‘अलविदा चुनावी राजनीति-उत्सव मना रहा हूं’-4

punjabkesari.in Sunday, Apr 07, 2019 - 03:22 AM (IST)

चुनाव गतांक से आगे 
चुनाव की राजनीति छोड़ते हुए मुझे किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हो रही। पकडऩे और छोडऩे मेें मेरे लिए कोई अंतर नहीं है क्योंकि मैं कत्र्ताभाव से दूर रहता हूं। 1980 में जब दल बदल के कारण मैंने त्यागपत्र दिया था तो इसी प्रकार से मैं प्रसन्न था। राज्यपाल महोदय को त्यागपत्र देकर लौटा। बहुत से मित्र और पत्रकार इकट्ठे हो गए थे। उन्होंने पूछा त्यागपत्र दे दिया अब क्या करोगे। मैंने उत्तर दिया था कि मैं अब सिनेमा देखने जा रहा हूं। सब हैरान थे। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने कहा था यह देखो टिकट, पहले ही मंगवा लिए हैं, कुछ अतिरिक्त भी मंगवाए हैं। आप में से कोई चाहे मेेरे साथ चल सकता है। 

मैं सीधा रिज पर सिनेमा में गया था। मैंने आनंद से सिनेमा देखा। सब जगह शोर मच गया क्योंकि इतनी जल्दी किसी को त्यागपत्र की आशा नहीं थी। मैंने तय कर लिया था कि ज्यों ही मैंं अल्पमत में हो जाऊंगा तो एक दम सत्ता छोड़ दूंगा। दिल्ली में इंदिरा गांधी के आने के कारण बहुत से प्रदेशों में हलचल मची थी। जनता पार्टी के एक-एक करके विधायक दल बदल रहे थे। 

मेरे मित्र और पार्टी के कार्यकत्र्ता श्री कृष्ण कुमार सिनेमा हाल में आकर मुझसे मिले और रोते हुए कहने लगे-हमने कहा था त्यागपत्र न दो। कुछ लोग विधायकों को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं। आप ने बिना बताए यह सब क्यों कर दिया। मैंने उनकी आंखों में देखकर कहा। ‘‘मैं जिंदा मांस का व्यापारी नहीं हूं। विधायकों की मंडी में खरीदने के लिए न कभी गया न कभी जाऊंगा। मैं शान से कुर्सी पर बैठा था। शान से शानदार काम किया और अब शान के साथ त्यागपत्र देकर सिनेमा देखने आ गया।’’ मैंने उन्हें साथ बिठा लिया परंतु उनके आंसू न रुके। 

अडवानी जी का फोन
अखबारों में खबर छप गई, दूसरे दिन प्रात:काल श्री अडवानी जी का फोन आया-बहुत आनंद आया। मजा आ गया। शायद ऐसा त्यागपत्र कभी किसी ने न दिया है। पिक्चर कौन सी देखी- उन्होंने हंसते हुए कहा। मैंने उत्तर दिया ‘जुगनूं’ पिक्चर देखी, बहुत बढिय़ा है। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ते हुए मैंने आनंद लिया था तो आज चुनाव की राजनीति छोड़ते हुए मुझे किसी प्रकार की कोई परेशानी का प्रश्र ही पैदा नहीं होता। आज चुनावी राजनीति छोड़ रहा हूं। हो सकता है कुछ दिनों के बाद पूरी राजनीति छोड़ दूं। वैसे तो एक दिन यह दुनिया भी छोडऩी है। राजनीति में कई बार अकेलापन लगता है। सभी पुराने साथी एक-एक करके चले गए। 

श्री दौलत राम चौहान, श्री किशोरी लाल और श्री जगदेव चंद उस युग के लगभग सब लोग जा चुके हैं। कुल्लू के श्री कुंज लाल इस दृष्टि से मेरे अंतिम साथी थे। 1951 में मैंने उनके साथ संघ शिक्षा वर्ग में भाग लिया था। बहुत पुरानी मित्रता का संबंध था उनसे। वह विधायक बने फिर मेरे साथ मंत्री रहे। मैं जब भी कुल्लू जाता था हम दोनों बैठ कर पुरानी यादों को ताजा करते थे। पिछले वर्ष वह भी स्वर्ग सिधार गए। 1953 के गुरदासपुर और हिसार जेल के सभी साथी चले गए। 1975 के नाहन जेल में मेरे साथियों में से अब शायद श्री राधा रमण शास्त्री ही हैं।

मेरा सौभाग्य है कि राजनीति से हटकर उससे भी अधिक बड़ा और रचनात्मक काम विवेकानंद ट्रस्ट के रूप में मेरे पास है। आज से लगभग 15 वर्ष पहले सेवा का यह कार्य प्रारम्भ किया। दो बड़े संस्थानों विवेकानंद मैडीकल इंस्टीच्यूट और कायाकल्प के माध्यम से यहां चल रहा है। जन सहयोग से लगभग 50 करोड़ रुपए का निवेश हो चुका है। कायाकल्प योग और प्राकृतिक चिकित्सा का पूरे भारत में एक प्रसिद्ध केन्द्र बना है। विदेशों तक के लोग आने लगे हैं। एक नई परियोजना विश्रान्ति (सीनियर सिटीजन होम) प्रारम्भ कर दी है। 11 करोड़ रुपए की इस परियोजना में एक निगम ने 8 करोड़ रुपए की सहायता कर दी है। तीन करोड़ रुपए ट्रस्ट लगाएगा। मैं अब और अधिक जन सहयोग प्राप्त करके विश्रान्ति को एक बड़ी सेवा संस्था के रूप में खड़ा करूंगा। 

