‘दलित वोटें’ हासिल करने के लिए कांग्रेस और भाजपा को याद आए डा. अम्बेदकर

punjabkesari.in Friday, Apr 15, 2016 - 01:49 AM (IST)

(कल्याणी शंकर): दलित मसीहा भीम राव अम्बेदकर इस वर्ष चर्चा में हैं क्योंकि राजनीतिक दल दलित वोटों पर कब्जा करने के लिए एक-दूसरे के साथ स्पर्धा कर रहे हैं। पहली बार, स्वाभाविक तौर पर मोदी सरकार के प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र ने उनके जन्मदिन से एक दिन पूर्व बुधवार को उनकी 125वीं जयंती मनाई जिसमें उनके वैश्विक दर्शन को दर्शाया गया। खुद प्रधानमंत्री ने सामाजिक सद्भाव दिवस मनाने के लिए उनके जन्मस्थान महू जाकर दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि अर्पित की। अम्बेदकर की विरासत का दावा करने के लिए कांग्रेस ने भी सोमवार को नागपुर में एक विशाल रैली का आयोजन किया।

 
दो बड़े राजनीतिक दल-भाजपा तथा कांग्रेस अपनी चुनावी राजनीति के लिए दलितों को लुभाने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत वर्ष मुम्बई में अम्बेदकर स्मारक की आधारशिला रखी थी और अम्बेदकर के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए संविधान दिवस मनाने हेतु 28 नवम्बर 2015 को संसद में एक प्रक्रिया की शुरूआत भी की। 
 
कांग्रेस अपने खोए हुए दलित समर्थन को वापस पाने की राह ताक रही है जबकि भाजपा अपनी बनिया-ब्राह्मण पार्टी की छवि को सुधारने का प्रयास कर रही है। दोनों ने गत वर्ष सारा साल 14 अप्रैल 2016 तक चलने वाले आयोजनों की घोषणा की थी। उनकी जयंती तथा बरसी पर राजनीतिक दल अम्बेदकर की स्मृति में उन्हें श्रद्धांजलि पेश करने के लिए मुम्बई पहुंचते हैं। दोनों राष्ट्रीय दलों ने अम्बेदकर की जयंती के 125 वर्ष मनाने के लिए साल भर चलने वाले समारोहों की घोषणा की है। यह सब इस बीच हो रहा है जब देश के सभी कोनों से दलितों के उत्पीडऩ़ की रिपोर्टें आ रही हैं। 
 
हाल ही में दलित छात्र रोहित वेमुला की मौत देश में उनकी स्थिति का एक अच्छा उदाहरण है। वेमुला के आत्महत्या के नोट में न केवल जोरदार तरीके से दलितों को दरकिनार करने की बात उठाई गई है बल्कि भाजपा की राष्ट्रव्यापी स्तर पर वोटों को मजबूत करने की क्षमता पर भी संदेह उठाए गए हैं।
 
1990 के दशक तक  मुख्यधारा पार्टियों द्वारा अम्बेदकर को एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर नहीं लिया जाता था। केवल वी.पी. सिंह सरकार द्वारा उन्हें भारत रत्न देने तथा मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने और बसपा जैसे पहचान आधारित दलों के उठने के बाद ही राष्ट्रीय दलों की नींद खुली और उन्होंने बाबा साहेब की विरासत का दावा किया। बिखरी हुई राजनीति के चलते राजनीतिक दलों को एहसास हुआ कि उन्हें सोशल इंजीनियरिंग की जरूरत है। विडम्बना है कि अम्बेदकर अपने जीवनकाल में न तो कांग्रेस के और न ही हिन्दू महासभा के करीब थे। वह महात्मा गांधी के आलोचक थे और जब उन्होंने 1951 में हिन्दू कानून का आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया तो दक्षिणपंथी उनके आलोचक बन गए।
 
