चीन-पाकिस्तान सांठ-गांठ मोदी के नेतृत्व को ‘बड़ी चुनौती’

punjabkesari.in Friday, Aug 11, 2017 - 10:53 PM (IST)

पाकिस्तान किधर जा रहा है? इस सवाल का दो टूक उत्तर तो खुद भगवान भी नहीं दे सकते। कथित ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ रहस्य में लिपटी हुई एक ऐसी पहेली है जिस पर लगातार विभिन्न ज्ञात और अज्ञात इस्लामिक शक्तियों की आपसी खींचतान प्रभावी होती रहती है। 

न केवल पाकिस्तान की अत्यंत कमजोर सिविल सोसायटी में बल्कि सीमाओं से पार अफगानिस्तान, भारत और विशेष तौर पर कश्मीर में अपना फतवा लागू करने के लिए गोलियों और बंदूकों का खेल खेलने वाले आतंकी तथा मूलवादी इस्लामी गुटों के पाकिस्तान में अनेक ब्रांड और उपब्रांड कार्यशील हैं। जब विभिन्न इस्लामी आतंकी संगठन तो अपनी जगह खूंखार भूमिका अदा कर रहे हैं तब रावलपिंडी स्थित जनरल हैडक्वार्टर (जी.एच.क्यू.) यानी पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में सर्वशक्तिमान हैसियत से काम कर रहा है। प्रमुख आतंकी गुटों की गतिविधियों को यह आई.एस.आई. के माध्यम से नियंत्रित और निर्देशित करता है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में सिविल सोसायटी केवल लोकतंत्र के नाम पर एक प्रतीकात्मक मुखौटे से अधिक कुछ भी हैसियत नहीं रखते। 

सत्ता के सभी तार सेनापतियों और उनके चापलूसों द्वारा ही हिलाए जाते हैं। वास्तव में पाकिस्तान इस तथ्य का एक सटीक उदाहरण है कि लोकतंत्र को किस तरह सैन्य कमांडरों द्वारा कंट्रोल किया जाता है। चुने हुए प्रधानमंत्रियों को राजपलटा करके अपदस्थ कर दिया जाता है। 1997 में नवाज शरीफ के साथ ऐसा ही हुआ था। वैसे अब की बार तो नवाज शरीफ ‘अदालती राजपलटे’ द्वारा अपने चहेते पद से बाहर धकेल दिए गए। ‘पनामा पेपर्स’ में उनके परिजनों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों का जो खुलासा किया गया था उसी के आधार पर पाकिस्तानी सुप्रीमकोर्ट ने उनके विरुद्ध कार्रवाई की। किसी हद तक यह कार्रवाई विडम्बनापूर्ण ही है क्योंकि पाकिस्तान की समूची व्यवस्था ही भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। यहां तक कि सैन्य तंत्र भी भ्रष्ट व्यवहारों के कारण ही फल-फूल रहा है। 

जब 1997 में मैं पाकिस्तान गया था तो आम पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के लालची और दागदार होने के बारे में दबी जुबान से बातें करते थे। जिस प्रकार जनरल परवेज मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सत्ता से पटखनी दी थी वह कोई एकमात्र घटना नहीं बल्कि पाकिस्तान का इतिहास ऐसे उथल-पुथल उदाहरणों से भरा पड़ा है। कहते हैं कि दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। इसी लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए अब की बार नवाज शरीफ हर कदम बहुत फूंक-फूंक कर उठाते रहे हैं। वह सैन्य तंत्र के साथ सीधे टकराव से टलते रहे हैं। यही कारण है कि वह कुछ समय तक सत्ता में बने रहने में सफल रहे। 

मैं यह मानता हूं कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में तथा खास तौर पर भारत के संदर्भ में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन का दादागिरी करने वाली शक्ति के रूप में उभरना तथा डोनाल्ड ट्रम्प के अंतर्गत अमरीकी रणनीतियों में आए बदलाव के मद्देनजर जनरल रहील शरीफ ने पाकिस्तान के रक्षा और विदेश मामलों के बारे में कुछ अलग रुख अपनाया था। चीन और पाकिस्तान के बीच बहुआयामी सांठ-गांठ मोदी के नेतृत्व के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

क्या भारत भविष्य में पैदा होने वाली कठिनाइयों से निपटने के लिए तैयार है? डोकलाम को लेकर पैदा हुआ तनाव इस बात का प्रमाण है कि भारत अब पेइचिंग के युद्धोन्मादी हथकंडों से डरने वाला नहीं। भारत निश्चय ही डोकलाम संकट को शांतिपूर्ण ढंग से और बिना कोई हो-हल्ला मचाए कूटनीतिक स्तर पर हल करना चाहता है लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट कर देना चाहता है कि चीन को किसी भी हालत में जाम फेरी नामक स्थान तक पक्की सड़क का निर्माण नहीं करने दिया जाएगा क्योंकि यह परियोजना पूर्वाेत्तर और उसके आगे भारतीय रणनीतिक हितों के विरुद्ध जाती है। 

