लोकतंत्र में है ‘जानने का अधिकार’

punjabkesari.in Monday, Feb 19, 2024 - 05:15 AM (IST)

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा-सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्जी से चुने गए सांसद या विधायक उनकी आवाज उठाएंगे और उनके ही हक में सरकार चलाएंगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी।

‘इलैक्टोरल बांड्स’ के जरिए राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बांड्स के जरिए दिए जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक में नीतियां बनवाने की रिश्वत है।

विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिए गए राजनीतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी। परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलैक्टोरल बांड्स’ की जानकारी को सांझा न करने के निर्णय को गलत ठहराया और ‘इलैक्टोरल बांड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आने वाले तीन हफ्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलैक्टोरल बांड्स’ द्वारा दिए गए चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए।

विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक पंडितों द्वारा इस फैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहां हम किसी भी एक विशेष राजनीतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पाॢटयों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनीतिक दलों के प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलैक्टोरल बांड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नकद राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीमकोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनीतिक दल जिन्हें ‘इलैक्टोरल बांड्स’ के जरिए सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।

वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जांच एजैंसियों द्वारा कोई कार्रवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहां एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनीतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वे किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए।

परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पाॢटयों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘इलैक्टोरल बांड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनीतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, ‘‘अब चूंकि चुनाव आयोग को ‘इलैक्टोरल बांड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनीतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रकम मिली है।

इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुंचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है।’’ चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलैक्टोरल बांड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, ‘‘क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बांट दे।

ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलैक्टोरल बांड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा।’’ कुल मिलाकर ‘इलैक्टोरल बांड्स’ पर सुप्रीमकोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों के सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफी मददगार साबित होगा। -विनीत नारायण


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