लापरवाह सरकार, बीमार स्वास्थ्य सेवाएं

punjabkesari.in Thursday, Apr 07, 2022 - 04:23 AM (IST)

किसी भी देश में स्वास्थ्य जनता का पहला बुनियादी अधिकार होता है। स्वस्थ नागरिक ही एक स्वस्थ व विकसित देश के निर्माणकारी तत्व होते हैं। हमारी तो सदियों से धारणा रही है कि ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’ तथा ‘जान है तो जहान है’। नि:संदेह अच्छी सेहत ही सबसे बड़ा खजाना है, जिसमें कोई भी असावधानी किसी को भी मृत्यु के करीब ले जा सकती है। 

स्वास्थ्य के महत्व की ओर बड़ी संख्या में लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में हर वर्ष 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जेनेवा में वर्ष 1948 में पहली बार विश्व स्वास्थ्य सभा रखी गई और विश्व स्वास्थ्य दिवस पहली बार 1950 में पूरे विश्व में मनाया गया। 

भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बंगलादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है। इसका खुलासा शोध एजैंसी ‘लैंसेट’ ने अपने ‘ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज’ नामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है।

विडंबना है कि आजादी के 7 दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका।सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है! ऐसे हालातों में निजी अस्पतालों का खुलना तो कुकुरमुत्तों की भांति सर्वत्र देखने को मिल रहा है। इन अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं, बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना है। लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा है कि मरीज को अपना घर, जमीन व खेत गिरवी रखने के बाद भी बैंक से लोन लेने की तकलीफ उठानी पड़ती है। 

दरअसल हमारा संविधान समस्त नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार तो देता है, लेकिन जमीनी हकीकत इसके बिल्कुल विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य जैसी अति महत्वपूर्ण सेवाएं बिना किसी विजन व नीति के चल रही हैं। ऐसे हालातों में गरीब के लिए इलाज करवाना उनकी पहुंच से बाहर होता जा रहा है। 

गौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जी.डी.पी. का सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में, अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बंगलादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है।

2015-16 और 2016-17 में स्वास्थ्य बजट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। 
देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति 1000 आबादी पर 1 डॉक्टर होना चाहिए, वहींं भारत में 7000 की आबादी पर 1 डॉक्टर है। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। 

यह भी सच है कि भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया है। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए सामान्य काम बन चुका है। यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में, जहां आज भी लोग आॢथक पिछड़ेपन के शिकार हैं, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? 

एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष 4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजैंसी ‘अन्स्र्ट एंड यंग’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं। 

इन हालातों में भारत में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है। भारत को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व जरूरी सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद की दर में बढ़ोत्तरी करनी होगी। सरकार को नि:शुल्क दवाइयों के नाम पर केवल खानापूर्ति करने से बाज आना होगा। साथ ही यह ध्यान रखना होगा कि एंबुलैंस के अभाव में किसी मरीज को अपने प्राण न गंवाने पड़ें।-देवेन्द्रराज सुथार 
 


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