संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और भारत

punjabkesari.in Monday, Sep 28, 2015 - 03:24 AM (IST)

हालांकि भारतीय राजनीतिक विश्लेषकों तथा जसवंत सिंह जैसे भाजपा के नेताओं ने पहले से ही मोदी सरकार द्वारा सुरक्षा परिषद की सदस्यता की प्रक्रिया में सुधार की पहल के लिए आलोचना शुरू कर दी है, सुरक्षा परिषद में अधिक स्थायी सदस्यों को शामिल करने के लिए बदलाव नि:संदेह एक लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया है क्योंकि इसके स्थायी सदस्य अमरीका, इंगलैंड, फ्रांस, चीन और रूस शायद ही यह चाहेंगे कि कोई उनके विशेष दर्जे में हिस्सेदारी करे। 

इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि यह सदस्यता किसी भी देश की शक्ति का एक प्रतीक है बल्कि यह भी है कि इससे उन देशों को अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति करने और अपने समर्थक देशों की नीतियों का समर्थन करने में सहायता मिलती है।
 
इन परिस्थितियों में तत्काल परिणाम की आशा करना और पहले ही संयुक्त राष्ट की स्थायी सदस्यता के लाभ उठा रहे देशों के अधिकारों में भागीदारी की उम्मीद करना समय से बहुत पहले की बात होगी। अभी सदस्यता प्रक्रिया में सुधार संबंधी एक प्रस्ताव ही सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों द्वारा पारित करने के लिए वितरित किया गया है तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा के दो-तिहाई सदस्यों को इसके पक्ष में मतदान करना होगा। 
 
अपने भाषण में बान-की-मून ने कहा है कि संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद में सुधारों के संबंध में 2 दशक से बहस हो रही है और इन सुधारों को बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था और इसमें आवश्यक विस्तार अनिवार्यत: इन सब बातों को देखते हुए किया जाना चाहिए कि अब तक संसार में कितना बदलाव आया है। 
 
हालांकि संयुक्त राष्ट में सुधारों संबंधी अन्य अनेक बदलावों का भी प्रस्ताव किया गया है परंतु इनमें से एक बड़ा बदलाव जी-4 समूह के देशों अर्थात ब्राजील, जर्मनी, भारत और जापान को प्रवेश देने के संबंध में है जो परस्पर एक-दूसरे द्वारा स्थायी सदस्यता के दावे का समर्थन करते हैं और जिन्हें अधिकांशत: फ्रांस और इंगलैंड का समर्थन प्राप्त है।  
 
संयुक्त राष्ट की राजदूत सामंथा पावर के अनुसार हालांकि अमरीका संयुक्त राष्ट के स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार के सदस्यों में उचित विस्तार के लिए सहमत है परंतु संयुक्त राष्ट के खर्चे को चलाने में भागीदारी पर सहमति अनिवार्य रूप से इसका एकमात्र मापदंड होनी चाहिए और वे वीटो के भी विरुद्ध हैं। 
 
बेशक रूस तीन दशकों से सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के दावे का समर्थन करता आ रहा है लेकिन उसने संयुक्त राष्टï्र में सुरक्षा परिषद के वर्तमान सदस्यों के वीटो संबंधी अधिकार को इसमें किए जाने वाले किसी भी बदलाव के मामले में सुरक्षित रखने की बात कही है। 
 
यही नहीं इसने अफ्रीका और लातिनी अमरीका से और अधिक देशों को इसमें शामिल करने का भी समर्थन किया है। निॢववाद रूप से सुरक्षा परिषद में वीटो के अधिकार से सम्पन्न जर्मनी की उपस्थिति उक्रेन तथा अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों में रूस के प्रभाव को सीमित कर देगी जबकि चीन भी भारत और जापान जैसे किसी अन्य एशियाई देश की वीटो के अधिकार में भागीदारी नहीं चाहता और सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के अलावा जी-4 समूह के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी और आॢथक प्रतिस्पर्धी भी बदलाव के इस प्रारूप पर विचार करने के विरोधी हैं। 
 
इटली और स्पेन (जर्मनी के विरोधी) मैक्सिको, कोलंबिया और अर्जेंटीना (ब्राजील के विरोधी), पाकिस्तान (भारत का विरोधी) और दक्षिण कोरिया (जापान का विरोधी) के अलावा तुर्की और इंडोनेशिया इस समूह का नेतृत्व कर रहे हैं। इन समूहों को कॉफी क्लब अथवा आम राय के लिए इकठ्ठे होने वाले कहा जाता है जिन्होंने जी-4 को सुरक्षा परिषद में जाने से रोकने के लिए अनुभवहीनता, आर्थिक सहायता जैसी अनेक आपत्तियां रखी हैं। 
 
हालांकि 1992 से ही अमरीका के बाद जापान और जर्मनी संयुक्त राष्ट्र को सर्वाधिक आर्थिक सहायता देने वाले दूसरे और तीसरे सबसे बड़े दानी बन गए हैं तथा भारत संयुक्त राष्ट के सबसे पहले सदस्यों में से एक है जिसने हमेशा अपनी सेनाएं संयुक्त राष्ट शांति सेना के रूप में काम करने के लिए भेजी हैं और इस समय भी भारत के एक लाख सैनिक संयुक्त राष्टर के मिशन पर काम कर रहे हैं जोकि संयुक्त राष्ट के सुरक्षा परिषद के किसी भी सदस्य देश से अधिक हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि भारत विश्व की कुल जनसंख्या के पांचवें भाग का प्रतिनिधित्व करता है और ब्राजील भी क्षेत्रफल के हिसाब से पांचवां सबसे बड़ा देश है। 
 
ऐसे में जी-4 समूह के अन्य देशों के साथ भारत संयुक्त राष्ट की 70वीं बैठक में जो कुछ भी हासिल कर सकेगा वह सही दिशा में आगे की ओर एक कदम होगा। 

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