भारतीय अर्थव्यवस्था ‘करवट बदलने’ की बजाय क्या ‘संकट’ में फंसी हुई है

punjabkesari.in Saturday, Nov 04, 2017 - 01:14 AM (IST)

जैसी चीजें आप पढ़ते हैं और जिन लोगों को आप सुनते हैं उनके आधार पर आप यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था करवट बदलने की बजाय संकट में फंसी हुई है। वैसे माक्र्सवादियों को तो एक शताब्दी से भी अधिक समय दुनिया की प्रत्येक पूंजीवादी व्यवस्था में ‘संकट’ ही दिखाई दे रहा है। जहां तक भारत का संबंध है ‘संकट’ के सिद्धांतकार और ‘हताशा’ के किस्साकार केवल माक्र्सवादियों तक ही सीमित नहीं हैं। 

‘‘भारत पर तत्काल आर्थिक संकट का खतरा’’ जैसी सुर्खियां मुख्य धारा के समाचार पत्रों में भी दिखाई देती हैं। एक माह पहले सत्तारूढ़ पार्टी के पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा था कि भंवर में फंसी हुई अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है और बहुत जल्द ही यह कठोर जमीन पर गिरेगी। हताशा के किस्साकार इस ओर इंगित करते हैं कि अर्थव्यवस्था 2016 की पहली तिमाही (क्यू-1) के समय से ही अपना वेग खो चुकी है। उस समय की वृद्धि दर 8.7 प्रतिशत थी जो घटते-घटते 2017 की दूसरी तिमाही में 5.7 पर आ गई। 

लेबर ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि बेरोजगारी 2011-12 के 3.8 प्रतिशत के आंकड़े से उछलकर 2015-16 में 5 प्रतिशत पर पहुंच गई है। 2015-16 और 2016-17 के बीच कारखाना क्षेत्र की वृद्धि दर 10.8 प्रतिशत से फिसलकर 7.9 प्रतिशत पर आ गई जबकि भवन निर्माण क्षेत्र में यह आंकड़ा 5 प्रतिशत से घटकर 1.7 प्रतिशत पर आ गया। अनेक परियोजनाएं, खास तौर पर आधारभूत ढांचे से संबंधित परियोजनाएं थम गई हैं। इन रुकी हुई परियोजनाओं का सितम्बर 2016 में मूल्य 10.7 ट्रिलियन रुपए था जोकि सितम्बर 2017 में 13.2 ट्रिलियन तक जा पहुंचा। 2011-12 और 2016-17 के बीच सकल अचल पूंजी निर्माण जी.डी.पी. के 42 प्रतिशत से घटकर 38.4 प्रतिशत रह गया। बैंक ऋण की वृद्धि दर भी 2015-16 के 10.9 प्रतिशत से घटकर 2016-17 में 8.1 प्रतिशत रह गई। बैंकों द्वारा दिए गए कुल ऋण में गैर-निष्पादित सम्पत्तियों (एन.पी.ए.) का अनुपात 2011 में मात्र 2.5 प्रतिशत था जोकि लगभग 4 गुणा बढ़कर मार्च 2017 में 9.6 प्रतिशत तक जा पहुंचा। 

500 और 1000 के पुराने नोटों के 8 नवम्बर, 2016 को हुए विमुद्रीकरण ने आर्थिक गतिविधियों को अवरुद्ध किया- खास तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में। 1 जुलाई, 2017 से जी.एस.टी. ने इस व्यवधान में और भी वृद्धि कर दी- खास तौर पर छोटे और मंझोले कारोबारों के मामले में। ऐसे में हताशा का राग गाने वालों ने यह कहना शुरू कर दिया कि सरकार वित्तीय दायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम (एफ.आर.बी.एम.ए.) को एक ओर रखकर वित्तीय प्रोत्साहन देने को तैयार नहीं और रिजर्व बैंक भी नीतिगत ब्याज दरों में कमी न करने पर अड़ा हुआ है जिससे पहले से ही पैदा हुई कठिन परिस्थितियां और भी विकट बन गई हैं। 

