क्या किसी राज्य के लिए अपना आधिकारिक ध्वज तय करना उचित है

punjabkesari.in Sunday, Jul 23, 2017 - 10:49 PM (IST)

वैसे तो मैं गुजराती हूं लेकिन काफी लम्बे समय से कर्नाटक में रहता हूं। दोनों ही राज्यों की अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान है। मेरे माता-पिता सूरत में रहा करते थे, जो 1700 ई. के आसपास एक अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह हुआ करता था। यह अनेक राष्ट्रीयताओं, जातियों और समुदायों की एक रोचक खिचड़ी-सा था। जो लोग सदियों पूर्व घूमते-फिरते यह शहर देखने आए वे यहीं बस गए। 

भारत का यही एकमात्र शहर है जहां अनेक स्वदेशी व्यापारी जातियां निवास करती हैं: जैसे जैन, बनिया, शिया बोहरा, सुन्नी बोहरा, मेमन, खोजा, पारसी तथा 1970 के बाद अग्रवाल व ओसवाल भी हजारों की संख्या में यहां रहते हैं। गत शताब्दियों में तो यहां विदेशी भी रहा करते थे और यहीं व्यापार भी करते थे। यहां तक कि महान लेखक लियो टालस्टॉय ने इस शहर पर एक लघु कहानी भी लिखी थी- ‘सूरत का कॉफी हाऊस’। इस कहानी में सूरत के एक कैफे में एक पर्शियन (ईरानी), एक अफ्रीकी, एक भारतीय, एक इतालवी, एक यहूदी व्यापारी, एक चीनी, एक तुर्क और एक अंग्रेज परमात्मा के बारे में चर्चा करते हैं। 150 वर्ष पूर्व टालस्टॉय ने जो बातें लिखी थीं, आज की सूरत में न तो उन बातों की कल्पना की जा सकती है और न ही इतने अलग-अलग तरह के लोगों के एक साथ मिल बैठने की। 

वास्तव में तो सन 1800 के सूरत में भी ऐसी कहानी की कल्पना करना मुश्किल था क्योंकि तब तक ताप्ती नदी में इतनी गाद जमा हो चुकी थी कि बड़े जलपोत सूरत बंदरगाह में दाखिल ही नहीं हो सकते थे। यह कमी पूरी करने के लिए भारत के पश्चिमी तट पर नई बंदरगाह मुम्बई में विकसित हुई थी। आज मुम्बई के किसी रेस्तरां में तो अचानक अनेक राष्ट्रीयताओं के लोगों के मिल बैठने की सम्भावना की कल्पना की जा सकती है। 

सूरत की तुलना में बेंगलूर अधिक नया शहर है लेकिन इसका इतिहास बहुत समृद्ध है। यह शहर अपने आप में एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड बन चुका है। जब भी मैं यूरोप या अफ्रीका या दक्षिण पूर्व एशिया अथवा विश्व के अन्य देशों की यात्रा पर जाता हूं तो लोग मुझे पूछते हैं कि मैं कहां से संबंध रखता हूं, तो केवल इतना कहना ही काफी है कि मैं बेंगलूर से हूं। वह समझ जाते हैं क्योंकि बेंगलूर में सूचना टैक्नोलाजी का बहुत उच्च क्वालिटी का काम होता है। वैसे अर्थव्यवस्था और रोजगार पैदा करने के दायरे से बाहर भी इस शहर के कई अन्य जलवे हैं। 

बेंगलूर में अनेक भाषाएं बोलने वाले लोग रहते हैं। यहां तक कि हमारे घर में सफाई करने वाली अनपढ़ होने के बावजूद कन्नड़, तेलगू, तमिल और हिंदी चारों ही भाषाएं धाराप्रवाह बोलती है और मलयालम भाषा को समझ लेती है। मैं नहीं मानता कि उत्तर भारत के शहरों में पढ़े-लिखे लोगों में भी ऐसी अनेकता देखने को मिलती होगी। हम बेंगलूर वासी इस खूबी पर बहुत गर्व महसूस करते हैं। बेशक यहां कन्नड़ भाषा को प्रमुखता देने की बात होती है (और मैं इसका समर्थन करता हूं), तो भी दूसरी भाषाओं के प्रति इस शहर में सहिष्णुता मौजूद है और यह काफी हद तक एक अनूठी बात है। यदि हम अपने राज्य और शहर के अनूठेपन पर गर्व करते हैं और इस बात का जश्र मनाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। 

