नफरत की बढ़ती आबोहवा

punjabkesari.in Wednesday, Oct 05, 2022 - 05:54 AM (IST)

एक तरफ आजादी का अमृत काल चल रहा है, तो दूसरी तरफ देश में बढ़ती नफरत की दीवार है। नेता-मंत्री से लेकर हर कोई अभद्रता पर आमादा है। ऐसे में विश्व शांति और बंधुत्व की बात करने वाला देश किस दिशा में जा रहा है? इसका आंकलन सहज ही कोई व्यक्ति कर सकता है। अभद्र भाषा के उपयोग ने समाज के ताने-बाने को जहरीला बना दिया है और अब इसी मुद्दे को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा करते हुए केंद्र सरकार की मंशा पर भी सवाल खड़ा किया है। वैसे अभद्र भाषा के बढ़ते उपयोग के लिए कोई एक पार्टी या नेता और टी.वी. चैनल जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसके पीछे लगभग सभी का हाथ है। 

समाज में बढ़ते भाषाई शुचिता के गिरते स्तर को देखते हुए जस्टिस जोसेफ ने कहा है कि हमारा देश किस दिशा में जा रहा है? अभद्र भाषा से समाज के ताने-बाने को जहरीला बनाया जा रहा है और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने अभद्र भाषा के बढ़ते उपयोग पर नाराजगी जताई और कहा कि सरकार आखिऱ इस मुद्दे पर चुपचाप खड़ी क्यों है? ऐसे में अब सवाल कई खड़े होते हैं, लेकिन सरकार अपने द्वारा प्रचारित किए जा रहे अमृतकाल से ही संतुष्ट नजर आती है या अब अभद्र भाषा के उपयोग के खिलाफ कोई सख्त कदम उठाती है। यह भी एक सवाल है। 

फिलहाल बीते कुछ समय से टी.वी. चैनलों और देश की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में जिस लिहाज से भाषाई गरिमा धरातल पर औंधे मुंह गिरी है। उसके बाद सरकार को व्यापक कदम उठाने की जहमत करनी चाहिए, क्योंकि एक सभ्य और शांति में विश्वास करने वाले लोकतांत्रिक राष्ट्र में अगर भाषा का स्तर निम्नतर होता चला गया। फिर न सिर्फ देश की विविधता इससे प्रभावित होगी, अपितु राष्ट्रीय एकता और अखंडता भी बाधित हो सकती है। 

हेट स्पीच यानी अभद्र भाषा के जहर से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पीड़ित काफी लंबे समय से है, लेकिन विगत कुछ वर्षों में यह वायरस की भांति तेजी से फैलता जा रहा है। जिसमें आहुति देने का काम इलैक्ट्रॉनिक मीडिया कर रही है। टी.वी. चैनलों में आजकल धर्मयुद्ध छिड़ा हुआ है। 

जनसरोकार के विषयों से हटकर मीडिया चैनल धर्म रूपी अफीम बांट रहे हैं। जिससे न सिर्फ समाज का सौहार्द बिगड़ रहा है, बल्कि मीडिया की प्रासंगिकता पर भी सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि आपत्तिजनक और अशोभनीय भाषण देने का मामला इतना गंभीर हो गया है कि अनुच्छेद-19(1) में प्राप्त स्वतंत्रता और अनुच्छेद-19(2) में व्याप्त प्रतिबन्धों की लकीर आपस में मिटती-सी दिख रही है, लेकिन व्यवस्था मौन है या तो उसका मौन समर्थन रहनुमाओं और मीडिया चैनलों को प्राप्त है। जो एक स्वस्थ समाज और संवैधानिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है। 

भारतीय दंड संहिता और जन प्रतिनिधित्व कानून में वैमनस्य और कटुता फैलाने वाले नफरती भाषणों से संबंधित अपराध के लिए कानूनी प्रावधान भी है लेकिन अक्सर यह देखने में आता है कि लोग अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में भाषा की शालीनता और गरिमा को क्षीण करते हैं और इसमें विशेष योगदान टी.वी. चैनलों की डिबेट और नेताओं के बोल हैं। नि:संदेह वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए टी.वी. डिबेट को सिर्फ वैमनस्यता फैलाने का एक निमित्त मात्र समझा जा सकता है और ऐसा लगता है जैसे रहनुमाई व्यवस्था से लेकर सभी लोग एक ही कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं और वह है कि, ‘हंसा थे सो उड़ गए, कागा भये दीवान।’ 

उच्चतम न्यायालय ने 12 मार्च 2014 को प्रवासी भलाई संगठन वर्सेज यू.ओ.आई एंड ओ.आर.एस. (Pravasi Bhalai Sangathan vs U.O.I. & Ors) मामले में कहा था कि ‘हेट स्पीच’ के मुद्दे पर विधि आयोग द्वारा गहराई से विचार की आवश्यकता है और विधि आयोग ने अपनी अनुशंसा भी दी, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हेट स्पीच का नासूर देशभर में फैलता जा रहा है और इसको लेकर अब एक बार पुन: सर्वोच्च न्यायालय को कठोर टिप्पणी करनी पड़ी है। 

हेट स्पीच के बढ़ते चलन की वजह से समाज में वैमनस्यता की जड़ मजबूत हो रही है। एक धर्म से जुड़े लोग दूसरे धर्म के लोगों से बैर की भावना रखने लगे हैं और स्थिति इस कदर बिगड़ती जा रही है कि इसी नफरती बोल की वजह से धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है और लोग एक-दूसरे की जान के भक्षक बनने में भी परहेज नहीं कर रहे हैं। 

टी.वी. चैनलों को बहस के नाम पर धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देना है और यही काम आजकल हमारे सियासतदान भी कर रहे हैं। एक डिबेट को आयोजित करके अपना हित साध रहा है तो दूसरा जनता के बीच जाकर बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है और इन दोनों के षड्यंत्र में फंसकर आम जनता आपसी सौहार्द और शांति को खो देती है। ऐसे में कुल-मिलाकर टी.वी.डिबेट से लेकर नेताओं के अराजक बोल समाज के लिए काफी घातक सिद्ध हो रहे हैं और इन पर लगाम कसे जाने की तुरन्त आवश्यकता महसूस की जा रही है। कोई भी राष्ट्र सिर्फ भूमि का टुकड़ा मात्र नहीं हो सकता। उसकी पहचान वहां के नागरिकों से है। ऐसे में नागरिकों के बीच ही सद्भाव और सौहार्द की भावना लेशमात्र नहीं बचेगी। फिर भूमि के टुकड़े का उद्देश्य क्या रह जाएगा? -महेश तिवारी
 


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