‘डर’ जो जीने भी न दे और मरने भी न दे

punjabkesari.in Saturday, Mar 07, 2020 - 03:15 AM (IST)

सामान्य जीवन में व्यक्ति हर वक्त किसी न किसी अनहोनी, आशंका और जो कुछ उसके पास है उसके खो जाने से डरता रहता है जबकि यह सब उसकी अपनी काल्पनिक सोच होती है। ज्यादातर मामलों में उसके डर का कोई कारण नहीं होता लेकिन उसका स्वभाव हर बात से डरने का हो जाता है। इसी डर के कारण व्यक्ति न सच कहने का साहस कर पाता है और न ही किसी अन्य से सच सुनने को तैयार होता है, बस अपने ही बनाए जाल में उलझकर रह जाता है। बचपन से लेकर युवा होने तक यदि परिवार में भय व्याप्त रहता है तो बड़े  होकर व्यक्ति सच से दूर होकर हरेक बात के लिए झूठे बहाने बनाने लगता है। अगर कहीं बड़े होकर ऐसा व्यक्ति राजनीति के पेशे में आ गया और सत्ता पक्ष या विपक्ष का नेता हो गया तब उसके लिए सच बोलना असंभव या बहुत साहस या दुस्साहस का काम होता है। 

नागरिकता का सच और झूठ
एक ही उदाहरण से बात समझ में आ जाएगी कि नेता चाहे किसी भी पक्ष के हों, सच से दूर ही रहने में अपना भला समझते हैं। यह जो नागरिकता कानून है उसे लेकर बराबर सरकार कह रही है कि किसी की नागरिकता नहीं छिनेगी बल्कि दी जाएगी। इसका विरोध नहीं होना चाहिए लेकिन हो रहा है, इसका मतलब यह है कि दोनों ओर  से सच न बोलकर बहुत कुछ छिपाया जा रहा है। अब जरा तथ्यों पर आते हैं। देश के बंटवारे के बाद जिस आबादी  की अदल-बदल हुई, उनमें से अनेकों के भाई-बहन, रिश्तेदार दोनों देशों में रह गए और उनमें धीरे-धीरे बातचीत, आना-जाना और रिश्तेदारी पनपती रही। अनेकों गैर-मुस्लिम धर्मों के लोग अपनी मर्जी से या धार्मिक आधार पर प्रताडि़त होकर या किसी अन्य कारण जैसे कि व्यापार, रोजगार या कारोबार के लिए बिना वैध कागजात के भारत आ गए और बस गए। इसी तरह मुस्लिम धर्म के लोग भी यहां आ गए और बिना कागजात के रहने लगे। अब होता यह है कि सरकार कानून में संशोधन करती है कि गैर-मुस्लिम धर्मों के लोगों को  नागरिकता दे दी जाएगी जिसका अर्थ यह कि जो मुस्लिम यहां बिना वैध कागजात के रह रहे हैं, उन्हें वापस जाना होगा। 

इस सच्चाई को सरकार और इस कानून का विरोध करने वाले दोनों ही समझते हैं लेकिन इसे कहने का साहस किसी में नहीं है। मिसाल के तौर पर जब ममता दीदी कहती हैं कि बंगलादेश से आकर यहां बसे किसी भी मुसलमान को डरने की जरूरत नहीं है तो भाजपा वाले उन्हें घुसपैठिए मानकर यहां का नागरिक न बनाने पर अड़े हुए हैं। इसी तरह शाहीन बाग हो या देश में कहीं और, इस कानून का जहां भी विरोध हो रहा है, वहां मुस्लिम समुदाय की ङ्क्षचता का कारण यही है कि जो लोग बिना कागजात यहां वर्षों से रह रहे हैं और भारतीय मुसलमानों के परिवारों का हिस्सा भी बन गए हैं, उनका बोरिया-बिस्तर इस कानून से बंधना निश्चित है जो उन्हें मंजूर नहीं है। यह सच कहने या सुनने का साहस सरकार और विपक्ष में न होने के कारण असामाजिक तत्वों की पौ बारह हो गई जिसका नतीजा दिल्ली और दूसरी जगहों पर ङ्क्षहसक दंगों के रूप में निकला। 

