कश्मीर का शासन चलाने के लिए सख्ती से ही काम लेना पड़ेगा

punjabkesari.in Saturday, Jun 23, 2018 - 04:05 AM (IST)

कश्मीर के मामले पिछले काफी समय से जिस तरह संचालित किए जा रहे थे उसके मद्देनजर पी.डी.पी. -भाजपा गठबंधन का धराशायी होना अटल था। पहली बात तो यह है कि सुविधा का ‘प्रणय संबंध’ था। इस राजनीतिक निकाह के लिए महबूबा मुफ्ती की पार्टी ने अपना ही गणित लड़ा रखा था। उनके मूलभूत रवैयों या भावभंगिमाओं के मामले में कोई हृदय परिवर्तन नहीं हुआ था। 

उदारवादियों से लेकर चरमपंथी इस्लामी तत्वों तक उनकी पार्टी में मौजूद थे और इसी के सहारे उनकी राजनीति फलती-फूलती थी। भाजपा के वोट बैंक में मुख्य तौर पर जम्मू क्षेत्र के हिंदुओं का योगदान था। कश्मीर मामलों के लिए भाजपा के धुरंधर संयोजक को इस गठबंधन में यह सम्भावना दिखाई दी कि मुस्लिम बहुल प्रदेश में राज्य के कामकाज में उनकी पार्टी को हिस्सेदारी करने का मौका मिलेगा, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को राजनीतिक दृष्टि से लम्बा-चौड़ा विश्वसनीय आधार हासिल होगा। लेकिन इस गठबंधन पर मोहर लगाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कश्मीर की साम्प्रदायिक रंगत हासिल कर चुकी राजनीति के कुछ खतरनाक आयामों एवं समय के साथ बदलती जमीनी सच्चाइयों की अनदेखी की थी। 

गत कई वर्षों से केन्द्रीय नेता यह आभास दे रहे हैं कि वे कश्मीर की बहुआयामी समस्याओं के लिए हर प्रकार का समाधान जानते हैं। खेद की बात है कि उन्हें इस संबंध में बहुत ही कम जानकारी है। न तो कांग्रेस और न ही भाजपा के दिग्गजों ने अब तक यह प्रमाण दिया है कि वे जटिल स्थिति से निपटना जानते हैं। वे तो केवल अंधेरे में टटोल रहे हैं। केवल राज्यपालों या सत्ता के दलालों का बदलाव करना न तो कोई नीति है और न ही रणनीति। कश्मीर की बहुआयामी जटिलताओं के लिए हमारे पास कोई राष्ट्रीय नीति नहीं। इसकी गैर हाजिरी में हम अक्सर श्रीनगर की गलियों में जूते घिसाने वाले राजनीतिक गीदड़ों का मुंह ताकते रहते हैं।

जम्मू और कश्मीर राज्य कुछ हद तक अद्वितीय है क्योंकि यहां की आबादी में विशिष्ट पहचान वाले तीन समूह हैं। जम्मू और लद्दाख के लोगों की ढेर सारी जायज आर्थिक शिकायतें हैं लेकिन कश्मीर घाटी के लोगों के मामले में ऐसा नहीं है। उनकी प्रति व्यक्ति आय भी राज्य के तीनों क्षेत्रों में सबसे अधिक है। ऐसे में कश्मीर की गरीबी और अनदेखी का शोर मचाना एक सोची-समझी तोहमतबाजी है। घाटी में कोई गरीबी नहीं है। यदि वहां आज जीवन की परिस्थितियां विकट हैं तो ऐसा इसलिए है कि घाटी के लोगों ने अपने लिए ऐसी ही किस्मत का चयन किया। उग्रवाद और पाक प्रायोजित आतंकी गुटों ने कश्मीर के पर्यटन व्यवसाय और इससे जुड़ी हुई वे सभी गतिविधियां बर्बाद कर दी हैं जो घाटी के लोगों और राज्य की प्रगति के लिए जिम्मेदार थीं। 

मैं इतिहास के ‘किंतु-परंतु’ के लफड़े में नहीं पडऩा चाहता। फिर भी सौ सालों का एक सवाल यह है: स्वायत्तता का सवाल सैद्धांतिक रूप में जीवन और मौत का मुद्दा क्यों बना हुआ है? हम कश्मीरियों को यह बताने में क्यों विफल रहे हैं कि अन्य सभी राज्यों की तुलना में उन्हें पहले ही कहीं अधिक स्वायत्तता हासिल है? वैसे जो कुछ भी हो, केन्द्र ने जम्मू -कश्मीर के राज्यपाल एन.एन. वोहरा को उनके पद पर बनाए रखकर बहुत अच्छा काम किया है। आतंकवादियों और पत्थरबाजों की जटिल गतिविधियों के चक्रव्यूह में फंसे हुए इस राज्य के लिए वही हमारे सबसे बेहतरीन संकटमोचक हैं। 

