क्या प्रधानमंत्री को ‘चीन यात्रा’ करनी चाहिए

punjabkesari.in Wednesday, Mar 04, 2015 - 12:51 AM (IST)

(कुलदीप नैयर) गजब का घमंड है चीन का। इसने पेइचिंग में भारत के राजदूत को बुलाया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर अपनी नाराजगी जाहिर की। यह क्षेत्र भारत का हिस्सा है। भरोसा करने लायक सैनिक ताकत आ जाने के बाद भी कुछ साल पहले तक चीन ने कभी भी इस पर अपना अधिकार नहीं जताया।

पेइचिंग ने हमारे राजदूत अशोक कंठ से कहा कि मोदी की यात्रा ने चीन की क्षेत्रीय प्रभुता के अधिकार और हितों को नुक्सान पहुंचाया है। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं कि चीन की यात्रा करने वाले अरुणाचल के लोगों के वीजा को पेइचिंग ने नत्थी करना शुरू कर दिया था ताकि यह क्षेत्र ‘अलग’ क्षेत्र लगे मानो यह भारत का हिस्सा नहीं हो। नई दिल्ली ने इस बेइज्जती को उस समय खामोशी से सह लिया और भारतीय प्रधानमंत्री के अपने ही देश के एक हिस्से की यात्रा करने के बाद भी ऐसा ही करना पड़ा है लेकिन यह पहली बार हुआ है कि पेइचिंग ने अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जाहिर कीहै।

पहले चीन अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा बताने वाले नक्शों को बिना किसी एतराज के मान चुका है। अभी तक अरुणाचल और चीन की सीमा के बीच एक छोटे से क्षेत्र को लेकर ही विवाद रहा है। अरुणाचल प्रदेश की स्थिति पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता रहा है।

यह भी घमंड का एक उदाहरण ही है कि इतने महत्वपूर्ण संदेश को चीन के उप-विदेश मंत्री लियू झेमिन के जरिए भिजवाया गया है। उन्होंने कहा है कि मोदी की यात्रा ने चीन की क्षेत्रीय प्रभुता के अधिकार और हितों को कमजोर किया है। भारत की तरफ से ऐसा व्यवहार दोनों देशों के बीच सीमा के मुद्दे पर मतभेद को बनावटी ढंग से बढ़ावा देता है और इस मुद्दे पर उचित ढंग से विचार के बाद दोनों देशों के बीच तय हुए सिद्धांत और इस पर बनी सहमति के खिलाफ जाता है।

अभी तक नई दिल्ली इस देश की आलोचना का सामना मजबूती से कर रही है। नई दिल्ली ने यहां तक कह कर उचित ही किया कि प्रधानमंत्री फिर अरुणाचल जाएंगे। संदेश और भी साफ होता अगर नई दिल्ली इस यात्रा की तारीख भी घोषित कर देती। सच है, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम पहले ही तय करने होते हैं लेकिन समस्या के महत्व को देखते हुए कुछ अलग भी किया जा सकता था। इससे संदेश ज्यादा स्पष्ट हो गया होता।

वास्तव में, अगर सरकार नहीं भी तो भाजपा को यह बहस शुरू करानी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री को अपने तय कार्यक्रम के अनुसार मई में चीन जाना चाहिए या नहीं और देश की नाराजगी और इसकी चिंता को रखना चाहिए। चीन को यह महसूस कराना चाहिए कि भारत को हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता है।

अगर रद्द नहीं भी तो प्रधानमंत्री की यात्रा रोक दी जाती है तो शायद नई दिल्ली को ज्यादा हंगामा नहीं झेलना पड़ता। लेकिन चीन ने भारत को इस हद तक उकसाया है कि भारत इस यात्रा पर फिर से विचार कर नहीं सकता है। चीन को उसके घमंड का जवाब मिलना चाहिए।

क्षेत्र से संबंधित मामलों का संबंध भारत की संप्रभुता से है और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी को जल्द ही कोई मौका ढूंढना चाहिए ताकि वह चीन को बता सकें कि क्षेत्रीय अखंडता नई दिल्ली और पेइचिंग के बीच के संबंधों पर निर्भर नहीं है। वास्तव में यह इसका उलटा है। क्षेत्रीय संप्रभुता के बारे में एक-दूसरे की भावनाओं को लेकर एक राय बनाने से ही चीन-भारत संबंधों में सुधार आ सकता है। उत्तर-पूर्व में भारतीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा चीन के कब्जे में है।

