चीन की चुनौती के समक्ष ‘एकता’ की दरकार

punjabkesari.in Tuesday, Jul 14, 2020 - 04:21 AM (IST)

कोरोना महामारी से भारत की लड़ाई के बीच चीन द्वारा लद्दाख में किए अतिक्रमण और गलवान में हुए संघर्ष में सीमा की रक्षा करते हुए 20 भारतीय जवान वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षति की मीडिया में काफी चर्चा हो रही है और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि 1962 के बाद चीन के साथ ऐसा खूनी संघर्ष पहली बार हुआ है। भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम पर और भारत के नेतृत्व की दृढ़ता-सजगता पर कुछ लोग प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं। ऐसे प्रश्न करने वालों का इतिहास खंगाला जाए तो याद आएगा कि ये सब वही लोग हैं, जिन्होंने भाजपा को केंद्र में आने से रोकने और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। 

सेना के शौर्य व पराक्रम के साथ नेतृत्व की भूमिका भी विशेष महत्व की होती है। 1998 के सफल पोखरण परमाणु परीक्षण से यह तथ्य उजागर हुआ था, क्योंकि उसमें भी वैज्ञानिकों के साथ नेतृत्व की भूमिका अहम थी। भारतीय वैज्ञानिक 1998 से पूर्व ही यह परमाणु परीक्षण करने में सक्षम थे, परंतु अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते उस समय के शीर्ष नेतृत्व ने वह साहस नहीं दिखाया जो 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिखाया। उस सफल परीक्षण के बाद भारत और भारतीयों की साख दुनिया में बढ़ी। 2014 से राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी गतिविधियों को लेकर पाकिस्तान और चीन के साथ-साथ भारत के रवैये में एक मूलभूत परिवर्तन दिखता है। उड़ी हवाई हमला, बालाकोट, डोकलाम, गलवान, कश्मीर में पाक-समर्थित आतंकवाद का सफल प्रतिरोध-इन सभी गतिविधियों से यह परिवर्तन स्पष्ट हुआ है। 

1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारतीय सेना के अतुलनीय शौर्य और बलिदान के बावजूद हमारी हार हुई। इसके दो मुख्य कारण स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। पहला, उस समय के भारत के शीर्ष नेतृत्व में दूरदॢशता का अभाव और दूसरा, युद्ध की बिल्कुल ही तैयारी न होना। चीन के विस्तारवादी स्वभाव से अवगत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरु जी और अन्य कई दूरदर्शी नेताओं ने संकेत दिया था कि चीन को भाई-भाई कह कर गले लगाते समय उससे धोखा मिल सकता है। उस चेतावनी की पूर्णत: अनदेखी कर सुरक्षा की दृष्टि से कोई तैयारी न करने तथा चीन को गले लगाए रखने के परिणामस्वरूप हमें 1962 के युद्ध में शर्मनाक व दुखद नतीजे भुगतने पड़े। 

अभी 6 दिसम्बर, 2013 का तत्कालीन रक्षामंत्री ए.के. एंटनी का सदन में बोलते हुए वीडियो सामने आया, उसमें वे कहते हैं, ‘‘भारत की तुलना में बुनियादी ढांचे के निर्माण के क्षेत्र में चीन बहुत उन्नत है। उनका बुनियादी ढांचा तथा विकास भारत से बेहतर है। स्वतंत्र भारत की कई वर्षों से एक नीति थी कि सीमा का विकास न करना ही सबसे अच्छा बचाव है। इसलिए, कई वर्षों तक, सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़कों या हवाई क्षेत्रों का निर्माण नहीं हुआ। उस समय तक, चीन ने सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने बुनियादी ढांचे का विकास जारी रखा। इसके परिणामस्वरूप, वे अब हमसे आगे निकल गए हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा क्षमता की दृष्टि से हमारी तुलना में वे आगे हैं। मैं यह स्वीकार करता हूं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।’’ 

विदेश नीति की बात करें तो जब-तब गुटनिरपेक्षता की बात होती रही। वैश्विक संदर्भ में भारत के साम्थ्र्यवान होने तक रणनीति की दृष्टि से गुटनिरपेक्षता की बात करना समझ सकते हैं, पर वह हमारी विदेश नीति का स्थायी आधार तो नहीं बन सकता, क्योंकि जिन दो महाशक्तियों का राष्ट्रीय जीवन, उनका वैचारिक अधिष्ठान, उनका राष्ट्रीय, सामाजिक और मानव जीवन का अनुभव भारत के राष्ट्रीय, सामाजिक, वैचारिक, अधिष्ठान आदि से इतना अविकसित, अपूर्ण और अपरिपक्व है कि उनके आधार पर हमारी नीति तय करने का विचार भी अपने आप में दास्तां की मानसिकता का परिचायक है। अमरीका और उस समय का रूस जो इन महाशक्ति के केंद्र थे, उनका राष्ट्रीय जीवन 500 वर्षों का भी नहीं है। 

