बिना ‘ठोस वायदों’ के हो रहे हैं चुनाव

punjabkesari.in Sunday, Feb 19, 2017 - 11:16 PM (IST)

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार कई नई-नई बातें दिख रही हैं। मसलन चुनाव को कम खर्चे वाला बनाने की कोशिशों को देखें तो दिखने में तो धूमधाम जरूर कम हो गई, लेकिन प्रशिक्षित चुनाव प्रबंधन एजैंसियों पर खर्चा इतना बढ़ गया कि इस मामले में हालत पहले से ज्यादा खराब है।

होॄडग, बैनर और गली में लाऊडस्पीकर से प्रचार इस बार कम नजर आता है लेकिन चुनाव प्रबंधकों के नियुक्त मानव संसाधनों की भरमार दिखने लगी है। कुछ राजनीतिक दलों के वास्तविक कार्यकर्ताओं में इसी बात को लेकर बेचैनी  है। ये कार्यकर्ता वर्षों और महीनों से पार्टी के प्रचार में इसलिए लगे रहते हैं कि चुनाव के दौरान उन्हें काम मिलेगा। अब उन्हें सिर्फ चुनाव सभाओं में भीड़ जमा करने का काम मिलता है और वो भी अपनी पार्टी के नेताओं की तरफ से नहीं बल्कि चुनाव प्रबंधन कम्पनियों के मैनेजरों के जरिए।

चुनाव खर्चे के बाद नई बात यह है कि मतदाताओं का उत्साह घट गया है। मतदाता अब उतना मुखर नहीं है। देखने में जरूर लगता है कि छोटे-छोटे कस्बों में टी.वी. चैनल उम्मीदवारों या उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को कहने के लिए मंच मुहैया करवाने लगे हैं। इन कार्यक्रमों में जनता को भी बैठाया जाता है लेकिन ये मुखर कार्यकर्ता पहली नजर में ही प्रायोजित मतदाता जैसे लगते हैं। यानी इन कार्यक्रमों से हम बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लगा पाते कि इस चुनाव में मतदाताओं का रुझान किस तरफ है।

चुनाव सर्वेक्षण एजैंसियों ने तो इस बार हद कर दी है। किसी एक दल को खींचकर जीतता हुआ दिखाने के चक्कर में उन पर कोई यकीन ही नहीं कर पा रहा है। पहले यह हुआ करता था कि किसी के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई एजैंसियों में भी आपसी समझ हुआ करती थी। लेकिन इस बार लगता है कि जैसे ये एजैंसियां चुनाव प्रचार का हिस्सा ही बनती जा रही हैं। पांच राज्यों के चुनाव का आकार देखें तो अब तक मतदाता का दो तिहाई काम निपट गया है। लेकिन कहीं से भी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा जिसके आधार पर विश्वसनीय अनुमान लगाया जा सके।

अगर तीनों बातों से कोई निष्कर्ष निकालें तो एक सकारात्मक बात भी निकलती है। गुप्त मतदान चुनावी लोकतंत्र की बड़ी खासियत है। इससे निष्पक्ष मतदान का लक्ष्य भी सधता है। इस लिहाज से मतगणना के पहले अनुमान नहीं लग पाना हर मायने में अच्छी बात ही कही जाएगी। लेकिन ऐसा किन कारणों से हो रहा है यह जरूर ङ्क्षचता की बात है। मसलन यह ऐसा पहला चुनाव है जिसमें चुनावी वायदे या चुनाव घोषणा पत्रों की बड़ी बेकदरी दिख रही है।

हो सकता है कि यह इसलिए हो क्योंकि पिछले अनुभव से साबित हो गया है कि चुनावी वायदे महज वायदे ही रह जाते हैं। सब कुछ हो भी इतनी जल्दी-जल्दी रहा है कि जनता वायदे भूल नहीं पा रही। बहुत सम्भव है कि चुनाव प्रबंध विशेषज्ञों ने यह बात समझ ली हो कि अब दिशा, दृष्टि और दूरगामी लक्ष्य की बातें हवा हवाई समझी जाएंगी। सो उन्होंने  छोटे-मोटे  तात्कालिक लाभों का वायदा ही कारगर समझा हो।

इस चुनाव के पहले तक हमेशा बिजली-पानी-सड़क खास मुद्दे रहा करते थे और वाकई जनता की बुनियादी जरूरत इन कामों से कुछ हद तक पूरी भी होती थी। लेकिन 130 करोड़ आबादी वाली अर्थव्यवस्था में इन कामों को सुनिश्चित करने की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता हां सपने दिखाने के लिए बोलते रहें ये अलग बात है क्योंकि पिछले 2 दशकों से इसे खूब चलाते रहे सो अब इस पर यकीन करने को कोई तैयार नहीं है।

सबको साफ पानी, सबको पक्का मकान, सबको गुजारे लायक नौकरी या कामधंधा, साफ सफाई, खेती के काम में लागत निकालने की समस्या, शिक्षा, स्वास्थ्य सारे ऐसे काम हैं कि बिना पैसे के नहीं हो सके। कहने को कोई खूब कहता है कि अपनी अक्ल और हुनर लगाकर बिना पैसे के ये काम कर देगा। लेकिन पिछले 70 सालों में तय हो चुका है कि हमारी जितनी आॢथक हैसियत है उसके मुताबिक ज्यादा बड़ी बात करना किसी भी तरह से ठीक नहीं है क्योंकि आगे चलकर बड़ी जवाबदेही बन जाती है। बहुत सम्भव है इसलिए इस बार के चुनावों में मतदाताओं को छोटे-मोटे तोहफे देने का वायदा ही दिख रहा है।

कुछ भी हो इन चुनावों ने इतना तो साबित कर दिया है कि हमारा चुनावी लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसका सबूत यह है कि इस बार किसानों की बात सबने की है। खास तौर पर बदहाल किसानों के कर्ज माफ करने पर आम सहमति बन गई है। यह मुद्दा देखने में भले ही दूसरे तीसरे पायदान पर हो लेकिन उ.प्र. के अधिसंख्यक मतदाताओं से इसका सीधा सरोकार  है। हालांकि पूरी कहानी में यह बात अभी भी गायब है कि इस कर्ज माफी में सरकार पर बोझ कितना पड़ेगा।

ये पैसे आएंगे कहां से? और अगर कहीं से इंतजाम कर भी लिया गया तो जहां से इंतजाम किया जाएगा वह क्षेत्र हाहाकार कर उठेगा। यानी लब्बोलुआब यह है कि देश को या किसी भी राज्य को पैसे चाहिएं यानी आमदनी चाहिए। आमदनी बढ़ाने के लिए उत्पादन चाहिए यानी उत्पादक रोजगार के मौके चाहिएं। सबसे बड़ी हैरत की बात यही है कि इन चुनावों में खास तौर पर उ.प्र. के चुनाव में उत्पादक रोजगार बढ़ाने का वायदा प्राथमिकता सूची में ऊपर दिखाई ही नहीं देता।


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