यदि दुख न हो तो सुख का अनुभव कैसे हो

punjabkesari.in Sunday, Apr 28, 2024 - 06:28 AM (IST)

मनुष्य का संसार में आने का जानते हो क्या मकसद है? अधिक से अधिक सुख प्राप्त करना। मनुष्य की दो ही खोजें हैं-सुखों का भोग करना या उस पारब्रह्म को प्राप्त करना। मनुष्य भागता चला जा रहा है सुख प्राप्ति के लिए। दूसरी ओर वैज्ञानिक, दार्शनिक, अध्यात्मवेता, सिद्ध, यति-सती, ऋषि-मुनि, साधु-संन्यासी, तत्ववेता, योगी-वैरागी, भक्त-संत यह सभी इसी खोज में हैं कि प्रभु हमें मिल जाए। परन्तु सब हार-थक कर बैठ गए. सुखों के पीछे भागने वाले भी हार थक कर बैठ गए। फिर भी वह प्रभु अगम्य है, अलख है, अगोचर है, अजन्मा है, सर्वव्यापक है, सर्वज्ञ है, सत्य है, नित्य है, सनातन है, अपार है, आदि अंत से परे हैं। वही कर्म है, वही कर्ता है और वही कर्मों के फलों को देने वाले हैं। मनुष्य उस ब्रह्म से बिछड़ा हुआ जीव है। उसे उस प्रभु की रजा में प्रसन्न रहना चाहिए। सुख-दुख मनुष्यों के कर्म हैं। यह सब सुख-दुख उस प्रभु की देन है। मुझे भी पता नहीं कि उस प्रभु का स्वरूप क्या है। करता और करावन हार वही है। वही सुखदाता है और वही दुखदाता है। परन्तु मनुष्य भ्रम, मोह, अज्ञान और अहंकार में डूबा हुआ न तो सदैव सुख को प्राप्त कर सका और न ही उस पारब्रह्म को पा सका।

मनुष्य भोग-विलासों के चक्करों में यह भी न जान सका कि उसे एक दिन इस संसार से जाना है। कालरूपी चूहा दिन-प्रतिदिन उसके जीवन को कुतर रहा है। जीवन की शाम प्रति क्षण ढल रही है। महल चौबारे, पुत्र-कलत्र, माई-बाप, धन-दौलत साथ नहीं जाएगी, सिकंदर महान खाली हाथ चला गया। कफन में जेब नहीं होती। जो कुछ दृश्यमान है, सब विनष्ट हो जाएगा। ईश्वर रहेगा, ईश्वर की बनाई सृष्टि संतुलन में रहेगी। काश! हम न होंगे, पाठकगण ङ्क्षचतन करो। मृत्यु मनुष्य की परम सखा है। दुख-सुख मनुष्य के संगी-साथी हैं। सुख आदमी को बिखेरता है और दुख समेटता है। दुख में मनुष्य की पहचान हो जाती है। शत्रु-मित्र का दुख में पता  चल जाता है। सुख में जो कहते थे मरांगे नाल तेरे, दुख के दिन आए यारों का पता ही नहीं चला कि किधर गए? दुख में ही तो अंधेरे-उजालों की पहचान होती है। दुख रूपी रात आते ही मनुष्य की परछाईं भी उसका साथ छोड़ देती है।

रहिमन विपदा हूं भली, जो थोड़े दिन होये
हित-अनहित या जगत में जानी पड़त सब कोये।

अपने-पराए की पहचान तो दुख में होगी। स्मरण रखो दुख आदमी के अंतर्मन को शुद्ध और उज्ज्वल बनाता है। सोना आग में तप कर ही चमक पकड़ता है। दुख मनुष्य को साहसी और सुख आलसी बना देता है। आयुर्वैदिक चिकित्सा में एक शब्द आता है ‘विरेचन’ अंग्रेजी में ‘पर्ज’ कहते हैं। विरेचन रोगी को निरोग बनाने की एक प्रक्रिया है। विरेचन प्रक्रिया के बाद रोगी अपने आप में स्वस्थ अनुभव करता है। सुख में व्यक्ति स्वाथी और भोगवादी बन जाता है। श्री गुरु नानक देव का कथन सत्य है कि :

दुख दारू, सुख रोग भैया।

सुख रोग और दुख औषधि है। दुख में आदमी के धैर्य का पता चलता है। जीवन में यदि दुख न हो तो सुख का अनुभव कैसे होगा? इच्छाओं, आशाओं का पूरा न होना दुख है और जीवन में ऐशो-आराम हो तो सुख। सुख-दुख मानसिक अवस्थाएं हैं। हां, मनुष्य का शारीरिक दुख जरूर वेदना पूर्ण होता है। सुख आदमी की भड़कन है और दुख मनुष्य को ईश्वर से जोड़ताहै। दुख में तौबा करता है और सुख में हंसी-विनोद रहता है। दुख से आत्मा शुद्ध होती है। दुख जोड़ता है और सुख बिखेरता है। दुख व्यक्ति को मांजता है। सुख-दुख मनुष्य  के कर्मों का फल है। कर्मों के भोग से कोई भी प्राणी बच नहीं पाता। मुझे बीमारी के इस दौर में रामायण, गीता, बाईबल, कुरान और श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अध्ययन करने का दोबारा मौका मिला। चिंतन हुआ कि संसार रूपी भवसागर को पार करने का आधार केवल नाम रूपी जहाज है। 

