शिखर से ‘ढलान’ की ओर भाजपा

punjabkesari.in Thursday, Jan 23, 2020 - 04:35 AM (IST)

राजनीति -शास्त्र में एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि समाज में शिक्षा के प्रसार, प्रति-व्यक्ति आय में इजाफा और नई तकनीकी के आमजन तक पहुंच के साथ जनता की अपेक्षाएं भी सरकारों से बढ़ती हैं और राजनीतिक दलों में अगर उन अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी नीतियां बदलने की सलाहियत और गतिशीलता न हो तो वे अपनी लोकप्रियता खोने लगते हैं। यानी राजनीतिक दलों को एक ही नीति ज्यादा दिन तक लोकप्रिय नहीं रख सकती और किसी एक नेता की स्वीकार्यता भी तब तक ही रहती है जब तक वह जन-अपेक्षाओं पर खरा उतरता रहे। 

कम्युनिस्टों के सिद्धांत एक काल के लिए तो सबसे बेहतरीन थे लेकिन उस पर दृढ़ता ही उन्हें ले डूबी। भारत में 1960 के दशक में प्रचलित व्यंग्य हुआ करता था कि ‘‘मास्को में बारिश होती है तो भारत के कम्युनिस्ट छाता तान लेते हैं’’। समूचे विश्व से इस नायाब अवधारणा के खत्म होने का कारण था उत्पादन का मोड (तरीका) और प्रकार का बदलना, नतीजतन माक्र्स-ब्रांड सर्वहारा का विलुप्त होना। 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लोकप्रियता ग्राफ  ने शायद शिखर पर पहुंच कर अब ढलान की राह पकड़ ली है क्योंकि भावनात्मक मुद्दे अब युवाओं को कम प्रभावित करने लगे हैं। देश के सबसे बड़े बैंक-स्टेट बैंक आफ इंडिया (एस.बी.आई.)  की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 16 लाख नौकरियां पिछले साल के मुकाबले घट गई हैं। ब्लूमबर्ग के आकलन के अनुसार बेरोजगारी 45 साल में सबसे अधिक बढ़ी है। सरकारी क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो बताता है कि महज सन् 2018 में 12 हजार बेरोजगार युवाओं (हर 40 मिनट पर एक) ने आत्महत्या की। महंगाई 5 साल में सबसे ज्यादा है। युवक के  हाथ पत्थर है। सरकार और भाजपा का रटारटाया जुमला है ‘‘ये विपक्ष की राजनीतिक पार्टियों द्वारा गुमराह किए गए हैं’’। 

महाराष्ट्र में दबंगई तो बिहार में बेचारगी क्यों?
इन सब के बावजूद विगत गुरुवार को बिहार के वैशाली जिले की एक जनसभा में बोलते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि बिहार में चुनाव मुख्यमंत्री और जद(यू) नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। इस वक्तव्य ने उस पुरजोर मांग पर विराम लगा दिया जो दो दिन पहले ही पार्टी के विधायक संजय पासवान के उस दावे से पनपा था कि ‘‘अगला मुख्यमंत्री उनकी पार्टी से होना चाहिए क्योंकि जनता नीतीश कुमार के थके चेहरे से ऊब चुकी है’’। उधर नीतीश कुमार लगातार नागरिकता संशोधन कानून के तहत आने वाले राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.आर.पी.) और भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एन.आर. आई.सी.) को अपने यहां लागू करने के प्रति नकारात्मक सन्देश दे रहे हैं लेकिन पूरे भाषण में शाह ने एक बार भी किसी भी रजिस्टर का जिक्र नहीं किया जबकि गए थे नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) पर लोगों को समझाने। 

झारखंड में हाल में हुए चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ कर उसे हराने में जद(यू) की भूमिका भी रही है। फिर आखिर वह कौन-सी मजबूरी है जो दुनिया के लोकतांत्रिक व्यवस्था की  सबसे बड़ी पार्टी आज बिहार में निरीह बन कर नीतीश कुमार का सजदा कर रही है और वह भी यह जानते हुए कि संजय पासवान की भावना उस राज्य में हर भाजपा कार्यकत्र्ता की भावना है। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह भी जानता है कि नीतीश की सरकार में भाजपा के मंत्रियों की कोई हैसियत नहीं रह गई है और कार्यकत्र्ताओं को जिले के स्तर पर रोजाना सरकारी अफसरों के अपमान का सामना करना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र में 50-50 के फार्मूले पर कायम न रहते हुए भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन तोड़ लिया था लेकिन बिहार में भाजपा घुटने टेकते हुए जद(यू) को बराबर सीटेंं देती है और जद(यू) के कम सीटें जीतने के  बावजूद सिंहासन भी वर्षों से उन्हीं को सौंपती रही है। फिर शिवसेना की जिद क्यों गलत थी। जद(यू)-भाजपा गठबंधन बरकरार है, लिहाजा जीत भी होगी और सरकार भी बनेगी क्योंकि विपक्ष के पास नेतृत्व का अभाव व बिखराव है लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की वास्तव में जीत होगी। राजनीतिक दल धर्मार्थ काम नहीं करते। संगठन का विस्तार और उस विस्तार से हासिल जनमत के बूते सत्ता पाना उसका मूल लक्ष्य होता है। 

ये सब अयाचित किन्तु अपरिहार्य है। बिहार विकास के हर पैरामीटर्स पर पिछले 15 साल में नीतीश कुमार का शासन (जिसमें भाजपा भी शरीक है) रसातल में रहा है और उबरने की गुंजाइश नहीं दिख रही है। ऐसे में क्या भाजपा की गैरत (अगर बड़ी पार्टियों में यह बची है) यह गवारा करती है कि यह अनैतिक रूप से गठजोड़ कर फिर सत्ता में आए और हर तीसरे दिन मुख्यमंत्री इसे इसकी हैसियत बताएं। चुनाव-विज्ञान के प्रारम्भिक छात्र भी कह सकते हैं कि जाति और धर्म में बंटे इस राज्य में अगर किसी एक पार्टी में दसियों वर्ष तक अकेले दम प्रशासन करने की क्षमता है तो वह भाजपा है। परन्तु इसे अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि उस जैसा कोई राष्ट्रीय दल जब किसी व्यक्ति या दल का साथ देता है तो उस व्यक्ति या दल का कद बढ़ जाता है। 

कालांतर में अगर बड़ी पार्टी अपना विस्तार नहीं करती तो वह छोटा दल उस स्पेस को भरने लगता है और अकर्मण्यता का ठीकरा बड़े दल के माथे फूटता है। निराश कार्यकत्र्ता समाज में रचनात्मक कार्य से अपनी स्वीकार्यता बनाने की जगह जातिवादी और साम्प्रदायिक हिंसा का सहारा लेने लगता है और इस बीच जद (यू) का जनाधार बिना कुछ किए 2.6 प्रतिशत से आज 16 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। अगर बिहार भाजपा में केरल इकाई वाला जुझारूपन होता तो सन् 2015 के लालू-नीतीश ‘‘बेमेल-लिहाजा-अस्थायी’’ गठजोड़ से दूर स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और विकास हीनता के मुद्दे पर सरकार का विरोध कर हिन्दू कार्ड खेलते हुए (क्योंकि नीतीश रणनीति के तहत मुस्लिम कार्ड खेलने के शौकीन हैं) इतनी तेजी से अपना जनाधार बना सकती थी कि नीतीश राजनीतिक परिदृश्य के हाशिए पर होते।-एन.के. सिंह 
 


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