चेतें, वरना हर मौसम में प्रकृति का रौद्र रूप झेलने को तैयार रहें

punjabkesari.in Wednesday, Aug 29, 2018 - 03:22 AM (IST)

पहली तस्वीर, दुनिया में बाढ़ से होने वाली मौतों में 20 फीसदी भारत में होती हैं। विश्व बैंक ने भी इसे कबूलते हुए चिन्ता बढ़ा दी है। इससे 2050 तक भारत की आधी आबादी के रहन-सहन के स्तर में और गिरावट होगी। इस बार पिछले 100 वर्ष के इतिहास में सबसे बड़ी तबाही केरल में हुई है। गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश  में केवल 2018 में अब तक बाढ़ और इसके हादसों में कम से कम 1000 लोगों की जान जा चुकी है।

अकेले केरल में 417 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। 29 मई से मानसून की बारिश शुरू होते ही मौतें भी शुरू हो गई थीं लेकिन 8 अगस्त से 18 अगस्त तक 265 लोग और मारे गए। अब भी 8.69 लाख लोग 2,787 राहत शिविरों में  हैं। लगभग 7000 घर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं जबकि 50,000 को आंशिक नुक्सान हुआ। सरकारी आंकड़ों को ही सच मानें तो भी भयावहता कम नहीं है। गृह मंत्रालय के नैशनल एमरजैंसी रिस्पांस सैंटर (एन.ई.आर.सी.) के 13 अगस्त तक के आंकड़ों के मुताबिक बाढ़ और बारिश से केरल में 187, उत्तर प्रदेश में 171, पश्चिम बंगाल में 170, महाराष्ट्र में 139, गुजरात में 52, असम में 45 और नागालैंड में 8 लोगों की जान गई जबकि कई लापता हैं। वहीं महाराष्ट्र के 26, असम के 23, पश्चिम बंगाल के 22, केरल के 14, उत्तर प्रदेश के 12, नागालैंड के 11 और गुजरात  के 10  जिले ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, हिमाचल के कई इलाकों का बुरा हाल है।

दूसरी तस्वीर, पृथ्वी पर 150 लाख वर्ग कि.मी. में केवल 10 प्रतिशत हिमखंड बचे हैं जो कभी 32 प्रतिशत भू-भाग तथा 30 प्रतिशत समुद्री क्षेत्रों में था और हिमयुग कहलाता था। सबसे बड़े ग्लेशियर सियाचिन के अलावा गंगोत्री, पिंडारी, जेमु,  मिलम, नमीक, काफनी, रोहतांग, व्यास कुंड, चंद्रा, पंचचुली, सोनापानी, ढ़ाका, भागा, पार्वती, शीरवाली, चीता काठा, कांगतो, नन्दा देवी शृंखला, दरांग, जैका आदि अनेक हिमखंड हैं। इनके प्रभाव से गर्मियों में जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचल, अरुणाचल में सुहाने मौसम का लुत्फ  मिलता है लेकिन यहां भी पर्यावरण विरोधी इन्सानी हरकतों ने जबरदस्त असर दिखाया। 

तीसरी तस्वीर, अंग्रेजों ने दामोदर नदी को नियंत्रित करने की खातिर 1854 में उसके दोनों ओर बांध बनवाए लेकिन 1869 में ही तोड़ भी दिए क्योंकि वे समझ चुके थे कि प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं। अंग्रेजों ने फिर आखिर तक किसी नदी को बांधने का प्रयास नहीं किया। कम ही लोगों को पता होगा कि फरक्का बैराज और दामोदर घाटी परियोजना के विरोधी एक विलक्षण प्रतिभाशाली इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य थे। योजना की रूपरेखा आते ही 40 वर्ष पहले ही उन्होंने वे प्रभावी और अकाट्य तर्क दिए कि उसका खंडन कोई नहीं कर सका अलबत्ता उन्हें बर्खास्त जरूर कर दिया गया। अब उनकी बातें, हू-ब-हू सच हो रही हैं। उन्होंने लेख लिखकर चेताया था कि दामोदर परियोजना से पश्चिम बंगाल के पानी को निकालने वाली हुगली प्रभावित होगी, भयंकर बाढ़ आएगी, कलकत्ता बंदरगाह पर बड़े जलपोत नहीं आ पाएंगे। नदी के मुहाने जमने वाली मिट्टी साफ नहीं हो पाएगी, गाद जमेगी, जहां-तहां टापू बनेंगे। दो-तीन दिन चलने वाली बाढ़ महीनों रहेगी। सारा सच साबित हुआ बल्कि स्थितियां और भी बदतर हुईं। 