मगर अब हालात बदल गए हैं। कांग्रेस, जिसे पहले दलितों का समर्थन हासिल था, वह उसे वापस हासिल करने की कोशिश कर रही है जबकि भाजपा, जो नए महानायकों तथा नए नेताओं की तलाश में है, ने अम्बेदकर को अपनाने का निर्णय किया है। कांग्रेस के लिए एक समय था जब उसके पास बाबू जगजीवन राम जैसे नेता थे जिन्हें कद्दावर दलित नेताओं के तौर पर देखा जाता था। भाजपा के पास भी अधिक दलित नेता नहीं हैं। इसने बंगारू लक्ष्मण को आगे बढ़ाया था जो पार्टी प्रमुख बने मगर भ्रष्टाचार के मामले में उन्होंने अपना पद गंवा दिया।
 
दोनों दल अब दलितों को लुभाने के लिए कार्यक्रम तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए संघ ने गांवों में भेदभाव खत्म करने के लिए ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक कब्रिस्तान’ नारे पर आधारित एक कार्यक्रम की घोषणा की है। कांग्रेस   भी अम्बेदकर पर अपने अधिकार का दावा करते हुए एक योजनाबद्ध एप्रोच के साथ आगे आई है। उनकी योजना में निजी क्षेत्र में दलितों के लिए नौकरियां पैदा करना शामिल है। पार्टी का ध्यान शहरी मध्यमवर्गीय दलितों पर है।
 
अब प्रश्न यह है कि ये दो पार्टियां पहचान की राजनीति के साथ जन्मी पाॢटयों के साथ मुकाबला करने में कहां तक सफल होंगी। दलित अब केवल पहचान के आधार पर वोट नहीं करते जैसा कि 2014 के चुनावों ने दिखाया, जब दलितों ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया। भाजपा ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 84 में से 40 सीटें जीतीं। दलितों में भाजपा की मत हिस्सेदारी 12 प्रतिशत से दोगुनी बढ़ कर 24 प्रतिशत हो गई। ऐसा दलित मध्यम वर्ग के विकास, उनके बढ़ते दबाव तथा दलित सशक्तिकरण के कारण हुआ। भाजपा दलितों के समर्थन के बगैर महाराष्ट्र तथा हरियाणा में नहीं जीत सकती थी। दलित वोटों के बड़े हिस्से को आकर्षित करने में भाजपा कांग्रेस तथा बसपा दोनों से आगे निकल गई है।
 
दलित वोटों के हाल ही में भाजपा की तरफ खिसकने के दो कारण हैं। पहला था  लोक जनशक्ति, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) तथा उदित राज जैसी पार्टियों के साथ चुनाव पूर्ण गठबंधन बनाने की इसकी रणनीतिक चाल। दूसरा था दलितों की बढ़ती आकांक्षाएं जो मोदी में विश्वास रखते हैं। यद्यपि सुनिश्चित नहीं कि भगवा पार्टी को यह समर्थन जारी रहेगा अथवा नहीं। दलितों को अब एहसास हो गया है कि उनका सशक्तिकरण होना चाहिए और इसके लिए वे उन पार्टियों की ओर देख रहे हैं जो ऐसा कर सकती हैं।
 
दूसरे, बसपा को बेशक एक भी सीट नहीं मिली, इसकी मत हिस्सेदारी में अधिक गिरावट नहीं आई। बसपा ने अपने मत आधार का काफी हिस्सा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा दिल्ली में भाजपा को गंवा दिया है। मायावती की पराजय का मुख्य कारण उनकी सोशल इंजीनियरिंग का जारी न रहना तथा अन्य जातियों, जिन्होंने बढ़-चढ़ कर उनका समर्थन किया था, का छोड़ जाना रहा। एक जुझारू नेता होने के नाते वह 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए जमीनी स्तर पर कड़ी मेहनत कर रही हैं। उन्होंने लगभग 90 प्रतिशत उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप दे दिया है।
 
18 मई को आने वाले विधानसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट करेंगे कि वर्तमान चुनावों में दलितों ने कहां वोट दी है, मगर अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश तथा पंजाब के चुनाव दलित शक्ति के बारे स्पष्ट संकेत देंगे।

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