भारत 1947 में बना था ‘हिन्दू राज’

punjabkesari.in Tuesday, Oct 17, 2017 - 01:56 AM (IST)

5 अक्तूबर को ‘इंडियन एक्सप्रैस’ में फ्रांसीसी विद्वानों क्रिस्टोफ जाफ्रेलो एवं गिल्ले वर्नियर द्वारा लिखित सम्पादकीय पृष्ठ के मुख्य आलेख का विषय था कि कांग्रेस वैचारिक दृष्टि से भाजपा से कितनी भिन्न है। 

सम्पादक ने भी इस आलेख की मूल भावना को समझते हुए इसे बिल्कुल उपयुक्त सुर्खी से नवाजा : ‘‘कांग्रेस और भाजपा- परस्पर युद्ध नौटंकी।’’ जाफ्रेलो-वर्नियर की जोड़ी ने अपनी प्रयोगशाला के रूप में गुजरात पर फोकस किया ताकि वे अध्ययन कर सकें कि मुख्य नेताओं ने किस तरह सर्कस के कलाकारों की तरह बार-बार पाला बदला। मुझे लगता है कि यह एक व्यापक शोध की शुरूआत है क्योंकि लड़ाई की यह नौटंकी देश के उन सभी क्षेत्रों पर लागू होती है जहां कांग्रेस की थोड़ी-बहुत उपस्थिति है। अधिकतर मामलों में यह भाजपा की ‘बी टीम’ जैसी दिखाई देती है और इसी कारण इसने भाजपा के आगे बढऩे के लिए स्थान खाली किया है। 

हाल ही के दशकों में कांग्रेस ने भाजपा के समक्ष दो तरह की मुद्राएं प्रस्तुत की हैं। मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में पार्टी ने भाजपा से सीधी टक्कर ली क्योंकि तीसरा दल कोई था ही नहीं। केरल में खास तौर पर के. करुणाकरण के मुख्यमंत्रित्व में पार्टी ने हर उस स्थान पर संघ परिवार का दामन थामा जहां वाम मोर्चे से टक्कर लेने के लिए ऐसा करना जरूरी था। वास्तव में करुणाकरण तो इस दोमुंही राजनीति के उस्ताद थे। एक मौके पर कोझीकोड में उन्होंने माकपा के टी.के. हम्जा को हराने के लिए कांग्रेस, भाजपा और मुस्लिम लीग को एक ही पाले में लाने का दाव चला था। 

आखिर भोपाल में हिन्दुत्व से दो-दो हाथ करने और तिरुवनंतपुरम में इसके साथ आंख लड़ाने की कांग्रेस की नीति का नतीजा क्या निकला? मैं गत सप्ताह इंदौर और मांडु में  मध्य प्रदेश कांग्रेस के जिन प्रदेश और जिला स्तरीय मुस्लिम नेताओं से मिला उन्होंने अपनी स्थिति की बहुत दयनीय तस्वीर प्रस्तुत की और कहा कि दिल्ली अथवा भोपाल में बैठी पार्टी हाईकमान ने उन्हें अपने घड़े की मछली समझ रखा है। यूथ कांग्रेस नेता मोहम्मद कामरान ने व्यथा जाहिर की : ‘‘आजकल टीना फैक्टर (यानी ‘कोई अन्य विकल्प नहीं’) हम पर ही लागू होता है जब एक मुस्लिम बहुल गांव में आग लगी तो कांग्रेस का कोई वरिष्ठ नेता (जोकि हिन्दू ही होता है) लोगों का दुख बांटने के लिए नहीं पहुंचा।’’ 

राजस्थान में भी स्थितियां बिल्कुल ऐसी ही हैं जब 2011 में दिल्ली से मात्र एक घंटा कार यात्रा की दूरी पर स्थित गोपालगढ़ में 10 मुस्लिमों की गोली मारकर हत्या कर दी गई तो न ही राहुल गांधी और न ही गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने वहां जाने का कष्ट किया, हालांकि अनेक शिष्टमंडलों ने उनसे मुलाकात करके ऐसा निवेदन किया था। देश में किसी मस्जिद के अंदर पुलिस द्वारा गोलीबारी की यह पहली घटना थी। 

केरल में कांग्रेस की छोटे-छोटे सामुदायिक व साम्प्रदायिक गुटों पर अक्सर निर्भरता का परिणाम यह हुआ है कि हिन्दुत्व की शक्तियों के प्रवेश करने के लिए धीरे-धीरे दरवाजे खुलते गए और अब वे लगभग इस स्थिति में आ गई हैं कि कांग्रेस का स्थान लेने के लिए दावेदारी ठोंक सकें। इस प्रक्रिया की रफ्तार सुस्त रहने के लिए प्रदेश का विशिष्ट किस्म का और जागरूक सामाजिक तानाबाना जिम्मेदार है। लेकिन इस वास्तविकता के बावजूद राजीव गांधी का ‘ब्राह्मणीकरण’ करने के अपने प्रयासों में करुणाकरण हतोत्साहित नहीं हुए। दिसम्बर 1984 के चुनाव में 514 में से 404 लोकसभा सीटों पर राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत को इंदिरा गांधी की जान लेने वाले अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकवाद की प्रतिक्रिया में हिन्दुओं की एकजुटता के रूप में परिभाषित किया गया था यहां तक कि पार्टी के खजानची सीताराम येचुरी (जोकि रोम-रोम गैर-साम्प्रदायिक थे) ने इस जनादेश की व्याख्या बहुसंख्यवादी अर्थों में ही की थी। 