1971-72 में फरक्का बांध के बनते ही बैराज द्वारा सूखे दिनों में गंगा का प्रवाह मद्धम पडऩे से नदी में मिट्टी भरने लगी। फलत: कटान से नदी का रुख बदला। गंगा का पानी कहीं तो जाना था सो बिहार, उत्तर प्रदेश के तटीय क्षेत्रों को चपेट में ले लिया। उधर मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में सोन नदी पर बाणसागर बांध बना। तयशुदा पन-बिजली तो नहीं बनी अलबत्ता हर औसत बरसात में मध्य प्रदेश, बिहार, जम्मू-कश्मीर व उत्तर प्रदेश के कई इलाके बाढ़ के मंजर से जूझने लगे जबकि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़ की वजह, बीते दशक में ताबड़तोड़ पन-बिजली परियोजनाएं, बांधों, सड़कों, होटलों का निर्माण और कटते जंगल हैं। 

वर्षा की अधिकता वाले जंगलों की अंधाधुंध कटाई से पराबैंगनी विकिरण को सोखने और छोडऩे का संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। प्रतिवर्ष लगभग 73 लाख हैक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं। ज्यादा रासायनिक खाद और अत्यधिक चारा कटने से मिट्टी की सेहत अलग बिगड़ रही है। जंगली और समुद्री जीवों का अंधाधुंध शिकार भी संतुलन बिगाड़ता है। बाकी कसर जनसंख्या विस्फोट ने पूरी कर दी। 20वीं सदी में दुनिया की जनसंख्या लगभग 1.7 अरब थी, अब 6 गुना ज्यादा 7.5 अरब है। जल्दी काबू नहीं पाया तो 2050 तक 10 अरब पार कर जाएगी। धरती का क्षेत्रफल तो बढ़ेगा नहीं, सो उपलब्ध संसाधनों के लिए होड़ मचेगी जिससे पर्यावरण की सेहत पर चोट स्वाभाविक है। 

विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बड़े-बड़े बांधों में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिनमें अनुमानित विस्थापितों की संख्या जहां दोगुने से भी ज्यादा है, वहीं दक्षता, सहभागी निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी जैसे पांच बुनियादी सिद्धांतों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के साथ ही बांध के दूसरे सारे विकल्पों की भली-भांति जरूरी जांच सवालों में हैं। योजनाओं को बनाने वाले ब्यूरोक्रेट्स तो सालों साल वही रहेंगे लेकिन उनको अमलीजामा पहनाने वाले जनतंत्र के डैमोक्रेट्स क्या अगली बार होंगे? ज्यादातर जनप्रतिनिधियों को रीति-नीति, सिद्धांतों और बाद के प्रभावों से क्या लेना-देना! तभी तो आंखें मूंदे बिना अध्ययन या विचार को सब स्वीकार लेते हैं। माना कि प्राकृतिक आपदा पर पूरी तरह अंकुश नामुमकिन है लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति के साथ इंसानी क्रूर हरकतें बेतहाशा बढ़ रही हैं। अभी भी वक्त है सभी को चेतना होगा वरना हर मौसम में प्रकृति के अलग रौद्र रूप को झेलने के लिए तैयार रहना होगा।-ऋतुपर्ण दवे


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Pardeep

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