दीपावली कैसे मनाई जानी चाहिए

punjabkesari.in Monday, Oct 16, 2017 - 03:20 AM (IST)

‘आतिशबाजी’ सनातन धर्म के शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है। यह पश्चिम एशिया से आयातित है क्योंकि गोला-बारूद भी भारत में वहीं से ‘मध्ययुग’ में आया था इसलिए दीपावली पर राजधानी दिल्ली में पटाखों को प्रतिबंधित करके सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ्य, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है। 

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में हर उत्सव व त्यौहार आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वैदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से सम्पन्न होते थे जिससे समाज में नई ऊर्जा का संचार होता है। 

बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इस वर्ष चीन की सीमा पर दबाव बनाने के विरोध में सोशल मीडिया पर चीनी माल के बहिष्कार का खूब प्रचार हुआ है। देखना होगा कि हमारे उपभोक्ताओं पर उसका कितना असर पड़ रहा है? क्या हम वास्तव में खरीदारी करते समय चीनी माल का बहिष्कार करने को तैयार हैं? 

गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा जैसा शहरों पर पड़ा है अन्यथा सब चौपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दिखता है। यह स्थिति बदल रही है जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना है। आज भारतीय जनमानस कई तरह की मानसिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। कुछ तो मोदी जी की नई आर्थिक नीतियों के कारण ऐसा हो रहा है और कुछ सदियों बाद हिन्दू मानसिकता को मिली राजनीतिक सत्ता के कारण हैं। एक तरफ बहुसंख्यक समाज अपनी दबी भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति के लिए बेचैन है तो दूसरी तरफ इससे कुछ लोगों की तीखी प्रतिक्रियाएं भी हैं, पर इतना जरूर है कि यह समय आत्मविश्लेषण और अपनी जीवनशैली पर पुन: विचार करने का है। 

हम अपने बच्चों का ‘हैप्पी बर्थ डे’ केक काटकर मनाएं, जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है या उनका तिलक आरती उतार कर या आशीर्वाद या मंगलाचरण करके करें, यह हमें सोचना होगा। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढिय़ां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करें, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें तो हमें अपने समाज में पुन: पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी।

वे जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों सालों तक बरकरार रखा, चाहे कितने ही तूफान आए। पश्चिमी देशों में जाकर बस गए भारतीय परिवारों से पूछिए, जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है और जिन्होंने वहां रह कर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया, वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित हैं। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन से आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ हैं। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुडऩा, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए। 

पिछले कुछ वर्षों से टैलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आए दिन तीखी झड़पें होती रहती हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है, जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टी.वी. एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गम्भीर और सार्थक बहस करवाएं तो समाज को दिशा मिलेगी। 

हर धर्म को मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि, हम हिन्दू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया। नए माहौल में इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी, जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। इस बार दीपावली पर 5 दिन का अवकाश है, इसलिए सब मिल बैठकर सोचें, कौन थे हम, क्या हो गए और होंगे क्या अभी।       


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