देश की कृषि नीति के प्रमुख आर्कीटैक्ट जस्टिस गुरनाम सिंह

punjabkesari.in Friday, Feb 25, 2022 - 06:02 AM (IST)

पंजाब के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री जस्टिस गुरनाम सिंह की 123वीं जयंती आज उस समय मनाई जा रही है जब राज्य महत्वपूर्ण चुनावों का सामना कर रहा है। वह भारत के किसी भी राज्य की चुनी हुई सरकार का नेतृत्व करने वाले उच्च न्यायपालिका के एकमात्र स्थायी जज थे। उन्होंने देश की पहली बहुदलीय गठजोड़ सरकारों में से एक बनाई, वह कृषि नीति के प्रमुख आर्कीटैक्ट थे, जिसने भारत को अतिरिक्त अनाज पैदा करने वाला देश बनाया। वह राज्यों को अधिक अधिकार देने के अभियान का नेतृत्व भी करते थे। उनके कार्यकाल में पंजाब प्रति व्यक्ति आय तथा मानवीय स्रोतों के मामले में देश का अग्रणी राज्य बनकर उभरा। 

गुरनाम सिंह का जन्म 1899 में लुधियाना जिले में हुआ था। उन्होंने फोरमैन क्रिश्चियन कालेज लाहौर से ग्रैजुएशन की और 1928 में मिडल टैंपल लंदन से बार में बुलाया गया था। वह भारत के लिए हॉकी खेले तथा पंजाब ओलिम्पिक्स में 2 बार हॉकी में सर्वोत्तम एथलीट के लिए लेडी मैकलेरन कप जीता। उन्होंने लायलपुर में वकालत की जहां वह एक प्रमुख वकील के तौर पर जाने जाते थे। 1959 में सेवामुक्ति के बाद वह भारत के पूर्व गवर्नर जनरल राज गोपालाचारी के निमंत्रण पर राजनीति में दाखिल हुए। वह 1962 में अकाली दल की टिकट पर पंजाब विधानसभा के लिए चुने गए थे। वह1967 में विपक्ष के नेता रहे और फिर 1967 तथा 1969 में संयुक्त मोर्चे की गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री रहे। 1973 में आस्ट्रेलिया से वापस आते समय दिल्ली में एक हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया। उस समय वह आस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्त थे। 

गुरनाम सिंह उस पीढ़ी से संबंधित थे जिसने अंग्रेजी राज तथा आजाद भारत के विभाजन से पहले तथा बाद वाला पंजाब देखा था। वह 1951 में संविधान के पहले संशोधन से पूर्व तथा बाद भी जज थे, जिसने देशद्रोह, बिना मुकद्दमे तथा गैर-कानूनी नजरबंदी के कड़े कानूनों को बहाल किया था। एक वकील, जज, विपक्षी नेता तथा मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने विभाजन के दौरान दोनों ओर की घटनाओं को देखा जिसने उन्हें भारत की राजनीतिक तथा कानूनी प्रणाली को देखने का पूरा अवसर दिया।

गुरनाम सिंह संघवाद, उदास जम्हूरियत तथा नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा तथा नागरिक जीवन में जवाबदेही के समर्थक थे। विरोधी पक्ष के नेता के तौर पर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि कानून प्रणाली को स्वतंत्र तथा निम्र न्यायपालिका को प्रशासनिक अफसरशाही से अलग करना था जिसके लिए उन्होंने 5 जुलाई 1960 में प्रधानमंत्री नेहरू को एक पत्र लिखा कि अधिकारियों के पास अधिक शक्ति तथा तानाशाहीपूर्ण कानूनों को दुरुपयोग के परिणामों की चेतावनी दी। उन्होंने अपने पत्र में यह लिखा कि कानून सत्ता में रहने वाले प्रशासकों के हाथ में तानाशाही का एक हथियार बनकर न रह जाए। उन्होंने क्षेत्रीय विवादों को ताकत के इस्तेमाल से निपटने के तरीके तथा मांगों को राष्ट्र विरोधी और साम्प्रदायिक करार देने से ऐतराज किया। गुरनाम सिंह प्रणाली में चैक तथा बैलेंस बहाल करने के लिए राज्यों को अधिक स्वायत्तता की जरूरत में यकीन रखते थे। इसलिए उन्होंने मद्रास (अब चेन्नई, तमिलनाडु) के मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुरई तथा उनके उत्तराधिकारी एम. करुणानिधि तथा विभिन्न राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ मिलकर काम किया। 

