‘सरकार लोगों की टिप्पणियों से पहले उन्हें सैंसर करती है’

punjabkesari.in Monday, Feb 08, 2021 - 03:09 AM (IST)

‘द इकोनॉमिस्ट’ एक पत्रिका है हालांकि यह एक समाचार पत्र के रूप में खुद को संदॢभत करती है। यह 175 वर्ष से अधिक पुरानी है और एक सप्ताह में इसकी करीब 10 लाख प्रतियां बिकती हैं। इसके पाठक ज्यादातर पेशेवर, उच्च शिक्षित और उच्च आय वाले हैं। यह दुनिया की बहुत कम पत्रिकाओं में से एक है और संभवत: इसका आकार एकमात्र ऐसा है जो विज्ञापन की तुलना में सदस्यता से ज्यादा धन कमाती है। इसका मतलब यह है कि इसके पाठक इसकी सामग्री के लिए इसे खरीदते है। अमरीका में एक वर्ष की सदस्यता की लागत 15 हजार रुपए बैठती है, जिसका अर्थ है कि इसका प्रत्येक अंक 300 रुपए का है। 

पत्रिका आमतौर पर रुढि़वादी पाॢटयों के मुक्त बाजार की नीतियों को बढ़ावा देती है। इकोनॉमिस्ट इंटैलीजैंस यूनिट (ई.आई.यू.) पत्रिका का अनुसंधान और विश्लेषण प्रभाग है। प्रत्येक वर्ष यह एक लोकतंत्र सूचकांक का संकलन करता है जो दुनियाभर में लोकतंत्र की स्थिति को दर्शाता है। इस माह इसने 2020 के लिए अपने नतीजे दिए हैं। यह भारत के बारे में क्या कहते हैं यह देखना शिक्षाप्रद होगा। हम 2015 में 27 की वैश्विक रैंकिंग से 53 की रैंकिंग पर गिर गए हैं। इकोनॉमिस्ट अनुसंधान यूनिट का मुख्य रूप से कहना है कि चूंकि लोकतांत्रिक मापदंड 2015 से दबाव में रहे हैं जिसके नतीजे में भारत की वैश्विक रैंकिंग 27वें स्थान से फिसल कर 53वें स्थान पर आ गई है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लोकतांत्रिक रुख से पीछे हटना इसका कारण है। यू.पी.ए. के अंतिम दिनों जनवरी 2014 में ई.आई.यू. ने भारत को अपनी 7.92 की ऊंची रेटिंग दी। 2015 में 7.74 और उसके बाद 2017 में 7.23, 2019 में 6.9 और 2020 में यह रेटिंग 6.61 हो गई। यह त्रुटिपूर्ण लोकतंत्रों का वर्णन करता है क्योंकि ऐसे देश जिनके पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव है भले ही वहां पर समस्याएं हों। बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाता है। 

हालांकि लोकतंत्र के अन्य पहलुओं में महत्वपूर्ण कमजोरियां हैं जिनमें शासन में समस्याएं, अविकसित राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक भागीदारी के निम्न स्तर शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में मोदी के नेतृत्व में धर्म का बढ़ता प्रभाव देखा गया है जिनकी नीतियों ने मुस्लिम विरोधी भावना और धार्मिक संघर्ष को बढ़ावा दिया है और इसने देश के राजनीतिक तानेबाने को नुक्सान पहुंचाया है। याद रखें कि यह वह पत्रिका है जिसे दुनिया के शीर्ष कार्पोरेट अधिकारी और निर्णय निर्माता पढ़ते हैं जबकि हमारी सरकार ने दृढ़ता से रेहाना और ग्रेटा थनबर्ग को जवाब दिया है। 

विदेश मंत्रालय ने एक बयान में लिखा है मगर उसने भारत की गिरावट के बारे में कुछ नहीं कहा जिसके बारे में अधिक लोग पढ़ेंगे और किसी के ट्वीट की तुलना में इसे गम्भीरता से लेंगे। ई.आई.यू. का कहना है कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 के दिसम्बर 2019 में लागू होने से 2020 में दंगे भड़क गए। राजधानी दिल्ली में पिछले साल फरवरी में भिड़ंत के बाद अनेकों लोग मारे गए। अधिनियम वैचारिकता के लिए एक धार्मिक तत्व का परिचय देता है। कई आलोचक भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष आधार को कम आंकते हैं। पत्रिका ने मोदी की लोकप्रियता से इंकार नहीं किया है लेकिन उसका कहना है कि यह उन्हीं पहलुओं से आती है जो इससे संबंधित है। यह पत्रिका टिप्पणी करती है कि मोदी ने विध्वंस बाबरी मस्जिद के स्थल पर भूमि पूजन समारोह में भाग लिया। ध्यान दें कि मंदिर निर्माण मोदी को उनके हिन्दू राष्ट्रवादी आधार को आगे बढ़ाएगा। 

दुर्भाग्य से हमारे लिए यह कोई लोकप्रिय प्रतियोगिता नहीं है। ई.आई.यू. का कहना है कि ‘‘इन मुद्दों के शीर्ष पर प्रशासन द्वारा कोरोना वायरस महामारी से निपटना 2020 में नागरिक स्वतंत्रता के क्षरण का एक और कारण बना है।’’ जो लोग यह सोचते हैं कि भारतीय लोकतंत्र ठीक है तथा यहां पर पिछले कुछ वर्षों के दौरान कोई बदलाव नहीं हुआ शायद यह देखना शिक्षाप्रद होगा कि कुछ मुद्दों पर क्या हुआ है? पहला है चुनावी बांड की शुरूआत। यह एक ऐसा तंत्र है जिसके तहत कार्पोरेट और यहां तक कि विदेशी संस्थाएं भी राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से दान दे सकती हैं। पाठकों को शायद पता नहीं होगा कि 2 साल पहले योजना शुरू होने से पहले दान किए गए बांड के कुल मूल्य का 90 प्रतिशत से अधिक 1 करोड़ रुपए मूल्य वर्ग में खरीदे जाते हैं। मतलब यह पाॢटयों को गुप-चुप तरीके से पैसा देने वाला आम आदमी नहीं है। 

दूसरा यह कि मोदी सरकार ने अपने आयुक्तों को उनके कार्यकाल और उनके वेतन के लिए सरकार पर निर्भर बनाने के लिए आर.टी.आई. कानून में बदलाव किए हैं। तीसरा यह कि मनी बिल विधेयकों के टुकड़ों को अवैध रूप से राज्यसभा को दरकिनार कर बार-बार संविधान का उल्लंघन किया गया है। कृषि कानूनों के पारित होने के दौरान मनी बिल नहीं होने के बावजूद राज्यसभा को वोट देने की अनुमति नहीं दी गई। ‘द इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका ने इस सप्ताह अपने संस्करण में भारत पर एक कहानी बताई है जिसका शीर्षक है ‘‘भारत की सरकार लोगों की टिप्पणियों से पहले उन्हें सैंसर कर रही है।’’ यदि पश्चिम के सैलिब्रिटियों के ट्वीट्स से सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर, विराट कोहली, अजय देवगन तथा अक्षय कुमार जैसे लोग क्रोधित हुए हैं तो आपको विचार करना चाहिए कि उनकी सम्मानजनक आवाजें क्या कहती हैं?-आकार पटेल


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