शायद दंगों, आगजनी, हत्या और साम्प्रदायिक मनमुटाव से बचा जा सकता था और अभी भी वक्त है कि भविष्य में ऐसी किसी घटना को दोहराने से रोका जा सके, अगर सरकार यह सच कह दे कि इस कानून से उन गैर-मुस्लिमों को नागरिकता इसलिए दी जा रही है क्योंकि वे कहीं और नहीं जा सकते और इस प्रक्रिया में उन्हें सत्तारूढ़ दल अपना वोट बैंक भी  बनाना चाहता है। अगर सरकार यह भी कह दे कि उन मुस्लिमों को भी नागरिकता दी जा सकती है जिनका वापस जाना मुमकिन नहीं है तो न केवल बात बन जाएगी बल्कि वे भी उसका वोट बैंक बन सकते हैं। होना यह चाहिए कि जो असली घुसपैठिए, आतंकवादी और देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं उनकी पहचान करने की कार्रवाई शुरू कर गिरफ्तारी व सजा दी जाए और कहा जाए कि इसका आधार कोई धर्म विशेष नहीं होगा बल्कि ऐसे लोग किसी भी धर्म के हों, उन्हें बख्शा नहीं जाएगा। 

वोट बैंक की राजनीति
इसी तरह विरोध करने वाले दल यह सच कह दें कि उन्होंने इन मुस्लिम देशों से आए लोगों को अपना वोट बैंक बना लिया है और उन्हें आधार, वोटिंग, राशन कार्ड दे दिया है, इसलिए वे इस कानून का विरोध कर रहे हैं क्योंकि इसके लागू होने से इन सब मुस्लिमों जिन्हें रोङ्क्षहग्या या कुछ और कहा जाता है, को वापस अपने देशों में जाना होगा जिससे उन दलों का वोट बैंक बिखर जाएगा। जो लोग जनगणना तक के लिए कागज न दिखाने की बात कह रहे हैं, वह इसलिए है कि उनके पास जरूरी कागज हैं ही नहीं तो दिखाएंगे क्या, उनका भारत में रहना संभव नहीं है। 

जो नेता उन मुस्लिमों से भी कागज न दिखाने की बात कह रहे हैं, जिनके पास सभी वैध कागजात हैं, सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। जो मुस्लिम उनकी चाल समझ रहे हैं, वे उनका साथ नहीं दे रहे, इसलिए ये लोग महिलाओं और बच्चों को आगे रखकर अपनी कुटिल चाल चल रहे हैं। सामान्य जनता इस गहराई तक सोच नहीं पाती इसलिए वह इनके बहकावे में आकर धरना, आंदोलन और हिंसा तक कर रही है। हो सकता है कि अगर यह सत्य उन्हें समझाया जाए और वे अपनी बेबुनियाद जिद छोडऩे को मान जाएं तथा किसी के कहने में न आकर वास्तविकता समझें तो महीनों से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो जाए। पता नहीं किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैरोकारों ने यह बात उनसे छिपाई और केवल सड़क खाली करने की बात कही। सच बता देते तो हो सकता है, कामयाब हो जाते। 

सरकारी व्यापार का सच
एक और सच बताते हैं। भारत सरकार का कानून है और जिसे बहुत से देशों ने अपने यहां से हटा दिया है कि किसी भी सौदे में कमीशन का लेन-देन नहीं हो सकता जबकि सत्य यह है कि कोई भी सौदा बिना कमीशन के तय नहीं होता, उसका नाम चाहे कुछ भी रख लें पर यह होता ही है। सरकार अगर तय कर दे कि इतने प्रतिशत कमीशन का लेन-देन कानूनी है तो न सिर्फ  सौदे सस्ते होने लगेंगे बल्कि माल भी अच्छा मिलेगा क्योंकि सब कुछ पारदर्शी रखने की मजबूरी होगी वरना व्यापार नहीं होगा। यही नहीं, नेताओं और अधिकारियों को घोटाले, स्कैम या धांधली नहीं करनी पड़ेगी। 

इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब देश में आयकर 85 प्रतिशत और उससे भी ज्यादा हुआ करता था तो एक समानांतर अर्थव्यवस्था काले धन के रूप में स्थापित हो गई थी जो आज  तक गले की हड्डी बनी है। आज आयकर में सहूलियत है तो उन्हें छोड़कर जो बेईमानी का पल्लू छोडऩे को तैयार नहीं हैं, शेष सब ईमानदारी से टैक्स देने लगे हैं। इसी तरह समस्या कोई भी हो और उसके हल के लिए योजना या तरकीब कैसी भी हो, अगर सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा तो उसका सही समाधान निकलना निश्चित है। यह भी एक सच है चाहे सरकार हो या  परिवार के लोग, यदि सत्य के रास्ते पर चलें तो बहुत-सी परेशानियां तो दूर से ही नमस्ते कर लेंगी और समाज शांति से रह सकेगा।-पूरन चंद सरीन  
 


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