कश्मीर का शासन चलाने के लिए कुछ हद तक कड़ाई से ही काम लेना होगा और यह कड़ाई सुविधा और तुष्टीकरण की चुनावी राजनीति पर नहीं बल्कि अचूक सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। यह अच्छी बात है कि दो पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों को राज्यपाल की सहायता के लिए सलाहकार नियुक्त किया गया है। मैं तो यह सुझाव दूंगा कि केन्द्र को घाटी और लद्दाख की जमीनी  हकीकतों के संबंध में अधिक जानकारी रखने वाले दो अन्य सलाहकार भी नियुक्त करने चाहिएं। आज स्थिति यह है कि कश्मीर पाकिस्तान की आई.एस.आई. की सहायता से बंदूक और हिंसा के दुष्चक्र में बहुत बुरी तरह उलझ चुका है। 

51 वर्षीय पत्रकार-सम्पादक शुजात बुखारी की ईद के मौके पर जघन्य हत्या इस घटनाक्रम का सबसे ताजा उदाहरण है, जो राजग के नेताओं और शेष देश के लिए एक गम्भीर चेतावनी है कि राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर विभिन्न नेताओं द्वारा अब तक जो तदर्थवादी नीतियां और भावभंगिमाएं अपनाई गई हैं उन्होंने कश्मीर को उस बिंदु पर पहुंचा दिया है जहां से उसके लिए पीछे लौटना लगभग असम्भव हो गया है। 

शुजात बुखारी जैसे कश्मीर घाटी के उदारवादी तत्व बहुत उम्मीद लगाए हुए थे कि रमजान के मौके पर लागू किया गया युद्ध विराम विस्तार हासिल कर पाएगा लेकिन उनकी तथा राष्ट्रीय राइफल के कश्मीरी सैनिक औरंगजेब की नृशंस हत्या ने सिद्ध कर दिया है कि ऐसे तत्वों की आवाज कितनी कमजोर है। यह कश्मीरी त्रासदी का एक बहुत अंधकारमय पहलू है। औरंगजेब के 56 वर्षीय पिता मोहम्मद हनीफ की आवाज ही इस घने अंधेरे में आशा की एकमात्र किरण है। कश्मीरी लोगों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा है : ‘‘मेरा बेटा शहीद हो गया है लेकिन आप लोग अपने बेटों को सेना में भेजना बंद न करें। मौत तो एक दिन आनी ही है। मैंने उसे देश की सेवा के लिए सेना में भर्ती करवाया था। एक सैनिक का तो जीवन ही यही है कि दुश्मन को मारो या आप मरो।’’ हनीफ और उनका परिवार हमारे अभिनंदन का पात्र है। 

सवाल यह पैदा होता है कि महबूबा मुफ्ती के अंतर्गत पी.डी.पी.-भाजपा सरकार हनीफ जैसे आम लोगों की हिम्मत और प्रतिबद्धता को मजबूत करने के लिए क्या कर रही थी? राज्य लगातार रसातल की ओर जा रहा था। इस क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर सुरक्षा बल अपनी जिम्मेदारियों को बहुत बढिय़ा ढंग से अंजाम दे रहे हैं, हालांकि राजनीतिक कर्णधारों द्वारा कोई स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं दिया जा रहा। कश्मीर में सभी रंगों के राजनीतिक नेता बुरी तरह विफल रहे हैं। 

इससे भी बड़ी बात यह है कि मोदी सरकार के पास भी समन्वित अल्पकालिक और दीर्घकालिक नीतियांं होने का कोई आभास नहीं हो रहा। जम्मू क्षेत्र के भाजपा नेताओं की सभी कवायदें जम्मू के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। मुझे खेद से कहना पड़ता है कि भाजपा नेताओं की गुणवत्ता दयनीय है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपना ही एजैंडा है, ऐसे में कश्मीर घाटी की लगातार बदल रही जमीनी हकीकतों की सुध कौन लेगा। गृह मंत्री राजनाथ सिंह तो कभी-कभार ही कश्मीर के मामलों में रुचि लेते हैं। सर्वप्रथम साऊथ ब्लाक को पाकिस्तान के मामले में तदर्थवादी विदेश नीति का त्याग करना होगा। 

दूसरे नम्बर पर अपनी वरीयताओं तथा समूचे राष्ट्रीय हित के मद्देनजर केन्द्र सरकार को अवश्य ही अल्पकालिक और दीर्घकालिक रणनीतियां अपनाते हुए कार्रवाई शुरू करनी होगी। तीसरी बात यह कि एक प्रमुख शक्ति के रूप में भारत को घटनाओं का मूकदर्शक बनने या लाचारी से हाथ मलने की बजाय अग्रणी भूमिका निभाते हुए खुद घटनाओं की दिशा और दशा प्रभावित करनी होगी। प्रधानमंत्री महोदय, उग्रवाद की कमर तोडऩा, पी.ओ.के. में चल रहे आतंकियों के प्रशिक्षण शिविरों का विध्वंस करना और जनता को बंदूक के भय से मुक्त करवाना बहुत जरूरी है।-हरि जयसिंह


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