कर्नाटक का चुनाव लोकसभा का ‘सैमीफाइनल’

punjabkesari.in Wednesday, May 09, 2018 - 04:39 AM (IST)

कर्नाटक चुनाव लोकसभा चुनाव का सैमीफाइनल है, जो नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी का भविष्य भी तय करेगा, कांग्रेस और भाजपा की शक्ति को गतिशील करेगा। 

मोदी और राहुल यह राजनीतिक बात पूरी तरह से जानते-समझते हैं और इन दोनों नेताओं को कर्नाटक चुनाव की अहमियत भी मालूम है। कर्नाटक चुनाव प्रचार में मोदी और राहुल की सक्रियता भी जोरदार है। दोनों नेता अपने-अपने दल के लिए हवा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यही कारण है कि कर्नाटक चुनाव की गूंज पूरे देश में सुनी जा रही है। 

यह बात भी प्रचारित-प्रसारित हो रही है कि कर्नाटक चुनाव में जो जीतेगा वह लोकसभा चुनाव के दौरान सहज स्थिति में होगा और उसके लिए राजनीतिक रणनीतियां बनाना आसान होगा। खासकर कांग्रेस के लिए कर्नाटक का यह चुनाव कितना महत्वपूर्ण है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इसका लगातार क्षरण हो रहा है, हार हो रही है, मोदी का कांग्रेस मुक्त अभियान सक्रियता के साथ गतिमान है। अगर कांग्रेस कर्नाटक में अपनी सत्ता बरकरार रख पाती है तो वह मोदी विरोधी हवा बहाने में कामयाब हो सकती है और 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व एक सशक्त गठबंधन बना सकती है। कांग्रेस के साथ में विरोधी पार्टियां जाने के लिए विवश हो सकती हैं। 

अगर ऐसा हुआ तो फिर नरेंद्र मोदी को एक गंभीर चुनौती मिल सकती है। राहुल गांधी  मोदी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर सकते हैं, अपने आप को मोदी का विकल्प आसानी से बना सकते हैं। जनता के बीच में भी यह संदेश जाएगा कि कांग्रेस और राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी को पराजित करने के लिए एक सशक्त विकल्प हैं लेकिन कांग्रेस हारी तो फिर नरेन्द्र मोदी की उड़ान रोकना मुश्किल होगा। 

कर्नाटक चुनाव की आंतरिक स्थिति  के कई कोण हैं जो चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की राजनीतिक शक्ति रखते हैं, पर प्रमुख रूप से दो कोण हैं जिनके आस-पास कर्नाटक की पूरी चुनावी राजनीति घूम रही है। पहला कोण लिंगायत है। ङ्क्षलगायत एक जाति थी, एक संप्रदाय था लेकिन अब लिंगायत को एक धर्म के रूप में पहचान दिलाने की पूरी राजनीतिक शक्ति लगी हुई है। कांग्रेस ने ङ्क्षलगायत को अलग धर्म का दर्जा देकर एक दाव खेला है और फिर से सत्ता पर स्थापित होने की इच्छा पाल रखी है। कांग्रेस को यह लगता है कि लिंगायत ही वह जाति है, वह संप्रदाय है, वह धर्म है जिस पर सवारी कर सत्ता को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 

बात भी सही है कि कर्नाटक में लिंगायत जाति, संप्रदाय और धर्म का बोलबाला है। बिहार-उत्तर प्रदेश में जिस तरह से यादव जाति दबदबा रखती है और सत्ता को प्रभावित करती है, उसी प्रकार से कर्नाटक में ङ्क्षलगायत भी चुनाव और सत्ता को प्रभावित करने की शक्ति रखते हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया लिंगायत नहीं हैं, पर उन्होंने ङ्क्षलगायत को साथ रखने के लिए जिस प्रकार से दाव खेले हैं उसके परिणाम काफी गंभीर थे। लिंगायत जाति-संप्रदाय को अलग धर्म का दर्जा देने के प्रश्न पर काफी हंगामा हुआ है, हिन्दूवादी संगठनों ने इसको लेकर काफी हाय-तौबा मचाई है, कांग्रेस पर हिन्दू धर्म को खंडित करने के आरोप लगाए हैं। 

राजनीति में हर क्रिया पर विपरीत प्रतिक्रिया होती है, हथकंडे को हथकंडे से जवाब देने की नीति बनती है। कांग्रेस ने लिंगायत को अपने साथ रखने की नीति बनाई तो फिर भाजपा ने लिंगायत मुख्यमंत्री का दाव खेल दिया। भाजपा के नेता येद्दियुरप्पा खुद लिंगायत हैं। भाजपा यह कह रही है कि अगर वह सत्ता में आई तो लिंगायत ही मुख्यमंत्री होगा। भाजपा ने ङ्क्षलगायत नेता येद्दियुरप्पा का नाम भी मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित कर दिया है। वह पहले भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोप थे। इसी आरोप में भाजपा ने उन्हें हटाया था। 

