खानपान के झगड़े और भारत को दरपेश बड़े प्रश्न

punjabkesari.in Saturday, Jun 10, 2017 - 12:13 AM (IST)

विवेकानंद और वीर सावरकर के जो भक्त गाय पर इतना उद्वेलित हो रहे हैं उन्हें समझना होगा कि केवल उत्तर भारत और वहां के एक बड़े सामाजिक वर्ग को ही समूचा भारत नहीं माना जा सकता। जैसे हिन्दी सारा हिंदुस्तान नहीं है और शेष भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान एवं आत्मीयता दिखाए बिना भारत की एकता संभव नहीं है, वैसे ही खानपान और पहनावे के बारे में उत्तर भारत के नियम कानून सारे देश पर कैसे लागू हो सकते हैं?

केरल और बेंगलूर में सार्वजनिक रूप से जिन वहशी दरिंदों ने गाय काटी निश्चित रूप से वह अक्षम्य अपराध है और यह भी सत्य है कि उनके द्वारा गाय काटना केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि भारत की काया और मन पर वैसा ही आघात है जैसा महमूद गजनवी ने सोमनाथ तोड़कर और बाबर ने राम जन्मभूमि तुड़वा कर किया था।

कोई मनुष्य इतनी पाश्विकता के साथ किसी भी पशु को मार सकता है और फिर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर एक राजनीतिक बयान दे सकता है यह पिशाचों के बारे में तो सुना होगा लेकिन मनुष्यों के बारे में यह कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों ने ऐसा उदाहरण दे दिया। इस पर आने वाली पीढिय़ां शर्म करेंगी तथा यह इतिहास में एक उदाहरण बनेगा कि एक समय भारत में ऐसा भी आया था जब कांग्रेस नाम की पार्टी के कुछ हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई कार्यकत्र्ताओं ने मिलकर प्रखर राष्ट्रीयता वाली सत्तासीन पार्टी के खिलाफ एक अमानुषिक राजनीतिक कृत्य किया था।

पर यह बात यहीं समाप्त कर अगर बहुत गुस्सा और दम है और राजनीतिक क्षमता का परिचय देने की इ‘छा है तो जिन लोगों ने ऐसा कृत्य किया है उनके विरुद्ध कार्रवाई करवाइए। आपको रोकता कौन है? खामख्वाह की बयानबाजी आपकी अपनी प्रचार की भूख को शांत भले ही कर दे लेकिन आहत हिन्दू मन पर मरहम नहीं लगा सकती।

गाय को मारने वालों में उन तमाम लोगों का भी अपराध शामिल है जो न केवल गाय को लावारिस छोड़ते हैं बल्कि गौ रक्षा के लिए सरकार की ओर ताकते हैं। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली कुछ गौशालाओं की  बात छोड़ दीजिए। वे जीवनदानी महापुरुष हैं जिनके तप और देवतुल्य गौ भक्ति के कारण उनकी गौशालाएं बड़े से बड़े मंदिर से भी बढ़कर तीर्थ स्थान बनी हैं। लेकिन बाकी जगहों का  क्या हाल है? हमारे तीर्थ गंदगी से भरे, मंदिरों में पंडों और संस्कृत से प्राय: अनभिज्ञ पंडितों की मनमानी, गाय के बछड़ों को भूखा तड़पा-तड़पा कर गाय का अधिकतम दूध निकालना और वह भी गाय को अत्यंत कष्टकारी इंजैक्शन लगा कर।

यह सब कौन कर रहा है? इसके खिलाफ कौन बोलता है? बूढ़ी और बिना दूध वालीगायों को कसाई के हाथ बेचने के लिए किसान को मजबूर कौन करता है? उसका कोई समाधान निकालने का ऐसा प्रयास हुआ कि जिससे इस व्याधि का अंत हो? असली गौ भक्ति वह है जो सार्वजनिक जीवन में गाय की सर्व स्वीकार्य प्रतिष्ठा करवाए न कि कानून हाथ में ले अथवा कानून  के सहारे एक विद्रूप एवं हारे हुए विपक्ष में जान फूंकने वाली प्रतिक्रियाएं पैदा करवाए।

अब आप बहुत ही जिद करेंगे तो किरन रिजिजू तथा बीरेन सिंह के बयानों के क्या जवाब तलाशेंगे? परमपू’य गुरुजी (रा.स्व.संघ के द्वितीय सरसंघचालक)ने उत्तर पूर्वांचल के संबंध में जो लिखा है वह बार-बार, बार-बार हमें पढऩा चाहिए। वनवासी कल्याण आश्रममें काम करते हुए मेरी यह अधिक निष्ठा बनी कि उनकीकृति ‘विचार नवनीत’ हमारे वर्तमान युगके लिए कार्यकत्र्ताओं और राष्ट्रभक्तों का उपनिषद है। उन्होंने उत्तर पूर्वांचल में कार्य, वहां की परिस्थिति की समझ तथा वहां की गायों के संबंध में जो कहा था वे हमें याद है?