जिस विचारधारा की वे दुहाई देते थे, उन्हें 100 साल का भी अनुभव नहीं था। दूसरी ओर भारत का इतिहास, राष्ट्रीय जीवन कम से कम 10 हजार वर्ष पुराना है। अध्यात्म-आधारित भारतीय जीवन का दृष्टिकोण एकातम, सर्वांगीण और वैश्विक रहा है। इसलिए साम्थ्र्यवान होने पर भी भारत ने अन्य देशों पर युद्ध नहीं लादे। व्यापार के लिए दुनिया के सुदूर कोनों तक जाने के बावजूद भारत ने न उपनिवेश बनाए, न ही उनका शोषण किया, न उन्हें लूटा, न उन्हें कन्वर्ट किया और न ही उन्हें गुलाम बनाकर उनका व्यापार किया। हमारे लोगों ने वहां के लोगों को सम्पन्न, समृद्ध, सुसंस्कृत बनाया। 

भारत की यह प्राचीन सर्वसमावेशक विश्व दृष्टि ही दुनिया में भारत की पहचान भी है। उसी के फलस्वरूप वही दृष्टि हमारी विदेश नीति का भी आधार होनी चाहिए थी। परंतु भारत के पहले प्रधानमंत्री पर साम्यवाद का प्रभाव था। इसलिए भारत की अध्यात्म आधारित वैश्विक, सर्वांगीण और एकात्म दृष्टिकोण की विशिष्ट पहचान को नकार कर आधुनिकता के नाम पर आकर्षक पश्चिमी शब्दावली के मोह में भारत की नीति की दिशा ही बदल दी गई। बाद में कांग्रेस में साम्यवादियों का प्रभाव बढ़ता गया और अंतत: कांग्रेस पूरी तरह साम्यवादियों के प्रभाव में ही आ गई। परिणामस्वरूप भारत की भारत से दूरी बढ़ती गई। भारत की जो पहचान है, जिसे सदियों से दुनिया जानती है, उसे नकारना मानो अपने आपको प्रगतिशील, लिबरल, इंटेलैक्चुअल कहलाने का चलन-सा हो गया। परंतु समाज में सतत् चल रहे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जागरण के चलते 2014 में एक और गैर-कांग्रेसी पक्ष स्वतंत्रता के पश्चात पहली बार पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता में आया। 

16 मई, 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पूर्ण बहुमत की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनाने का मौका मिला। 18 मई के (संडे गाॢडयन) के सम्पादक की शुरूआत यह थी कि आज, 18 मई, 2014, इतिहास में उस दिन के रूप में दर्ज किया जा सकता है जब ब्रिटेन ने अंतत: भारत छोड़ दिया। चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत एक लंबे युग के अंत का संकेत है, जिसमें सत्ता की संरचना और स्वभाव उनसे बहुत भिन्न नहीं था जिनके माध्यम से ब्रिटेन ने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था। कांग्रेस पार्टी के तहत भारत कई मायनों में ब्रिटिश राज की निरंतरता था। सम्पादकीय की यह शुरूआत ही इस परिवर्तन का मूलग्राही वर्तमान है। 

यह नया भारत है, जिसका अनुभव सभी भारतीयों व समूचे विश्व को हो रहा है। किंतु वास्तव में यह नया बिल्कुल नहीं, वरन् अब तक नकारा, दबाया गया, झूठे प्रचार के कारण सदियों पुरानी परंतु चिर-पुरातन पहचान लेकर स्वाभिमान और शक्ति के साथ खड़ा रहने वाला अपना भारत है और क्योंकि भारत का विचार ही (वसुधैव कुटुम्बकम) और (सर्व सुखिन: सन्तु) रहा है, इसलिए उसके स्वतंत्रता के जागरण और आत्मनिर्भरता के आधार पर शक्ति सम्पन्नता से किसी को भी कोई भय रखने का कारण नहीं है, क्योंकि यह भारत ही है, जो जाग रहा है। कोरोना महामारी जैसे संकट से जब सारा देश सफलतापूर्वक लड़ रहा है और विस्तारवादी व अधिनायकवादी चीन द्वारा खड़ी की हुई इस चुनौती की घड़ी में सम्पूर्ण भारतीय समाज को एकता का परिचय देना चाहिए, और दे भी रहा है।-डा. मनमोहन वैद्य सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ


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