मैं यह बात इसलिए लिख रहा हूं कि हाल ही में कन्नड़ ध्वज को लेकर वाद विवाद भड़का था। मुख्यमंत्री ने एक समिति को इस विषय में पड़ताल करने को कहा है कि क्या किसी राज्य के लिए अपना आधिकारिक ध्वज तय करना वाजिब है। वैसे ऐसा ध्वज पहले ही मौजूद है, जो कि पीले और लाल रंग का है और समस्त कर्नाटक वासियों को (गुजराती कन्नड़ों सहित) यह बात सभी को स्वीकार्य है। प्रदेश की सभी राजनीतिक पार्टियों की भी स्वीकृति इसे हासिल है और यह किसी को भी बुरा नहीं लगता। भगवा ध्वज के विपरीत कन्नड़ ध्वज किसी एक धार्मिक समुदाय का प्रतीक नहीं है। 

यदि कर्नाटक अपनी समृद्ध और गरिमापूर्ण विरासत के प्रतीक के रूप में इस ध्वज को प्रयुक्त करता है तो इससे किसी को बिल्कुल ही कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। प्रादेशिक ध्वज की अवधारणा का विरोध संकीर्ण मानसिकता वाले कथित राष्ट्रवादियों द्वारा किया जा रहा है जो कि हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की परिकल्पना को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे लोग भारत को एक भाषा और एक राष्ट्र वाला देश समझने की गलती कर रहे हैं। काफी हद तक यह मुद्दा कांग्रेस को बुरा-भला कहने के लिए ही प्रयुक्त किया जा रहा है परंतु मेरा मानना है कि मुख्यमंत्री सिद्धरमैया अपनी संवैधानिक सीमाओं से बाहर नहीं जा रहे। उन्होंने काफी स्पष्ट रूप में कह दिया है कि प्रादेशिक ध्वज राष्ट्रीय ध्वज से नीचे ही रहता है। ऐसा कहकर वह उन लोगों को निरुत्तर और मुद्दाविहीन कर रहे हैं जो यह सोचते हैं कि यह किसी अलगाववादी आंदोलन की दिशा में पहला कदम है।

संवैधानिक रूप में मुख्यमंत्री बिल्कुल सही हैं और मुझे यही उम्मीद है कि उनकी समिति भी उन्हें ऐसी ही सलाह देगी। भारतीय संविधान की पहली पंक्ति में ही दर्ज है: ‘‘इंडिया, यानी भारत विभिन्न राज्यों की संगठित इकाई है।’’ यानी कि हम विभिन्न राज्यों के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए ही अगला कदम उठा रहे हैं। यदि हम अपने चारों ओर नजर दौड़ाएं तो हम विभिन्न प्रकार के उपराष्ट्रवाद की बानगियां देखते हैं जिनके अपने-अपने ध्वज हैं। हमारे पास चेन्नई सुपरकिंग्स जैसी विशिष्ट शहर से जुड़ी या किंग्स इलैवन पंजाब जैसी एक राज्य विशेष से जुड़ी आई.पी.एल. टीमें हैं और यह भी उपराष्ट्रवाद का ही एक अलग रूप है। इन सभी टीमों के अपने-अपने ध्वज हैं और इससे किसी को कोई समस्या दरपेश नहीं आई और न ही राजनीतिक पार्टियों के अपने-अपने ध्वजों से कोई परेशानी है। 

दूसरी बात यह है कि यदि हम अपने जैसे अन्य देशों पर नजर दौड़ाएं तो प्रादेशिक पहचान की परिकल्पना  काफी व्यापक है। सभी अमरीकी प्रदेशों के अपने-अपने ध्वज हैं और ऐसा आरोप कभी भी सुनने में नहीं आया कि यह प्रावधान किसी तरह उनकी राष्ट्रीय पहचान के विपरीत जाता है। हमारे देश के सभी राज्यों का अपना-अपना अनूठा इतिहास है और इसी कारण उनकी विशिष्ट पहचान है। इन विशिष्ट पहचानों को अपनी अभिव्यक्ति की अनुमति होनी चाहिए। यह पहचानें किसी भी तरह हमारे संविधान से टकराती नहीं हैं और इसीलिए इनका दमन करने का कोई कारण मौजूद नहीं। 


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