लोकतंत्र में ‘फ्री प्रैस’ का महत्व

punjabkesari.in Saturday, May 04, 2024 - 05:03 AM (IST)

4 जून, 1903 को, महात्मा गांधी ने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ खड़े होने और भारतीयों के लिए नागरिक अधिकारों पर जोर देने के लिए दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’  की शुरूआत की। परिवर्तन लाने के लिए समाचार पत्रों की शक्ति में गांधी के विश्वास ने उन्हें प्रकाशन का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित किया। ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्सपैरीमैंट्स विद ट्रूथ’ में गांधी कहते हैं : 

‘‘इंडियन ओपिनियन के पहले महीने में ही मुझे एहसास हुआ कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए। समाचार पत्र प्रैस एक महान शक्ति है, लेकिन जिस प्रकार पानी की अनियंत्रित धारा पूरे ग्रामीण इलाकों को डुबो देती है और फसलों को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार अनियंत्रित कलम नष्ट करने के अलावा और कुछ नहीं करती। यदि नियंत्रण बाहर से हो तो यह नियंत्रण के अभाव से भी अधिक जहरीला साबित होता है। यह तभी लाभदायक हो सकता है जब इसका प्रयोग भीतर से किया जाए। यदि तर्क की यह पंक्ति सही है, तो दुनिया की कितनी पत्रिकाएं कसौटी पर खरी उतरेंगी? लेकिन जो बेकार हैं उन्हें कौन रोकेगा? आम तौर पर अच्छे और बुरे की तरह उपयोगी और अनुपयोगी को एक साथ चलना चाहिए और मनुष्य को अपनी पसंद बनानी चाहिए।’’ 

जैसा कि मैं यह लिख रहा हूं, दुनिया 3 मई को प्रैस स्वतंत्रता दिवस मनाती है और महात्मा गांधी की स्थायी बुद्धिमत्ता इससे अधिक सच्ची नहीं हो सकती। उनके शब्द प्रैस की स्वतंत्रता के सार को दर्शाते हैं कि सत्य की सम्मानजनक खोज और सटीक जानकारी फैलाकर जनता की सेवा की जाए। महात्मा गांधी ने प्रैस की तुलना एक जंगली नदी से की जो सकारात्मक परिवर्तन ला सकती है, लेकिन अराजकता भी पैदा कर सकती है। उनका संदेश सरल और सीधा है। प्रैस का व्यापक प्रभाव है। इसका कार्य समाज को आकार देना, नीतियों का मार्गदर्शन करना और शक्तिशाली लोगों को जवाबदेह बनाए रखना है। किसी भी शक्ति की तरह, इसका उपयोग जिम्मेदारीपूर्वक और नैतिक रूप से किया जाना चाहिए। 

हालांकि उन्होंने चेतावनी दी कि प्रैस बिना नियंत्रण के झूठी सूचना फैला सकती है। विभाजन पैदा कर सकती है और लोगों को नुकसान पहुंचा सकती है। साथ ही, गांधी ने बहुत अधिक नियंत्रण के प्रति आगाह किया क्योंकि यह सच्चाई को चुप करा सकती है और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकती है। भारत में प्रैस की स्वतंत्रता एक चिंता का विषय रही है, खासकर पिछले एक दशक से। हालांकि भारत में विविध आऊटलैट्स वाला एक जीवंत मीडिया है, लेकिन प्रैस की स्वतंत्रता के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। एक प्रमुख मुद्दा पारंपरिक और डिजिटल मीडिया आऊटलैट्स का राजनीतिकरण और सैंसरशिप है, जो स्वतंत्र रूप से  रिपोर्ट करने की क्षमता को बाधित कर सकता है। पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग के लिए उत्पीडऩ, धमकी और यहां तक कि हिंसा का सामना करना पड़ा है, खासकर संवेदनशील राजनीतिक विषयों को कवर करते समय या सरकार की आलोचना करते समय। 

पत्रकारों और मीडिया संगठनों को निशाना बनाने के लिए राजद्रोह, मानहानि और अदालत की अवमानना जैसे कानूनों का इस्तेमाल किया गया है, जिससे स्व-सैंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भयानक प्रभाव पड़ा है। ऑनलाइन गलत सूचना और दुष्प्रचार का बढऩा समाचार मीडिया की विश्वसनीयता को कम करता है और पत्रकारिता में जनता का विश्वास कम करता है। जबकि भारत को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार प्राप्त है। प्रैस को अक्सर वास्तविकता में चुनौतियों और जोखिमों का सामना करना पड़ता है। 

न्यूज मिनट ने 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले प्राइमटाइम टी.वी. समाचार शो की सामग्री की जांच की। इसने महत्वपूर्ण मुद्दों बनाम विभाजनकारी एजैंडे पर फोकस का आकलन करने के लिए 1 फरवरी से 12 अप्रैल के बीच 6 चैनलों और 6 एंकरों में 429 सैगमैंट को ट्रैक किया। नतीजों से पता चलता है कि 52 प्रतिशत कवरेज विपक्ष-विरोधी थी। 27 प्रतिशत ने मोदी सरकार की प्रशंसा की, 5.6 प्रतिशत ने सरकार से न्यूनतम पूछताछ के साथ सांप्रदायिक विषयों को कवर किया, और केवल 1.4 प्रतिशत ने नौकरियों और मुद्रास्फीति जैसे विषयों को संबोधित किया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत की प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक रैंकिंग गिर गई है। वैश्विक मीडिया वॉचडॉग रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स (आर.एस.एफ.) की सबसे हालिया रिपोर्ट के अनुसार, विश्व प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की स्थिति 2022 में 150 से गिरकर इस वर्ष 180 देशों में से 161 पर आ गई। विश्व प्रैस स्वतंत्रता दिवस पर, आइए हम भारत में पत्रकारिता के बारे में गांधी जी के ज्ञान पर विचार करें। 

भारत का लोकतंत्र निश्चित रूप से जीवंत है। मीडिया भी ऐसा ही है, जिसे लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में विपक्ष की भूमिका का पूरक होना चाहिए। चौथे स्तम्भ की शक्ति को कभी-कभी विस्मय की दृष्टि से देखा जाता है। बहाव की स्थिति में डर का एक तत्व होना चाहिए हालांकि कभी-कभी प्रैस भी डरी हुई लगती है। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए माध्यम के रूप में मीडिया के बढ़ते दुरुपयोग के बारे में अक्सर बातें सुनने को मिलती हैं।-हरि जयसिंह
    


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News