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का यह कहना सही है कि युद्ध इस समस्या का हल नहीं। मेरा मानना है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी जमीनी हकीकतों को समझते हैं लेकिन वह भी जहां राष्ट्र प्रमुख के तौर पर सत्ता के अहंकार से पीड़ित हैं, वहीं चीन के अंदर और वैश्विक स्तर पर माओ से भी अधिक मान्यता हासिल करने की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा संजोए हुए हैं। चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को हल्के में नहीं लेना चाहिए। 1962 में हमें चीन के हाथों केवल इसलिए पीड़ा झेलनी पड़ी कि हम इस बात को समझने में विफल रहे कि चीन अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत ही बुनियादी ऐतिहासिक सच्चाइयों को तोड़-मरोड़ कर क्षेत्रीय विवादों का सृजन करता है। 

कोई माने या न माने, सच्चाई यह है कि पाकिस्तान अपने ही बुने हुए जाल में उलझ गया। कई दशकों तक अमरीकी सैन्य गठजोड़ का अंग रहने के बाद पाकिस्तान अब चीन से घनिष्ठता बढ़ा रहा है और इसे उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग से विशेष लगाव है। हालांकि वह इस्लाम के प्रति कोई हमदर्दी नहीं रखते। सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री के पद से नवाज शरीफ की बर्खास्तगी को कुछ हलकों द्वारा पाकिस्तान के अमरीकी खेमे में से निकलकर चीनी खेमे की ओर प्रस्थान करने के दृष्टिगत पाकिस्तानी सैन्य तंत्र की रणनीतियों में आए बदलाव का नतीजा है। वैश्विक संधियों और सौदेबाजियों में पाकिस्तानी नीति में रणनीति बदलाव के भारत के लिए खास तौर पर बहुत व्यापक परिणाम होंगे। पाकिस्तानी सैन्य मुख्यालय की नजरों में चीन का भारत के प्रति दुश्मनी भरा रवैया बहुत लाभदायक है। इसी कारण पाकिस्तान ने चीन के लिए अपने दरवाजे खोलते हुए उसे पी.ओ.के. में से गुजरने वाला आॢथक गलियारा बनाने की अनुमति दे दी है। 

चाहे कुछ भी हो, विदेश मामलों के परिचालन में मजहबी जुनून की चाशनी बहुत ही खतरनाक खेल है। जब यह खेल सत्ता हथियाने के लिए  बेलगाम ढंग से खेला जाता है तो यह अत्यंत मनहूस रूप ग्रहण कर सकता है। भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को पाकिस्तान यदि अधिक व्यावहारिक दृष्टि से देखे तो इसे हर चीज को विवेकपूर्ण ढंग से समझने के लिए सहायता मिलेगी। पाकिस्तान वर्तमान में ऐसी स्थिति में है कि चित्त और पट्ट दोनों ही इसके पक्ष में नहीं। यह स्थिति तब तक जारी रहेगी जब तक पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर भारत के विरुद्ध टकराव और दुश्मनी के रास्ते का परित्याग नहीं करता। 

आज जरूरत इस बात की है कि भारतीय उपमहाद्वीप में चीन की बिचौलगी के बिना भारत और पाकिस्तान के बीच शांति, विकास और स्थिरता के लिए द्विपक्षीय आदान-प्रदान शुरू किया जाए। पाकिस्तानी सैन्य कमांडरों के लिए यह शर्त शायद बहुत बड़ी होगी क्योंकि उनकी भारत विरोधी मानसिकता अत्यंत कठोर रूप ग्रहण चुकी है और चीन इसी का लाभ उठा रहा है। जहां तक भारत का सवाल है, मोदी सरकार के अंतर्गत यह निश्चय ही कायाकल्प के निर्णायक दौर में से गुजर रहा है और इसीलिए क्षेत्रीय उतार-चढ़ावों और बदलावों से अलग-थलग रहना यह गवारा नहीं कर सकता। आस-पड़ोस में और व्यापक जगत में जो नई वास्तविकताएं आकार ग्रहण कर रही हैं उनके चलते हमें भी अपनी विदेश नीति और सुरक्षा के मामले में घिसी-पिटी लकीर को छोड़ कर दिलेरी से नए रास्ते अपनाने होंगे। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री मोदी का इसराईल के साथ नया आर्थिक और सैन्य गठबंधन बहुत ही महत्वपूर्ण है।


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