अब बात करते हैं ‘‘आशावादियों’’ की जिन्हें अर्थव्यवस्था करवट बदल रही दिखाई देती है। उनके अनुसार न केवल रिजर्व बैंक बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और एशियाई विकास बैंक जैसी बाहरी एजैंसियों ने भी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2017-18 में  6.7 और 7.4 प्रतिशत के बीच रहने के अनुमान लगाए हैं। एफ.आर.बी.एम.ए. का कठोरता से अनुपालन करने की सरकार की दृढ़ता के साथ-साथ आर.बी.आई. की मुद्रास्फीति रोधी नीतियों के चलते अगस्त 2015 से अर्थव्यवस्था के बड़े घटकों में स्थिरता बनी हुई है।

मुद्रास्फीति तो नवम्बर 2013 में 11.5 प्रतिशत उच्च स्तर छूने के बाद लगातार और मंद गति से नीचे आते-आते सितम्बर 2017 में केवल 3.3 प्रतिशत ही रह गई है और चालू खाते का घाटा, जोकि 2012-13 में सकल मूल्य संवद्र्धन (जी.वी.ए.) के  5.2 प्रतिशत के उच्च स्तर से लुढ़क कर 2016-17 में केवल 0.8 प्रतिशत रह गया है। डालर के रूप मेंनिर्यात मूल्यन सितम्बर 2017 में 25.7 प्रतिशत बढ़ा है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आई.आई.पी.) न केवल सुधरकर नवम्बर 2016 के बाद 4.3 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है बल्कि पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में भी 5.9 प्रतिशत का विस्तार हुआ है। 

बी.एस.ई.-सी.एम.आई.ई. के सर्वेक्षणों के अनुसार अगस्त 2016 में बेरोजगारी 9.82 प्रतिशत थी लेकिन यह नीचे आ रही है और सितम्बर 2017 में 4.47 प्रतिशत रह गई थी। अवरुद्ध परियोजनाएं बेशक चिंता का विषय हैं लेकिन सरकारी परियोजनाओं की अवरुद्धि दर दिसम्बर 2015 के 9 प्रतिशत के उच्चतम आंकड़े से घटकर सितम्बर 2017 में 7.3 प्रतिशत पर आ गई थी। सरकारी परियोजनाओं के निष्पादन तथा सार्वजनिक खर्च के प्रबंधन में भी बेहतरी के संकेत मिल रहे हैं। बैंक ऋण में वृद्धि की सुस्त रफ्तार कुछ हद तक इस वास्तविकता की ओर संकेत करती है कि सूचीबद्ध कम्पनियों के गैर-बैंकिंग ऋण जैसे कि विदेशी कोष, ई.सी.बी., संस्थागत उधारी एवं म्यूचुअल फंड इत्यादि तक पहुंच में सुधार हुआ है। 

आशावादियों का कहना है कि सरकार ने 24 अक्तूबर, 2017 को सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पुन: पूंजीकरण के लिए 2.11 ट्रिलियन राशि की घोषणा की है। इससे पहले 2016 में नया दीवालिया कानून पारित किया गया था। इन दोनों बातों के चलते जहां एन.पी.ए. की स्थिति में सुधार आएगा, वहीं भारी कर्ज से दबी कम्पनियों को भी राहत मिलेगी। आंकड़ों की भूल-भुलैयां से परे, अधिक बुनियादी स्तर पर आशावादी (जिनमें मैं भी शामिल हूं) यह दलील देंगे कि नीतियों के मामले में भारत ने गियर बदल लिया है। 

अगस्त 2016 में योजना आयोग की समाप्ति ने ‘कोटा-परमिट राज’ और कथित समाजवादी परियोजना बंदी का अंत कर दिया है। अब कुछ विशेष चहेते समुदायों और समूहों को लाभान्वित करने के लिए घाटे के बजट के रुझान में कमी आएगी। वैसे ऐसे सुधार बहुत कम होते हैं जिनसे किसी प्रकार की पीड़ा न पहुंचे लेकिन दमदार सुधारों के बाद इनसे मिलने वाले लाभों का प्रवाह भी निश्चय ही शुरू होगा। समूची अर्थव्यवस्था में (मैक्रो इक्नोमिक) स्थायित्व लाने के लिए राजग सरकार ने अनेक पेशकदमियां की हैं। निकट भविष्य में इन नीतियों के और भी परिणाम सामने आएंगे।-अशोक लाहिड़ी


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