भाजपा का सहयोग करने का दावा करते, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में पार्टी से ‘एक-एक इंच की लड़ाई’ का आह्वान कर दिया। क्या यह जनादेश का अपमान नहीं है?

आखिर राहुल का तात्पर्य क्या है? क्या वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध करते हुए अब उस प्रत्येक योजना और नीति का विरोध करेंगे, जो जनहित और राष्ट्रहित से जुड़ी होगी? अपने 52 नवनिर्वाचित लोकसभा सांसदों को संबोधित करते हुए राहुल ने यह भी कहा था, ‘अब आप सभी को प्रत्येक संस्थान से लडऩा है। देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है, जो आपका साथ देने वाली है और न ही कोई आपका समर्थन करने वाला है। यह स्थिति ब्रिटिशकाल की तरह है, जब एक भी संस्था ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया था, फिर भी हम लड़े, जीते और हम फिर ऐसा करने जा रहे हैं।’ 

आखिर राहुल गांधी द्वारा ‘हर संस्थान से लडऩा है’ जैसे वक्तव्य देने का अर्थ क्या है? विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका और अन्य संस्थान संविधान-सम्मत होते हैं, जिसके गर्भ से कई संवैधानिक संस्थाओं का जन्म हुआ है। इन सभी संस्थाओं की निश्चित कार्ययोजना, उनके दायित्व और कत्र्तव्यों की रूपरेखा संविधान द्वारा निर्धारित की गई है। ऐसे में उन स्वतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं से किसी भी प्रकार के साथ या समर्थन की अपेक्षा करने का औचित्य क्या है? यदि उनका साथ नहीं भी मिलता तो राहुल द्वारा उद्घोषित ‘संस्थानों से लडऩे’ का आह्वान क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रदत्त देश में स्वीकार्य होगा? 

वास्तव में सच्चाई क्या है
आखिर राहुल के इन विचारों के पीछे की सच्चाई क्या है? क्या यह सत्य नहीं कि वर्तमान समय में गांधी-वाड्रा परिवार के अधिकांश सदस्य भ्रष्टाचार और कर चोरी के मामले में आरोपित हैं और जमानत पर बाहर हैं? एयरसैल-मैक्सिस संबंधित कदाचार मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी.चिदम्बरम और उनके बेटे काॢत पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। साथ ही यू.पी.ए. काल में हुए घोटालों को लेकर क्रिश्चियन मिशेल, राजीव सक्सेना और दीपक तलवार आदि को भारत लाकर जांच एजैंसियां पूछताछ कर चुकी हैं। 

इसी बीच, यू.पी.ए. कार्यकाल में एयरबस विमान खरीद में घोटाले का मामला सामने आया है। मीडिया रिपोटर््स के अनुसार, इसमें एक हजार करोड़ रुपए से अधिक का घोटाला हुआ था। इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली सुरक्षा से संबंधित मंत्रिमंडलीय समिति (सी.सी.एस.) के निर्णय को ही बदल दिया गया था। बकौल मीडिया रिपोर्ट, प्रवर्तन निदेशालय के पास जो साक्ष्य है, उसके अनुसार, वर्ष 2006 में सी.सी.एस. ने एयरबस से 43 विमानों की खरीद को हरी झंडी दी थी, जिसमें समिति ने कीमत निश्चित करने के साथ यह शर्त भी जोड़ दी थी कि एयरबस को 17.5 करोड़ डॉलर (लगभग 1000 करोड़ रुपए) की लागत से भारत में प्रशिक्षण, रखरखाव आदि की सुविधा भी विकसित करनी होगी, जिससे भारत पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ न पड़े। 

किंतु जब एयरबस से भारत सरकार का समझौता हुआ, तब उस शर्त को हटा दिया गया, जिससे भारत को सीधे-सीधे एक हजार करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ। आश्चर्य इस बात का है कि इसमें सी.सी.एस. के फैसले का उल्लंघन तो किया ही गया है, साथ ही कांग्रेस नीत यू.पी.ए. सरकार ने इसे चुपचाप से होने भी दिया। 