संत पुरुषों की संगत प्रभु से मेल करवाती है। शांत पुरुषों की चरणरज माथे पर लगाओ, यमराज का भय जाता रहेगा। मृत्यु अटल है। जो होकर ही रहना है उसे होने दो। सुख-दुख मनुष्य के बंधु और सखा हैं। सुख-दुख दोनों को समान करके जो मनुष्य जानता है वह मूर्त भगवाना। यह दुख ही तो है जो मनुष्य को महान बनाता है। ‘‘त्यजम् न धैयं, विरुधपि काले’’ विपरीत परिस्थितियों में जो डगमगाता नहीं वही भगवान बन जाता है। राम भगवान तब बने? जब उन्होंने चौदह वर्ष जंगलों के कष्ट सहे। मैंने पहले ही निवेदन किया है कि दुख मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। मुसीबत के चौदह वर्ष में राम के साथ केवट, शृंगवेर के राजा घोह, नल-नील, गिद्ध राज सम्पाती और जटायु आश्रम वासी, सिद्ध पुरुष, सुग्रीव, हनुमान, विभीषण, समुद्र, त्रिजटा इत्यादि सब जुड़ते चले गए और राम ने एक विशाल वानर सेना द्वारा रावण कुल का वध कर सीता को मुक्त करवा लिया।

सुग्रीव और विभीषण को अपने-अपने राज्य का राजा बना दिया। राम-सीता और लक्ष्मण जंगलों के दुखों को सहकर ही पूज्य बने। राम दुखों को चीरकर भगवान बन गए। भगवान कृष्ण का तो जन्म ही दुखों में हुआ। उनके माता-पिता जेल में, कृष्ण की 6 बहनों को जन्मते ही मार दिया गया। कृष्ण स्वयं जेल में पैदा हुए। कृष्ण भगवान सारी उम्र राक्षसों से लड़ते रहे। कहीं कालिया नाग को तो कहीं पूतना दाई से लड़ते रहे, संघर्ष करते रहे परन्तु उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा। अन्तत: महाभारत के युद्ध में विजयी बन कर उभरे और भगवान कहलाए।  द्वारिकाधीश कहलाए। पांडवों ने भला, क्या-क्या कष्ट नहीं सहे। इन्हीं कष्टों को लांघ कर वह विजयी हुए।

गौतम बुद्ध यदि राज महलों के सुखों से जुड़े रहते तो उन्हें महात्मा बुद्ध कौन कहता? उन्होंने दुनिया में सत्य जानने के लिए अपनी पत्नी, अपने नव जन्मे बच्चे और राज पाट का त्याग कर अपने जीवन को तप और तपस्या में तपा दिया। अन्न, जल, त्याग, बोद्धि वृक्ष के नीचे घोर कष्टों में पड़ कर ज्ञान प्राप्त कर किया। दुनिया में एक नए बुद्ध धर्म की स्थापना की। कष्टों को झेल कर ही तो वह महात्मा बुद्ध भगवान बुद्ध कहलाए। यदि गौतम राजा ही बने रहते तो उन्हें कौन पूछता? यही क्यों? जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी यदि राज्य का ही सुख भोगते रहते तो उन्हें कौन पहचानता? जिस दिन महावीर जी ने राजपाट त्यागा, तप और तपस्या में अपने शरीर को गला दिया तो महावीर भगवान महावीर और जैन धर्म के संस्थापक कहलाए।

दुख, कष्ट मुसीबतें और विपरीत परिस्थितियों में जो न डगमगाए वही महान है। वही भगवान है। आज विश्व भगवान राम, भगवान कृष्ण, महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जैन को पूजता है। इन सभी महापुरुषों ने दुखों को खड़े माथे स्वीकार किया। पारब्रह्म की रजा के आगे सिर झुका दिया और दुखों ने इन्हें भगवान बना दिया। विश्व का इतिहास दुखों से टकराने वालों से भरा पड़ा है। किंग ब्रूस एंड स्पाइडर की कहानी तो सभी ने पढ़ी होगी? चौदह बार हार कर वह अंत में विजयी हुआ। यह ब्रूस ने किस से सीखा? एक स्पाइडर से। जो बार-बार गिरती, परन्तु बार-बार पुन: चढऩे लगती।

अंत में चढऩे में सफल रही। किंग ब्रूस ने सीख ली और सफल हो गया। सिखों के 10वें गुरू श्री गोबिन्द सिंह जी को उनके अपने सिंह ‘चालीस मुक्ते’ संकट में छोड़ कर चले गए थे। तुलसी दास राम चरित मानस के रचयिता यदि अपनी पत्नी के व्यंग्य बाणों से घायल होकर घर बाहर न छोड़ते तो वह कभी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास न कहलाते। भक्त शिरोमणि मीरा बाई की कोई पूछ न होती यदि वह महलों की रानी बनी रहती। मीरा ने अपने राजरानी पद को ठोकर मार साधु-संतों संग मिल कर प्रभु अनुगमिनी न बनी होती तो लोगों ने उसे कभी भी शिरोमणि मीरा बाई न पुकारा होता।

इसलिए निवेदन है दुखों में कभी ‘हाय-हाय’ न करो, रोओ मत। जो कुछ प्रभु ने दिया है उसे स्वीकार करो। दुख में किसी को दोष न दें और सुख में अहंकार न करे। करन-करावन अपने आपा रात आई है तो दिन भी आएगा। आज दुख है तो कल सुख भी आएगा। समय का पहिया घूमता रहता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, घबराओ मत, आपको अपने दुखों की ङ्क्षचता है। वह प्रभु सबकी ङ्क्षचता करता है। हम लोग क्या थे जो रोते रहें? हमारा गुम क्या हुआ है जिसे खोजते फिरें? कर्म करना है, करते रहो। सबका भला मांगो। तेरा भी भला होगा। मलंग बने रहो। अंदर झांको, तुम्हारा शरीर एक मंदिर है। इसे साफ-सुथरा रखो। प्रभु भला करेगा। -मा. मोहन लाल (पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)


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