कम होतीं सरकारी नौकरियां और जातिगत जनगणना की सियासत

punjabkesari.in Sunday, Jun 05, 2022 - 06:38 AM (IST)

राम मंदिर आंदोलन में कमंडल की धार को कुंद करने के लिए वी.पी. सिंह ने पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को लागू किया था। उस मंडल आयोग के अध्यक्ष बिहार के ही थे। उसी तर्ज पर सामाजिक-आर्थिक जनगणना की शुरूआत करके नीतीश कुमार देश की राजनीति में नए सिरे से अपना नाम दर्ज कराने की कोशिश कर रहे हैं। 

बिहार में 14 करोड़ की आबादी की जातिगत गणना को 9 महीने में पूरा कराने के लिए नीतीश सरकार ने 500 करोड़ रुपए आबंटित किए हैं। इसके पहले ओ.बी.सी. की जनगणना के लिए महाराष्ट्र सरकार ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें केंद्र सरकार ने कहा था कि इसे करना संभव नहीं है। 

नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) भाजपा की गठबंधन सहयोगी है। केंद्र में भाजपा सरकार के एक मंत्री ने पिछले साल 20 जुलाई 2021 में संसद में कहा था कि जातिगत जनगणना कराने की कोई योजना नहीं है। लेकिन नीतीश कुमार के सियासी मास्टर स्ट्रोक के आगे बेबस राज्य भाजपा के नेताओं को जनगणना के टेढ़े प्रस्ताव पर हामी भरनी पड़ी। 

पिछड़े वर्ग की जनगणना के पिछले आंकड़े सन 1931 के हैं, तब 34 जातियों का विवरण सामने आया था। उस समय भारत में पाकिस्तान और बंगलादेश भी शामिल थे। जबकि 2011 की जनगणना के साथ किए गए सामाजिक-आर्थिक सर्वे में 4,28,000 जातियों और उपजातियों का ब्यौरा सामने आने से सरकारी सिस्टम सुन्न-सा हो गया। तकनीकी कारणों की आड़ में सरकार ने उन आंकड़ों को अभी तक जारी नहीं किया। बिहार सरकार की इस पहल से पूरे देश का सामाजिक-आर्थिक ढांचा उजागर हो सकता है, जिससे कई चुनौतियां भी बढ़ सकती हैैं। 

जनगणना का विषय केंद्र सरकार के अधीन : भारत में अंग्रेजों ने सन 1881 से नियमित जनगणना की शुरूआत कराई थी। गृहमंत्री पटेल के समय जनगणना के लिए सन 1948 में कानून बनाए, जिसके तहत रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की नियुक्ति होती है। संविधान की 7वीं अनुसूची के अनुसार जनगणना का विषय केंद्र सरकार के अधीन है। सन 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना हुई। भारत में जनगणना का 16वां राऊंड 2020 में होना था, जिसे कोरोना के कारण टालना पड़ा। जनगणना के लिए बने सन 1990 के नियमों में मोदी सरकार ने संशोधन करके डिजिटल जनगणना का मार्ग प्रशस्त किया है। 

संविधान के अनुसार, एस.सी., एस.टी. वर्ग के लिए  विधानसभा और लोकसभा की सीटों में आरक्षण के लिए सीटों का नियमित परिसीमन होता है। इसलिए भारत में हर 10 साल में होने वाली जनगणना में एस.सी. और एस.टी. वर्ग का विवरण शामिल होता है, लेकिन ओ.बी.सी. के बारे में ऐसा प्रावधान नहीं है। राज्यों का कहना है कि जनगणना का संवैधानिक अधिकार भले ही केंद्र सरकार के पास हो, लेकिन सरकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए उन्हें ऐसा सर्वे करने और डाटा इकट्ठा करने का पूरा अधिकार है। 

विवादों का नया पिटारा खुलने के साथ मुकद्दमेबाजी बढ़ेगी : मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 60साल पुराने आंकड़ों के आधार पर पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आरक्षण के लिए 50 फीसदी की ऊपरी सीमा निर्धारित की थी, जिसका दक्षिण के कई राज्यों में पालन नहीं हो रहा। सरकारी नौकरियों में भर्ती और प्रमोशन के बारे में भी जनगणना के सही आंकड़ों का अभाव है। जनगणना के सही डाटा नहीं होने की वजह से पंचायतों में ओ.बी.सी. के आरक्षण में अनेक कानूनी विवाद होने के कारण सुप्रीम कोर्ट को कई मामलों में सख्त आदेश पारित करना पड़ा है। 

इस जनगणना के बाद पिछड़ों और अति पिछड़ों का विवाद भी आगे बढ़ सकता है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने इस जनगणना में मुसलमानों को शामिल करने की मांग का समर्थन करते हुए कहा है कि बंगलादेशी और रोहिंग्या लोगों को इससे बाहर रखना चाहिए। मुस्लिम धर्म में जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए वर्तमान कानून के अनुसार उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाता है। नई जनगणना में मुस्लिमों को शामिल करने से नई कानूनी चुनौती सामने आ सकती है। 

जातियों के आधार पर आरक्षण को सरकारी मान्यता मिलने पर जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास विफल हो सकते हैं। ये आंकड़े सामने आने पर देश में सियासी भूचाल के साथ अदालतों में विवाद बढ़ेंगे। खत्म होती सरकारी नौकरियों के दौर में आरक्षण के विवादों का नया पिटारा खुलना, समाज और देश दोनों के लिए प्रतिगामी साबित हो सकता है।-विराग गुप्ता (एडवोकेट सुप्रीमकोर्ट)
 


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