अकाली-भाजपा नेतृत्व को ‘आत्म-मंथन’ की जरूरत

punjabkesari.in Sunday, Mar 01, 2015 - 04:02 AM (IST)

(बी.के. चम) कभी-कभार तात्कालिक महत्व वाले घटनाक्रम उन मुद्दों पर हावी हो जाते हैं जिनके बहुत दूरगामी और व्यापक परिणाम हो सकते हैं। ऐसा ही एक घटनाक्रम है गत सप्ताह के नगर परिषद व नगर पंचायत चुनावों में अकाली-भाजपा गठबंधन की झाड़ू फेर जीत जबकि नगर निगम चुनाव में इसकी कारगुजारी अपेक्षाकृत कम प्रभावी रही है। दूसरा घटनाक्रम है 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के मद्देनजर केन्द्र सरकार द्वारा केन्द्रीय करों में राज्यों का हिस्सा 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत किया जाना।

गठबंधन सहयोगियों की अपनी चुनावी जीत पर हर्षोल्लास मनाना दो कारणों से न्यायसंगत है। पहला है, ताजा अतीत में उनके मध्य खाई बढऩे के बावजूद उनकी प्रभावशाली जीत और दोनों पार्टियों के बीच तथा उनके अंदर विरोधों व टकरावों के चलते बागी उम्मीदवारों का केवल कुछ स्थानों को छोड़कर आधिकारिक उम्मीदवारों को कोई जबरदस्त नुक्सान पहुंचाने में असफल रहना। दूसरा कारण है, परिषद और नगर पंचायत चुनाव में कांग्रेस की शर्मनाक पराजय, बेशक निगम चुनाव में इसकी इतनी बुरी दुर्गति नहीं हुई।

सत्तारूढ़ गठबंधन से संबंधित जो आशावादी लोग स्थानीय निकायों के चुनावी नतीजों को 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव का ‘सैमीफाइनल’ मानते हैं, वे बहुत भारी गलती कर रहे हैं। लोकतंत्र में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों को असैंबली व लोकसभा चुनाव के नतीजों की भविष्यवाणी का बैरोमीटर मानना राजनीतिक अनाड़ीपन की निशानी है। स्थानीय निकायों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं जिनमें व्यक्तिगत सम्पर्क और ग्रुपबाजी कुंजीवत भूमिका अदा करते हैं जबकि लोकसभा व विधानसभा चुनाव में व्यापक राजनीतिक व वैचारिक मुद्दे ही आमतौर पर भाग्य का निर्णय करते हैं। यदि चुनाव लड़ रही पार्टी या नेता के पक्ष में कोई लहर न हो तो लोकसभा व विधानसभा के परिणाम आमतौर पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।

उदाहरण के तौर पर 2007 में यह व्यापक रूप में माना जा रहा था कि प्रकाश सिंह बादल नीत अकाली-भाजपा सरकार के विरुद्ध ‘एंटी-इन्कम्बैंसी’ के चलते कांग्रेस पार्टी का जीतना तय है। फिर भी ऐसा नहीं हुआ था। मुख्य कारण था कांग्रेस नेतृत्व का ढिलमुल रवैया जिसके कारण पार्टी ने चुनाव अभियान मजबूती से नहीं चलाया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की झोली दिल्ली में पूरी तरह खाली रह गई थी लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में इसने  70 में से 67 सीटें हासिल करके जीत दर्ज की।

क्या 2017 में इसकी पुनरावृत्ति हो पाएगी? यह काफी हद तक 3 बातों पर निर्भर करेगा : (1) कांग्रेस, जो वर्तमान में एक प्रकार से मरणासन्न स्थिति में है, का राजनीतिक स्वास्थ्य। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में शर्मनाक पराजय ने कांग्रेस के अंदर अंतर्कलह, गुटबाजी और नेतृत्व का संकट छेड़ दिया है जिससे पार्टी के अंदर न केवल व्यापक रूप में हतोत्साह पैदा हुआ है बल्कि नेतृत्व का संकट भी पैदा हो गया है। बेशक फिलहाल कोई भविष्यवाणी करना कठिन है,  फिर भी यदि 2017 तक कांग्रेस अपनी कमजोरी में से उबर पाती है और प्रभावी नेतृत्व व मजबूत संगठनात्मक ढांचा उपलब्ध करवा पाती है तो पंजाब की राजनीतिक स्थिति में आधारभूत बदलाव आ सकता है। (2) अकाली-भाजपा रिश्तों की स्थिति। (3) लोकसभा और उसके बाद हुए असैंबली चुनावों में भाजपा को जीत दिलाने वाले ‘मोदी फैक्टर’ की वैधता जोकि अब मंद पड़ती जा रही है। क्या यह अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर पाएगा?