चीन के विस्तारवाद के बारे में भारत का संदेह सही था क्योंकि भारत उसके विश्वासघात का शिकार रहा है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखे गए एक पत्र में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘‘अगर हम दुनिया के राष्ट्रों के बीच वास्तविक शांति और सहयोग स्थापित नहीं कर सकते, हम दूसरी बड़ी चीज-बड़े युद्धों को टालने का प्रयास-इस उम्मीद के साथ कर सकते हैं कि दुनिया को बाद में कभी शांतिपूर्ण समाधान पर पहुंचने का अवसर मिलेगा।’’

‘‘लेकिन अगर युद्ध शुरू हो जाता है तो हम इससे अलग रह सकते हैं। यह एक उपलब्धि होगी कि पृथ्वी का एक हिस्सा दुनिया के बड़े मुल्कों के बीच के संघर्ष से बाहर रहता है। यही वजह है कि हमने दुनिया की दो महाशक्तियों के गुटों में शामिल होने से इंकार कर दिया है और यही कारण है कि मध्य-पूर्व रक्षा संगठन या दक्षिण-पूर्व एशिया के किसी संगठन में शामिल होने के लिए हम राजी नहीं हो रहे हैं...हम अब से युद्ध के माहौल में रहने लगे हैं और चाहते हैं कि बहुत से देशों की पूरी ऊर्जा युद्ध का सामान बनाने में लगे।’’

फिर भी, नेहरू एक ऐसे आदमी थे जो युद्ध को उस समय टाल सकते थे और उन्होंने ऐसा किया। मोदी दुनिया में ऐसी हैसियत नहीं रखते हैं और न उनके पास दृष्टि है। लेकिन वह इसे रोकने की स्थिति में हैं, अपने नए बने मित्र राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ मिल कर। दुनिया के मामलों में अपना दखल बढ़ाने की चीन की महत्वाकांक्षा कोई नई बात नहीं है। वह सदैव सुल्तान बनना चाहता है और दुनिया को अपना दरबार बनाना चाहता है। मुझे याद है कि पेइचिंग में सेना के पूर्व जनरल कितना गुस्सा हो गए थे जब हमने भारतीय इलाकों के अभी भी चीन के कब्जे में होने का मामला उठाया था। उनका जवाब आक्रामक था जब उन्होंने कहा, ‘‘हमने 1962 में जो सबक सिखाया था उसे आप भूल गए।’’

तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में मान्यता देकर नेहरू ने भूल की। शायद उन्होंने ऐसा सोचा कि ऐसा करके वह पेइचिंग से संंबंध मजबूत कर लेंगे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई दुनिया में अपनी पहचान बढ़ाने के लिए नेहरू के सम्पर्क का लाभ उठाना चाहते थे। जब यह कामसध गया तो उस समय उन्होंने अपना असली चेहरा दिखा दिया जब उन्होंने 1962 में भारत पर हमला किया।

हर तरह से हमारा चीन से अच्छा रिश्ता होना चाहिए, लेकिन अपने क्षेत्र की कीमत पर नहीं। मोदी की यात्रा का क्या फायदा जब चीन अरुणाचल प्रदेश को हमारे हिस्से के रूप में मान्यता नहीं देना चाहता है? अभी भी देर नहीं हुई है कि चीन को यह महसूस कराया जाए कि अरुणाचल प्रदेश को हमारे देश का अभिन्न हिस्सा नहीं मान कर और हमारी बेइज्जती करके वह निकल नहीं सकता।

भारत और चीन के संबंध क्षेत्र में शांति के लिए महत्वपूर्ण हैं लेकिन चीन को भी उतना ही गंभीर होना चाहिए जितना भारत है लेकिन ऐसा लगता है, कि चीन खुद को ताकतवर मान कर बातचीत करना चाहता है और देखना चाहता है कि भारत को चारों ओर से कैसे घेरा जाए। इसने नेपाल को दिल खोल कर सहायता दी है और श्रीलंका में बंदरगाह बनाने के काम में लगा है। पेइचिंग म्यांमार को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश में है।

भारत अंतिम देश होगा जो अपने पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते पर एतराज करे लेकिन मंशा अगर इसका इस्तेमाल नई दिल्ली पर दबाव बनाने के लिए करने की है तो इससे बुरे इरादे की बू आती है। इसमें दोस्ती नहीं झलकती है जिसे भारत बढ़ाना चाहता है।   


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