और फिर वर्तमान समय की हमारी पहली आवश्यकता क्या है? हमारी वरीयताएं क्या हैं? क्या आज के समय में जो कुछ घटते दिख रहा है उसके बारे में अतीत और भविष्य के संदर्भ में हमने कोई विवेचन करने की आवश्यकता महसूस की है? या सारे विवेचन और ङ्क्षचतन शिविर जो होने थे वे हो चुके? हिन्दू जीवन पद्धति, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मूलभूत प्रश्र, प्रतिरोध की क्षमताएं एवं उसे ऊर्जा और दिशा देने वाले ऐसे बौद्धिक संस्थानों का गठनऔर सौम्य शांत संचालन जो अगले सौ दो सौ साल तक परम्परा बना सकें और बनी हुई परम्पराओं का निर्वाहकर सकें, इन सबका हमारे तात्कालिक कार्यों और देश की गरीबी, अशिक्षा एवं बौद्धिक दिवालियापन दूरकरने से सीधा संबंध है।

जिन लोगों ने पिछले 15 वर्षराष्ट्रीयता समर्थक संगठनों और व्यक्तियों को क्षण भर चैन से नहीं जिंदा रहने दिया, जो दुनिया भर के हिन्दू विरोधी एवं राष्ट्रीयता के कट्टर शत्रुओं से हर प्रकार की सहायता लेते हुए हम पर 24 घंटे शारीरिक, बौद्धिक, राजकीय मंचों से आक्रमण करते रहे, वे क्या आज राष्ट्रीयता समर्थक तत्वों की बढ़ती शक्ति को देखकर चुप रहेंगे? यह उनके जीवन-मरण का प्रश्र है और जीवन-मरण की सीमा तक जाते हुए वे हर अ‘छे-खराबरास्ते का सहारा लेकर हमारी जीती हुई बाजी को परास्त करने का अंतिम दम तक प्रयास करेंगे ही करेंगे।

गरीबी, बेकारी, पिछड़ापन हमारे सामने कितने गंभीर प्रश्र हैं या इन समस्याओं का कोई अर्थ ही नहीं है? एक ओर प्रधानमंत्री मोदी हर घर में बिजली, सौर ऊर्जा, अ‘छी रेलगाडिय़ां, राजमार्गों का निर्माण, अरुणाचल और कश्मीर में सुरक्षा की मजबूत तैयारी, महिलाओंका सशक्तिकरण और युवाओं के कौशल विकास में जुटे हैं, दूसरी ओर हम सारे हिन्दुस्तान को अपनी व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के खाने से चलाने की कवायदकर रहे हैं। देश अब ऐसे चलेगा कि किसकी थाली मेंक्या परोसा जाए अथवा आॢथक और शिक्षा की नई उड़ानों से नया भविष्य गढऩे पर ध्यान देना जरूरी समझाजाए?

ऐसी परिस्थिति में बड़े प्रश्रों के समाधान तथा स्थायी भाव से लम्बी लड़ाई के लिए जन मन तैयार करने वाले प्रतिरोधक केन्द्रों की स्थापना पर ध्यान देना ’यादा जरूरी है। लेकिन हिन्दू का स्वभाव ही है कि वह आपसी विद्वेष, घरेलू क्लेश, अहंकार, तीव्र व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के कारण संगठन के बड़े उद्देश्यों से समझौता करते हुए बड़ी छलांग को छोटे कदमों में रूपांतरित कर देता है।

यह समय है विवेकानंद को दोबारा पढऩे का और खानपान के संबंध में उनकी प्रहारक वाणी को ध्यान में रखने का। स्वामी दयानंद और वीर सावरकर को भी कभी-कभी पढ़ लिया करिए। हिंदुत्व के दर्पण पर जमे प्रपंचों तथा पाखंडों की धूल साफ होती रहेगी। लंबी दूरी के यात्री छोटे स्टेशनों पर झगड़ा कर रेलगाड़ी छोडऩे का जोखिम नहीं उठाते। र"ाू भैया बार-बार इस बात को दोहराते थे। 


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