पिछला विधानसभा चुनाव येद्दियुरप्पा ने भाजपा के खिलाफ लड़ा था। फलस्वरूप भाजपा की हार हुई थी। येद्दियुरप्पा की भाजपा में वापसी हो गई और वह भाजपा के सर्वमान्य नेता बन गए हैं। लिंगायत जाति के सामने समस्या यह है कि कांग्रेस के दाव का समर्थन करे या फिर अपनी जाति के नेता येद्दियुरप्पा का। येद्दियुरप्पा की पूरी कोशिश लिंगायत को अपने साथ लाने की है। यह तो सही है कि लिंगायत अपने पूरे पत्ते खोल नहीं रहे हैं मगर पूरी लिंगायत जाति एकजुट होकर किसी तरफ जा नहीं सकती है इसलिए कांग्रेस का यह दावा कि लिंगायत जाति उसके साथ खड़ी है, सही नहीं है। दूसरा कोण एच.डी. देवेगौड़ा का है। वह कर्नाटक की राजनीति में हमेशा त्रिकोण बना कर रखते हैं। उनकी राजनीतिक हैसियत हमेशा बनी रही है। सिद्धारमैया भी देवेगौड़ा की देन हैं। देवेगौड़ा से विश्वासघात कर वह कांग्रेस में शामिल हुए थे। देवेगौड़ा ने अपना उत्तराधिकार अपने बेटे कुमारस्वामी को सौंपा है। कुमारस्वामी और सिद्धारमैया में कभी पटी नहीं। सिद्धारमैया ने भी अपने 5 साल के शासनकाल में देवेगौड़ा परिवार की राजनीति को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। खासकर कुमारस्वामी के खिलाफ उन्होंने अभियान चलाया था। 

देवेगौड़ा की जाति भी कर्नाटक में अपना महत्व रखती है और लिंगायत के बाद उसी की धमक है। देवेगौड़ा अपनी जाति के बल पर ही अपनी राजनीतिक हैसियत कायम करने में सफल रहे हैं। वह पूर्व प्रधानमंत्री हैं, इसलिए भी उनका कर्नाटक में प्रभाव और अहमियत है। राष्ट्रीय स्तर पर यह अवधारणा है कि देवेगौड़ा को सैकुलर गठबंधन के साथ जाना चाहिए। इसका अर्थ है-कांग्रेस और सिद्धारमैया का नेतृत्व स्वीकार करना जबकि कर्नाटक में कांग्रेस और सिद्धारमैया ने देवेगौड़ा की पार्टी को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। स्वाभाविक तौर पर देवेगौड़ा और कुमारस्वामी अपने अपमान का बदला कांग्रेस से लेना चाहते हैं।कर्नाटक में देवेगौड़ा की पार्टी मजबूत है और चाक-चौबंद ढंग से चुनाव लड़ रही है। जनता के बीच अपने आप को मजबूत विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर रही है। जब देवेगौड़ा-कुमारस्वामी की पार्टी मजबूत ढंग से चुनाव में है तो फिर कांग्रेस की बेचैनी और कमजोरी को क्यों न समझा जाए? कांग्रेस का ही वोट तो देवेगौड़ा की पार्टी काटेगी। जब देवेगौड़ा की पार्टी कांग्रेस का वोट काटेगी तो फिर कांग्रेस की राजनीतिक संभावनाएं तो कम होंगी ही, इससे इंकार कैसे किया जा सकता है? 

लिंगायत जाति को केन्द्र में रखकर चुनाव लडऩा कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है क्योंकि अन्य जातियां अपने आप को अपमानित, उपेक्षित और हाशिए पर खड़ा मानेंगी। गुजरात इसका उदाहरण है। जहां कांग्रेस ने पटेलों को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़ा था। पटेल जाति को केन्द्र में रखने के खिलाफ अन्य जातियों ने कांग्रेस के विरुद्ध और भाजपा के समर्थन में वोट किया था। नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में यादव, गुजरात में पटेल और हरियाणा में जाट के तिलिस्म को तोड़कर सत्ता स्थापित की है इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वह कर्नाटक में लिंगायत जाति की शक्ति के तिलिस्म को तोड़ कर सत्ता स्थापित कर सकते हैं और कांग्रेस व राहुल गांधी के सपनों को एक बार फिर चकनाचूर कर सकते हैं।-विष्णु गुप्त


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Pardeep

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