1986 में कांग्रेस के महासचिवों में से कुछ अधिक जागरूक वी.एन. गॉडगिल ने मुझे अकेले में बताया था कि : ‘‘हिन्दुओं में यह भावना बहुत बड़े स्तर पर व्याप्त है कि कांग्रेस मुस्लिमों का तुष्टीकरण कर रही है।’’ यही मानसिकता कालांतर में कांग्रेस की समस्त गतिविधियों को निर्देशित करती रही और जैसा कि जाफ्रेलो एवं वॢनयर ने गुजरात में देखा है, इसका स्वरूप कुछ ऐसा बन गया कि भाजपा से इसकी भिन्नता ढूंढ पाना मुश्किल हो गया। मुस्लिमों का कांग्रेस ने जो ‘‘तुष्टीकरण’’ किया था वह सच्चर समिति की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है। सच्चर समिति द्वारा बयान की गई दुर्दशा में से मुस्लिमों को उबरने में सहायता हेतु रंगनाथ मिश्र आयोग ने जो सिफारिशें की थीं वे अभी तक अलमारियों में पड़ी धूल फांक रही हैं। 

1992-93 के मुम्बई दंगों में मारे गए 900 लोगों में से अधिक मुस्लिम थे जिनकी दुकानें और घर भी जला दिए गए थे। इन दंगों के संबंध में बनाए गए श्रीकृष्ण आयोग ने इनमें सीधे तौर पर संलिप्त राजनीतिज्ञों के नामों का उल्लेख किया था लेकिन यह रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई। इन सब बातों का आरोप केवल नरेन्द्र मोदी द्वारा किए जा रहे भगवाकरण के सिर मढऩा इतिहास की बहुत बड़ी अनदेखी करने के तुल्य है। हिन्दुत्व आज जितना आगे बढ़ चुका है उसको केवल गत 3 वर्षों की उपलब्धि बताने के लिए हमें किसी जबरदस्त जादू या चमत्कार का सहारा लेना होगा। दो टूक बात है कि हिन्दुत्व का आधार कांग्रेस के गत 70 वर्षों के दौरान ही तैयार किया गया था। 

हमें किसी भी हालत में यह नहीं भूलना चाहिए कि 70 साल की अवधि दौरान हिंदू महासभा, आर.एस.एस., अखिल भारतीय राम राज्य परिषद तथा कांग्रेस के अनेक प्रकार के तत्व बिल्कुल एक-दूसरे में अभेद बने रहे हैं। हिंदू महासभा के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। भारत की उनकी परिकल्पना उनके द्वारा संस्थापित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से कोई अधिक भिन्न नहीं हो सकती। यू.पी. के प्रथम गृह सचिव राजेश्वर दयाल ने अपने संस्मरणों-‘हमारे युग का जीवन’ में उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत तथा आर.एस.एस. के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के बारे में एक बहुत ही आश्चर्यजनक प्रसंग का उल्लेख किया। आर.एस.एस. प्रमुख से बहुत ही एतराजयोग्य सामग्री से भरा हुआ एक ट्रंक मिला था। जिसमें पश्चिम यू.पी. में साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने की व्यापक योजनाएं दर्ज थीं। फिर भी मुख्यमंत्री ने उनके बच निकलने का जुगाड़ कर दिया। 

जून 1947 को माऊंट बेटन की देश विभाजन की योजना स्वीकार करने के बाद कांग्रेस ने व्यावहारिक रूप में द्विराष्ट्र सिद्धांत स्वीकार कर लिया था जबकि सार्वजनिक रूप में इसके विरुद्ध बोलती थी। 15 अगस्त 1947 को भारत तो बहुत सुगम ढंग से ब्रिटिश राज से हिंदू राज की ओर प्रस्थान कर गया। पाकिस्तान की तर्ज पर इसका नाम भी हिंदुस्तान रखा जा सकता था। यदि उस समय भारत की बागडोर हिंदुओं के हाथ में होती तो सत्ता की भागीदारी के लिए अधिक ईमानदारी भरी सौदेबाजी सम्भव थी। यदि ऐसा हो गया होता तो नए सिरे से हिंदू राष्ट्र का सपना साकार करने की पीड़ादायक प्रक्रिया की नौबत ही न आई होती। (लेखक के विचार निजी हैं।)
 


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