इस पहलकदमी का फल तब मिला जब उन्होंने उप-राष्ट्रपति वी.वी. गिरि को भारत के राष्ट्रपति के लिए खड़े होने के लिए मना लिया और इसके लिए उन्होंने करुणानिधि का समर्थन भी हासिल करवाया। अधिकतर विरोधी दल इसमें शामिल हो गए और अंतत: प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो-फाड़ कर दिया तथा वी.वी. गिरि को समर्थन दिया जो थोड़ी वोटों से जीत गए। राज्यों के लिए यह उनकी विजय का पल था लेकिन यह आंदोलन गुरनाम सिंह के बिना धराशायी हो गया जब अकालियों ने अपनी ही सरकार को गिरा दिया। उनके लिए राजनीति एक कार्य नहीं था बल्कि वह एक दूरअंदेशी व्यक्ति थे। वह कभी भी इस बात से राजी नहीं थे कि उनकी पार्टी तथा विधायक रोज के प्रशासनिक कामकाज में दखल दें, तथा दबाव में नौकरियां, बदलियां तथा अयोग्य व्यक्तियों को सरकारी पदों पर नियुक्त करें। बेशक उनकी सरकार ही क्यों न चली जाए। 

गुरनाम सिंह ऐसे युग के मुख्यमंत्री बने जहां विरोधी सरकारों का कार्यकाल थोड़े समय के लिए होता था इसलिए उन्होंने अपने कार्य करने के एजैंडे में जल्दी की। उनकी शानदार उपलब्धियां ही उनको देश के सर्वाधिक प्रमुख मुख्यमंत्रियों तथा मूल चिंतकों में शामिल करती है। वह भारत में मौजूदा खाद्य नीति का श्रेय ले सकते हैं। उनकी ही पहलकदमी पर केंद्र सरकार ने अनाज की कम से कम कीमत निर्धारित करना यकीनी बनाया तथा अतिरिक्त अनाज खरीदने के लिए भारतीय खाद्य निगम की भूमिका का विस्तार किया। इस क्षेत्र में उनकी सेवाओं को मान्यता तब मिली जब रोम में विश्व अनाज कांफ्रैंस में भारतीय मंत्रिमंडल का नेतृत्व किया। आज तक किसी भी अन्य मुख्यमंत्री को यह सम्मान नहीं मिला। वह स्थानीय मंडियों को जोडऩे के लिए ग्रामीण लिंक सड़कें बनाने तथा ग्रामीण बिजलीकरण में देश में अग्रणी थे। उन्होंने श्री गुरु नानक देव जी के पांचवीं शताब्दी अवसर पर गुरु नानक तापघर बठिंडा की स्थापना की। 

उनका मानना था कि आधुनिक शिक्षा ही किसी भी आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए जरूरी है। इसके लिए उन्होंने गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी तथा राज्य में बहुत से कालेज, सांस्कृतिक केंद्र तथा पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की स्थापना की। जब उन्होंने 1970 में मुख्यमंत्री का पद छोड़ा तो पंजाब का बजट इतने विकास के बाद भी सरप्लस था। गुरनाम सिंह उस समय राजनीति में शामिल हुए जब पंजाब में हिंदू तथा सिख धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण कर रहे थे।

बेशक वह एक पंथक सिख पार्टी से संबंधित थे मगर वह चाहते थे कि दोनों भाईचारे राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा भाषायी मामले में बतौर पंजाबियों की तरह सोचें। 1970 में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा, जब उन्हें पता चला कि फाजिल्का-अबोहर चंडीगढ़ के बदले हरियाणा को देने का प्रस्ताव है। उस पत्र में उन्होंने लिखा कि मैं पंजाबी बोलने वाले हिंदू गांवों को पंजाब से बाहर धकेलने के लिए सहमत नहीं हो सकता। ऐसा करके हम ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक वायरस की शुरूआत करेंगे। जब से मैंने मुख्यमंत्री का पद संभाला है मैं हिंदू-सिख एकता के लिए काम कर रहा हूं तथा धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को मजबूत करने की कोशिश कर रहा हूं। 

आज पंजाब आर्थिक तथा सामाजिक संकट का सामना कर रहा है। जिनमें भारी कर्ज, बेरोजगारी, वातावरण में गिरावट, स्वास्थ्य तथा शिक्षा का निम्र स्तर, नशों का दुरुपयोग तथा भ्रष्टाचार आदि शामिल हैं। 1947 के विभाजन के बाद स्थिति इससे भी खराब थी। फिर भी 2 मुख्यमंत्रियों प्रताप सिंह कैरों, गुरनाम सिंह, डा. महिन्द्र सिंह रंधावा जैसे ईमानदार अधिकारियों तथा सबसे अधिक सक्रिय लोगों की कोशिशों से पंजाब फिर से देश का एक अग्रणी राज्य बन गया। यह जोश आज भी किसानों के आंदोलन के रूप में देखने को मिला। हमें सिर्फ जरूरत है एक साफ दूर-दृष्टि, ईमानदार तथा स्व: विश्वास रखने वाले नेताओं की।-गुरबीर सिंह


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