जब मैं कल्पना लोक में पहुंच गया
कल प्रात:काल योग कर रहा था। सामने धौलाधार की बर्फ से ढकी एक सुंदर पर्वत माला पर सूर्य की पहली किरण चमकी। आनंदित हो गया। योग छोड़ कर ख्यालों में खो गया। किसी कल्पना लोक में पहुंच कर सोचने लगा शायद मुझे भगवान कभी मिलेंगे नहीं पर यदि कभी मिल जाएं तो मैं उनके चरण पकड़ कर कहूंगा- मुझे आपने बहुत कुछ दिया प्रभु, परंतु एक मीठा शिकवा करना चाहता हंू। दो बार प्रदेश की सेवा का मौका, वह भी बहुत छोटी अवधि। परंतु आप की कृपा से बहुत बड़ी उपलब्धि कर पाया। क्या आप मुझे पांच या दस वर्ष नहीं दे सकते हैं। आपने किस-किस को कहां-कहां कितना समय बिठाया। क्षमा करना, प्रभु छोडि़ए मुझे सब स्वीकार है। 

प्रभु ने मेरे सिर पर हाथ रखा। बेटा तुम्हारा गिला ठीक लगता है। मैं मंदिरों और ईंट-पत्थरों के धार्मिक स्थानों पर लगभग नहीं  होता हूं। कभी-कभी वहां  सच्चे भक्त आएं तभी जाता हूं। परंतु धरती के प्रत्येक नर में नारायण के रूप में हमेशा रहता हूं। तुमने वहीं  पर मुझे देखा और छोटी सी अवधि में नर सेवा ही नारायण सेवा का व्रत निभाया। वैसे तो तुम्हें फिर से धरती पर भेजने की आवश्यकता नहीं परंतु सोच रहा हूं एक बार फिर भेज दूं। एकदम चौंक कर मैंने अपनी नजर हटाई। कल्पना लोक से वापस लौटा। मेरी सजल आंखें देखकर संतोष ने पूछा, उसे बताया उसकी आंखें भी सजल हो गईं। 

अपने लेखन, राजनीति और लम्बे सफर की सफलता के लिए मैं पंजाब केसरी परिवार को भी धन्यवाद देना चाहूंगा। मेरी बहुत सी पुस्तकों को धाराप्रवाह छापा। मेरे विचारों को जनता तक पहुंचाया। उनके कारण मेरा एक अलग पाठक परिवार बन गया है। मुझे पढ़कर हिमाचल से दिल्ली तक बहुत से पाठकों के फोन आते हैं। यदि कुछ न छपे तो पाठक गिला-शिकवा करते हैं। इतना ही नहीं एमरजैंसी के 19 महीने की जेल के बाद जब घर पहुंचा तो आजीविका का कोई सहारा न था। एक प्रिंटिंग प्रैस लगवाया था, जो बिक चुका था। वकालत पहले छोड़ दी थी। जेल में 4 पुस्तकें लिखी थीं। 

कुछ मित्रों से सलाह करके अपनी पुस्तकें छपा कर एक प्रकाशन शुरू करने की खब्त चढ़ी। पहली पुस्तक छप कर आई और बिना प्रकाशक के नाम से प्रकाशन शुरू किया। पुस्तक का विमोचन करने के लिए एमरजैंसी में साहस से खड़े रहने वाले हिंद समाचार/पंजाब केसरी पत्र समूह के मुख्य सम्पादक श्री विजय चोपड़ा जी को निमंत्रण दिया। वह पालमपुर आए। मुझे आशीर्वाद दिया। श्री विजय चोपड़ा जी के साथ मेरा वह संबंध उसी प्यार से चल रहा है। मेरे लम्बे सफर की सफलता के लिए मैं पंजाब केसरी परिवार का बहुत आभारी हूं। 

मैं जानता हूं कि मैं पहाड़ के उस तरफ उतराई पर हूं। मेरी पीढ़ी के लोगों को अब जाना ही जाना है। मुझे प्रसन्नता है कि जब भी जाऊंगा हंसता-गाता और मुस्कुराता हुआ जाऊंगा। डरने का तो प्रश्र पैदा ही नहीं होता। स्कूल जाने से वही बच्चा डरता है जिसने पूरा होमवर्क न किया हो। अपने प्रभु के पास जाने के लिए मैंने पूरी ईमानदारी से पूरा होमवर्क किया है। जाते-जाते अटल जी की कविता की इन पंक्तियों को गुनगुनाता हुआ जाऊंगा। जी भर जिया, मन से मरूं लौट के आऊंगा, कूच से क्यों डरूं-शांता कुमार


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