सांप-सीढ़ी के खेल की तरह राजनीतिक खिलाडिय़ों का भाग्य भी उतार-चढ़ाव का शिकार होता है। जब मोदी नीत सरकार ने कार्यभार संभाला तो अकाली नेतृत्व की भी इस उम्मीद से बांछें खिल गई थीं कि अब केन्द्रीय प्रशासन में उसकी पूछताछ बढ़ जाएगी। मोदी के सत्तासीन होने का पूर्वानुमान लगाते हुए और पंजाब के बदतरीन वित्तीय संकट व अन्य समस्याओं में से पंजाब सरकार को उबारने की उम्मीद पर इसने मोदी का स्तुतिगान शुरू कर दिया। सितम्बर, 2013 में अपने गांधीनगर दौरे के दौरान प्रकाश सिंह बादल ने मोदी को देश का ‘सबसे बड़ा नेता’ और ‘सरदार’ करार दिया था।

फिर भी मोदी नीत सरकार ने अकाली नेतृत्व की आशावादी उमंगों पर पानी फेर दिया। केन्द्र अभी तक बादल सरकार को इसके जबरदस्त वित्तीय संकट में से उबारने और गवर्नैंस से संबंधित समस्याओं का हल करने में सहायता देने में असफल रहा है। मोदी सरकार ने केन्द्र-प्रायोजित योजनाओं के अंतर्गत तब तक और फंड जारी करने से इंकार कर दिया है जब तक राज्य सरकार पूर्व निर्धारित योजनाओं के लिए पहले दिए जा चुके फंड के उपयोग को न्यायोचित नहीं ठहराती। केन्द्र सरकार की इस मांग पर सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाना बादल सरकार के लिए बहुत कठिन होगा क्योंकि यह अनेक सरकारी स्कीमों का पैसा अन्यत्र उद्देश्यों पर लगाती रही है। अब बादल ने मांग की है कि राज्यों के लिए केन्द्र प्रायोजित योजनाओं के अंतर्गत दिया जाने वाला फंड सीधे राज्यों को जारी किया जाए और इसके साथ कोई शर्तें न जोड़़ी जाएं।

राज्यों पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों से बेखबर राजनीतिक दल अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अव्यावहारिक लोकलुभावन नीतियों का अनुसरण करते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि सरकारी खजाने पर प्रतिवर्ष 6 हजार करोड़ रुपए बोझ पडऩे के बावजूद अकाली नेतृत्व कृषि क्षेत्र को मुफ्त बिजली आपूर्ति करने पर कृत संकल्प है जबकि अनेक स्तरों पर इसका व्यापक विरोध हो रहा है और यहां तक कि हाईकोर्ट के जज ने भी इसकी आलोचना की है। हाल ही के एक मामले में माननीय जज ने पंजाब सरकार को  लताड़ लगाई : ‘‘आप द्वारा दी जा रही मुफ्त बिजली अमीर किसानों द्वारा अपने फार्म हाऊसों में एयर कंडीशनर और रैफ्रीजिरेटर चलाने के लिए प्रयुक्त की जा रही है।’’

जितना बुरी तरह पंजाब का वित्तीय तौर पर कचूमर निकल रहा है उतना ही गवर्नैंस का भी बुरा हाल है। सरकारी कर्मचारियों के कई वर्गों को समय पर वेतन और पैंशन नहीं मिलती। विश्वविद्यालयों सहित सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों को वित्तीय संसाधनों की भारी कमी से जूझना पड़ रहा है लेकिन उन्हें कई महीनों तक फंड जारी नहीं किए जाते। शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्रों का आधारभूत ढांचा बदहाल है। सरकारी डिस्पैंसरियों में स्टाफ की कमी है। प्रभावी सत्तारूढ़ नेताओं के चुनावी क्षेत्रों को छोड़ कर अन्य स्थानों पर स्थित डिस्पैंसरियों को गरीब लोगों के लिए आवश्यक दवाइयां तक सप्लाई नहीं की जातीं।

इन कमियों को तो भूल जाएं क्योंकि ये तो आम आदमी को ही प्रभावित करती हैं। सत्तारूढ़ नेतृत्व जिस विकास एजैंडे का ढोल पीटता है उसको अमलीजामा पहनाने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। एक लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक द्वारा प्रकाशित एक खोज रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि औद्योगिक वृद्धि दर तेजी से घट रही है और राज्य में से बड़े पैमाने पर उद्योग पलायन कर रहे हैं।

पंजाब के सबसे बड़े ‘स्टील टाऊन’ मंडी गोबिन्दगढ़ में काम लगभग ठप्प हो गया है और केवल मुट्ठी भर स्टील रोङ्क्षलग मिल्ज व भट्ठियां ही आंशिक रूप में कार्यरत हैं। कपड़ा उद्योग के लिए विश्वविख्यात केन्द्र लुधियाना में कताई मिलें तेजी से अन्य राज्यों की ओर स्थानांतरण कर रही हैं खास तौर पर मध्य प्रदेश की ओर। देश में खेल उत्पादों के प्रमुख विनिर्माता जालंधर के उद्योग मेरठ की ओर जा रहे हैं।

तात्कालिक प्रासंगिकता वाले ये घटनाक्रम उन मुद्दों पर केतु छाया की तरह हावी हो गए हैं जिनके दूरगामी व व्यापक परिणाम होने की संभावना है। इस प्रक्रिया दौरान इन्होंने जनमानस में व्यापक असंतोष पैदा किया है। पंजाब का सत्तारूढ़ नेतृत्व शायद ऐसा मान रहा है कि ‘‘असंतोष ही प्रगति की प्रथम आवश्यकता है।’’ इसे आत्ममंथन करना चाहिए और पंजाब के वित्तीय, औद्योगिक, कृषि एवं गवर्नैंस स्वास्थ्य को सामान्य स्तर पर बहाल करने के लिए दुरुस्ती भरे कदम उठाने चाहिएं।


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