कई सवालों को जन्म दे रही ‘मोदी की चुप्पी’

punjabkesari.in Sunday, Jul 31, 2016 - 02:05 AM (IST)

(करण थापर): मैं नहीं जानता कि मैंने यह बात कितनी बार सुनी है क्योंकि सच्चाई यह है कि अब इसकी गिनती करना बेमानी हो गया है। अंदाजा लगाना जोखिम भरा काम है, फिर भी कहूंगा कि सप्ताह में औसतन एक बार ऐसा होता रहा है। इसलिए आज मैं इस अति महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित होना चाहता हूं : क्या यह सही प्रतिक्रिया है या एक कठिन परिस्थिति में से संघर्षपूर्ण ढंग से बाहर निकलने एवं व्यापक जिम्मेदारियों को गच्चा देने का प्रयास? 

 
मेरी उपरोक्त बातें इस कथन की ओर इशारा हैं : ‘‘प्रधानमंत्री को हर बात पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं।’’ यही बात कुछ अन्य ढंगों से यूं कही गई है: ‘‘मिस्टर मोदी को बोलने की जरूरत नहीं, उनके मंत्री बोल चुके हैं’’ एवं ‘‘प्रत्येक मुद्दे पर प्रधानमंत्री के बोलने की जरूरत नहीं होती।’’ राष्ट्रीय चिन्ता का मुद्दा बन चुकी एक समस्या पर पत्रकारों ने जब सवाल पूछे कि प्रधानमंत्री मौन क्यों हैं तो उन्हें उपरोक्त उत्तर सुनने पड़े थे। 
 
जब मोहम्मद अखलाक को भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया या घर वापसी एवं लव जेहाद के अभियान जारी थे अथवा जब लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाए जा रहे थे तो यही स्थिति बनी हुई थी। अब जब बेचैनी के कारण कश्मीर लकवाग्रस्त हो गया है और दलितों पर उन कथित गौरक्षकों द्वारा हमले किए जा रहे हैं, जिन्हें वैचारिक स्तर पर मोदी की पार्टी के नजदीक समझा जाता है-तो फिर से पहले वाली स्थिति पैदा हो गई है। 
 
क्या ऐसी स्थितियों को हैंडल करने का सही तरीका प्रधानमंत्री की चुप्पी ही है? इस चुप्पी की नीति को मैं तब सही मानने को तैयार हूं जब प्रधानमंत्री की बातों से कोई आहत हो सकता है, कोई विचलित हो सकता है या स्थिति भड़क सकती है। लेकिन मैं एक क्षण भी यह मानने को तैयार नहीं कि वर्तमान में ऐसा कोई मामला दरपेश है। 
 
उलटा मोदी की चुप्पी सवालों को जन्म दे रही है, आशंकाएं पैदा कर रही है और साजिश के सिद्धांतों को हवा दे रही है। लोग हैरान हैं कि क्या मोदी की चुप्पी सोची-समझी है : यानी क्या वह गौरक्षकों को समर्थन दे रहे हैं? क्या वह दलितों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते? क्या वह कश्मीर घाटी में स्थिति की गंभीरता को समझते हैं?
 
पता नहीं किस तरह भूले-भटके एक-आध मुद्दे पर मिस्टर मोदी ने जुबान खोली थी। ऐसा उन्होंने तब किया था, जब ईसाइयों को विश्वास दिलाना था या फिर साध्वी निरंजन ज्योति की बेवकूफी भरी टिप्पणियों से खुद को दूर करना था। अधिकतर लोगों का मानना है कि मोदी ने ऐसा मजबूरीवश किया था। उनकी प्रतिक्रिया न तो स्वत: सिद्ध थी और न ही ईमानदारी भरी। बल्कि यह टिप्पणी उनके मुंह से दबाव में ही निकली थी। इसका तात्पर्य यह है कि मोदी यह कहकर अपनी पीठ नहीं थपथपा सकते कि उन्होंने कोई सैद्धांतिक पोजीशन ली थी। इससे भी बदतर बात तो यह है कि सवाल उठ रहे हैं एवं साजिश के सिद्धांतों की अफवाहें हवा में तैर रही हैं। 
 
कभी-कभार मैं सोचता हूं कि क्या मि. मोदी प्रधानमंत्री की संपूर्ण भूमिका को भली-भांति समझ पाए हैं? मैं इस पद की शक्ति को नहीं, बल्कि इसकी प्रभावशीलता का उल्लेख कर रहा हूं। हम उनसे केवल राजनीतिक नेतृत्व की ही अपेक्षा नहीं करते। हम उनसे नैतिक नेतृत्व और यहां तक कि देश की व्यथा की स्थिति में भावनात्मक नेतृत्व भी चाहते हैं। 
 
जब देश विचलित हो तो हम प्रधानमंत्री की ओर देखते हैं कि वे हम सभी को एकजुट करने के लिए कौन-सी पोजीशन देने का आह्वान करते हैं। हम उन्हें किसी महॢष या पैगम्बर के रूप में नहीं देखते, बल्कि हम तो यह चाहते हैं कि जिस पदवी पर वे हैं, वहां हमें कार्रवाई करने का सही मार्ग सुझाना उनका कत्र्तव्य बनता है, खास तौर पर तब, जब गलत विकल्प अधिक विश्वसनीयता एवं तवज्जो हासिल कर रहे हों।
 
ब्रिटेन में इस समस्या का निदान संस्थागत रूप में करने के लिए ‘प्राइम मिनिस्ट’र्ज क्वैश्चन टाइम’ की परम्परा मौजूद है। हर बुधवार आधे घंटे के लिए संसद के सदस्य प्रधानमंत्री को किसी भी मुद्दे पर सवाल कर सकते हैं। इसकी शुरूआत विपक्ष के नेता द्वारा 6 लगातार सवाल पूछे जाने के साथ होती है और उसके बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता द्वारा दो सवाल पूछे जाते हैं और फिर हाऊस ऑफ कॉमन्स के प्रत्येक सदस्य को सवाल पूछने की छूट होती है।
 
ब्रिटेन में न केवल राष्ट्रीय चिन्ता के मुद्दों पर सवाल पूछे जाते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री खुद भी अपने विचारों से अवगत करवाने के लिए समय की मांग करते हैं। इसी प्रक्रिया में प्रधानमंत्री के नेतृत्व की क्षमता देखी जाती है और इसे स्वीकार किया जाता है। 
 
मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि हम भी लोकसभा में कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था करें। चिन्ता के विषयों पर सरकार की प्रतिक्रिया को सामने लाने का यह एक तरीका हो सकता है। इसी ढंग से जवाबदारी भी सुनिश्चित हो सकती है और यह हमारे लोकतंत्र की खूबियों को प्रदर्शित करने का सबसे बढिय़ा ढंग हो सकता है।   
 

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