वास्तविकता तो यही है कि राहुल, उनकी कांग्रेस, बौद्धिक समर्थक और सहयोगी भाजपा से ‘एक-एक इंच’ की लड़ाई, उसी पुरानी और वांछित व्यवस्था को पाने के लिए करना चाहते हैं, जिसमें आसानी से एयरबस खरीद घोटाले जैसी पटकथा लिखी जा सके। उनके लिए किसी भी रक्षा समझौते में दलाली, भ्रष्टाचार करने, आर्थिक अपराधियों को निशिं्चत रहने, जवाबदेही मुक्त शासन-व्यवस्था और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में समांतर सत्ता के केन्द्र को स्थापित करने की स्वतंत्रता हो। यही कारण है कि जब जांच एजैंसियां और संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र होकर संबंधित मामले की गहराई तक पहुंच रही हैं, तब उनसे एक-एक इंच पर लडऩे का आह्वान किया जा रहा है। 

करारी हार से सबक नहीं सीखा
राहुल के हालिया वक्तव्य से यह भी प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने 17वें लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार और उसके द्वारा की गई नकारात्मक राजनीति से कोई सबक नहीं लिया है। पिछले 5 वर्षों से देश में भीड़ द्वारा हत्या के चिन्हित मामलों (जिसमें केवल पीड़ित पक्ष मुस्लिम और आरोपी ङ्क्षहदू हो) को लेकर ‘असहिष्णुता’ का राग अलापा गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के साथ कदमताल किया गया और थलसेना की सॢजकल स्ट्राइक के साथ बालाकोट पर भारतीय वायुसेना की एयरस्ट्राइक पर भी सवाल उठाया गया। 

इन सबका लोकसभा चुनाव में क्या परिणाम निकला, कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष धराशायी हो गया। जनादेश से स्पष्ट है कि अब समाज के अधिकांश लोग उस वर्ग के साथ कभी खड़ा होना नहीं चाहेंगे, जो देश के पुन: टुकड़े-टुकड़े करना चाहता है, राजनीतिक विरोध के नाम पर देश की सनातनी संस्कृति, बहुलतावादी परम्परा को कलंकित करने से नहीं चूकता है और राष्ट्रीय सुरक्षा को गौण मानता है। 

यदि राहुल गांधी वाकई कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो उन्हें तीन काम तत्काल करने होंगे। पहला- पिछले 5 दशकों से वैचारिक पंगुता के कारण कांग्रेस वामपंथी बौद्धिकता पर आश्रित है। स्थिति यह हो गई है कि कांग्रेस आज उस स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ.) के रूप में परिवर्तित हो चुकी है, जो विदेशी वित्तपोषण के बल पर विदेशी एजैंडे की पूर्ति हेतु भारत के विकास में बाधा डालती है। अब इस बात की आवश्यकता है कि जिस सनातनी दर्शन और राष्ट्रवादी विचार की नींव पर गांधीजी और सरदार पटेल ने कांग्रेस रूपी भवन का निर्माण किया था, उसमें राहुल अपनी पार्टी को पुन: लौटाएं। 

दूसरा, वर्तमान कांग्रेस की कार्यप्रणाली औपनिवेशिक कम्पनी की तरह हो गई है, जिसमें पैसे से सत्ता पाना और सत्ता में आने पर पैसा कमाना मुख्य उद्देश्य बन गया है। इस विकृति को छोड़कर कांग्रेस राष्ट्रसेवा को अपना कार्यतंत्र बनाए। तीसरा, भारत में विपक्ष का मजबूत और सशक्त होना स्वस्थ लोकतंत्र का सूचक है। यह अपेक्षित और स्वाभाविक भी है कि विपक्ष, सत्तारूढ़ दल की नीतियों की आलोचना और उसके खिलाफ धरना-प्रदर्शन करे, किंतु सरकार को अपना शत्रु नहीं माने। 

राहुल को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को अपना दुश्मन नहीं मानते हुए केवल राजनीतिक विरोधी मानें। विदेश नीति पर सरकार का सहयोग कर अपने विपक्षी धर्म का पालन करें, जैसा नरसिम्हा राव सरकार में मुख्य विपक्षी दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी किया करते थे। क्या राहुल के ‘एक-एक इंच पर लड़ाई’ आदि विचारों की पृष्ठभूमि में कांग्रेस में यह आमूलचूल परिवर्तन संभव है?-     


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