मुकद्दमों के भारी बोझ तले दब रही है सी.बी.आई.

punjabkesari.in Thursday, Oct 01, 2015 - 01:26 AM (IST)

सी.बी.आई. (सैंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवैस्टीगेशन) देश की सबसे बड़ी एवं प्रमुख जांच एजैंसी है। इसे जटिल दीवानी तथा फौजदारी आपराधिक मामले निष्पक्ष और आधिकारिक जांच के लिए सौंपे जाते हैं। परन्तु लगातार चली आ रही स्टाफ की कमी और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते यह संतोषजनक ढंग से काम करने में असफल और हजारों लंबित मामलों के बोझ तले दबी हुई है। सरकार ने 31 मई 2014 को बताया था कि इसके पास अकेले भ्रष्टाचार के ही 6562 मामले लंबित हैं तथा हर साल 1200 नए केस आ रहे हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि ‘‘सी.बी.आई. द्वारा अपने विभाग में स्टाफ की कमी क्यों पूरी नहीं की जाती, यह पता लगाने के लिए भी क्या जांच बिठाने की जरूरत है?’’
 
सी.बी.आई. के इस कथन पर कि उसके पास व्यापमं घोटाले की जांच करने के लिए पर्याप्त स्टाफ नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा ‘‘आप अपने विभाग में स्टाफ की कमी पूरी करने के लिए कोई पग ही नहीं उठाते और जब भी हम आपको किसी मामले की जांच का आदेश देते हैं तो आप हाथ खड़े कर देते हैं। यह आपके निकम्मेपन का प्रमाण है।’’  
 
सी.बी.आई. ने स्टाफ की कमी बारे अदालत में स्वीकार किया है कि 1963 के बाद इसने अपने काडर में कोई व्यापक संशोधन नहीं किया और डैपुटेशन के अधिकारियों से ही काम चला रही है तथा समय-समय पर आने वाली सरकारें अपने निहित स्वार्थों के कारण इसमें नई भर्ती की अनुमति नहीं दे रहीं। 
 
1999 के बाद से अभी तक सी.बी.आई. में एक भी डी.एस.पी. तक की सीधी भर्ती नहीं की गई है। अफसरशाही की उदासीनता भी स्टाफ की कमी पूरी करने में बहुत बड़ी बाधा है। 
 
एग्जीक्यूटिव रैंक के स्वीकृत 4544 अधिकारियों में से इस समय सी.बी.आई. के पास 3965 अधिकारी ही हैं। यदि इन आसामियों को भर भी दिया जाए तो भी सी.बी.आई. के पास काम इतना अधिक है कि यह संख्या भी कम पड़ेगी। अकेले व्यापमं घोटाले से संबंधित मामलों की संख्या ही 2012 है और इसमें 2800 अभियुक्त संलिप्त हैं जिनमें से 500 फरार हैं। 
 
जहां सी.बी.आई. को अनेक मामलों की जांच में ढिलाई बरतने के लिए विभिन्न अदालतों की फटकार सुननी पड़ती है, वहीं हाई प्रोफाइल मामलों की जांच की रफ्तार तो बहुत ही धीमी है। इसके पास 4 वर्षों में केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, राज्य तथा केंद्र के पूर्व मंत्रियों के विरुद्ध कुल 45 मामले आए और इनमें से कोई भी मामला अपने अंजाम तक नहीं पहुंचा। 
 
इस संकट के पीछे सी.बी.आई. के अपने काडर (स्टाफ) तथा इसमें डैपुटेशन पर भेजे गए अधिकारियों का आपसी टकराव भी एक  कारण है, जो समस्या के स्थायी हल की बजाय टालू तरीके अपनाते हैं।
 
सी.बी.आई. में नाममात्र ही सीधी भर्ती की जाती है तथा बाकी स्टाफ राज्यों के पुलिस विभागों से डैपुटेशन पर लिया जाता है। इस समय कांस्टेबल स्तर के 60 प्रतिशत कर्मचारी व बड़ी संख्या में हैड कांस्टेबल, ए.एस.आई., इंस्पैक्टर, डी.एस.पी., अतिरिक्त एस.पी., एस.पी., डी.आई.जी. और ज्वाइंट डायरैक्टर स्तर के अधिकारी भी डैपुटेशन पर ही हैं। 
 
इसी कारण सी.बी.आई. के कामकाज के बारे में 2013 में एक संसदीय समिति ने डैपुटेशन वाले अधिकारियों पर अत्यधिक निर्भरता के लिए सी.बी.आई. की कड़ी आलोचना की थी। 
 
सी.बी.आई. में कांस्टेबलों व इंस्पैक्टरों के वेतन अधिक होने के बावजूद राज्य पुलिस के कर्मचारी यहां डैपुटेशन पर नहीं आना चाहते क्योंकि बड़े शहरों में तैनाती के कारण उनके खर्चे व दूसरी कठिनाइयां बढ़ जाती हैं। राज्य सरकारें अपना स्टाफ सी.बी.आई. को देने में भी आनाकानी करती हैं। 
 
इस कारण लंबित मामलों का ढेर भी बढ़ता चला जा रहा है तथा महत्वपूर्ण मामले भी फाइलों में ही दबते चले जा रहे हैं। इससे न सिर्फ जांच में विलम्ब हो रहा है बल्कि पीड़ित पक्ष न्याय से वंचित हो रहा है और सी.बी.आई. की बदनामी हो रही है।
 
यही नहीं, जिस तरह इसके अधिकारियों ने 26 सितम्बर को हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की बेटी की शादी के दिन उनके परिसरों पर छापे मार कर विभाग की हेठी करवाई है उससे स्पष्टï है कि सी.बी.आई. के कर्ताधर्ता गलत निर्णय लेकर विभाग की फजीहत का कारण भी बन रहे हैं।  

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