जयंती नटराजन ने किया कांग्रेस के ‘डूबते जहाज में एक और छेद’

punjabkesari.in Monday, Feb 02, 2015 - 04:50 AM (IST)

(विनीत नारायण) कांग्रेस के डूबते जहाज में जयंती नटराजन ने एक और छेद कर दिया। कांग्रेसी इसे नमक हरामी कहेंगे क्योंकि जयंती नटराजन बिना लोकसभा चुनाव लड़े आलाकमान की कृपा से राज्यसभा सांसद व मंत्री बनती रही हैं। इसलिए अब अचानक जागा उनका यह वैराग्य कांग्रेसियों की समझ से परे है। उन्हें भी दिख रहा है कि जयंती नटराजन ने यह कदम राहुल गांधी से अपने सैद्धांतिक मतभेद के कारण नहीं उठाया बल्कि तमिलनाडु की राजनीति को मद्देनजर रख कर उठाया है। तमिलनाडु में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होने हैं। कांग्रेस वहां अपना बचा-खुचा जनाधार भी खो चुकी है। अब कहीं से राज्यसभा की सीट ले पाना कांग्रेस में रहते हुए जयंती नटराजन के लिए संभव नहीं है।

उधर भाजपा तेजी से अपने पांव तमिलनाडु में बढ़ा रही है जहां 2011 के तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी वहां इस बार अमित शाह तमिलनाडु में भाजपा के पांव जमाना चाहते हैं। द्रमुक और अन्ना द्रमुक के खेमों में बंटी तमिलनाडु  की जनता को पकडऩे के लिए उनके पास कोई उल्लेखनीय नेता व कार्यकत्र्ता नहीं है।

संघ का भी कोई बड़ा आधार तमिलनाडु में नहीं है। ऐसे में जाहिर है कि जयंती नटराजन जैसे हाशिए पर बैठे नेताओं को भाजपा में जाने से कोई आशा की किरण नजर आ रही है इसलिए यह ‘आया राम गया राम’ का सिलसिला दोहराया जा रहा है।

रही बात जयंती नटराजन के पत्र में राहुल गांधी के खिलाफ लगाए गए आरोपों की, तो प्रश्न उठता है कि यह आत्मबोधि जयंती को तब क्यों हुई जब वह सत्ता से बाहर हो गईं। जब वह राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार में  मंत्री थीं तब उनकी आत्मा ने उन्हें क्यों नहीं कचोटा। उनके पर्यावरण मंत्री रहते अगर वास्तव में राहुल गांधी उन्हें स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने दे रहे थे तो उन्होंने स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह अपना जनतांत्रिक विरोध क्यों नहीं व्यक्त किया? क्यों वह राहुल गांधी के फरमान मानती रहीं? क्यों आज की ही तरह तब प्रैस कांफ्रैंस बुलाकर राहुल गांधी के कामों का खुलासा क्यों नहीं किया? जाहिर है तब उन्हेें कुर्सी से चिपके रहने का लालच था इसलिए खामोश रहीं। अब न तो कांग्रेस के झंडे तले कुर्सी बची है और न निकट भविष्य में इसकी संभावना है। इसलिए जयंती नटराजन के ऊपर राहुल गांधी का यह गाना सटीक बैठेगा -
रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह ।
बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह ।।
सौ रूप भरे जीने के लिए, बैठे हैं हजारों जहर पिए।
ठोकर न लगाना हम खुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह ।।

खैर राजनीति में इस तरह से दिल तोडऩे वाले काम अक्सर मौकापरस्त लोग किया करते हैं। यह भी सही है कि सिद्धांतहीन राजनीति के दौर में ऐसे ही लोग अक्सर पनपते भी हैं। तो जयंती नटराजन कोई अपवाद नहीं हैं।

रही बात पर्यावरण व आर्थिक विकास के मुद्दों की तो चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, दोनों की कुछ सीमाएं हैं। दोनों चाहते हैं कि तेजी से आर्थिक विकास हो। औद्योगिकीकरण हो, रोजगार बढ़े और निर्यात बढ़े। इसके लिए पर्यावरण की प्राथमिकताओं को दर-किनार करना  पड़ता है। फिर चाहे खनन हो या वृक्षों का कटान, जनजातीय जनता का विस्थापन हो या नदियों में औद्योगिक प्रदूषण, सब तरफ से आंखें मूंद ली जाती हैं। इससे उद्योगपति खुश होते हैं और राजनीतिक दलों को भरपूर चंदा देते हैं। मगर दूसरी तरफ आम जनता में आक्रोश फैलता है और उसके वोट खोने का खतरा बढ़ जाता है इसलिए यह दोधारी तलवार है। दोनों के बीच संतुलन लाने की जरूरत है जिससे पर्यावरण भी बच सके और औद्योगिक विकास भी हो सके।

अच्छा होगा कि प्रमुख राजनीतिक दल इस संवेदनशील सवाल पर आम सहमति पैदा कर लें। और विकास का ऐसा मॉडल तय कर लें कि सरकारें आएं और जाएं पर इस बुनियादी मॉडल में कोई भारी फेरबदल न हो। ऐसा तभी हो सकता है जब सद्इच्छा हो, जिसकी राजनीति में बहुत कमी पाई जाती है। मौजूदा प्रधानमंत्री औद्योगिकीकरण, विदेशी निवेश और आर्थिक विकास को लेकर बहुत उत्साहित हैं। उधर उनके गुजरात कार्यकाल के दौरान से ही सिविल सोसायटी वाले उन पर पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगाते रहे हैं। पर एक आध्यात्मिक चेतना वाला व्यक्तित्व वेदों की मान्यताओं के विपरीत जाकर प्रकृति का विनाश होते नहीं देख सकता। नरेन्द्र भाई को इस विषय में सामूहिक राय बनाकर धुंध साफ कर लेनी चाहिए।

जहां तक जयंती नटराजन के आरोपों का सवाल है, उनमें अगर तथ्य भी हो तो इसे कोई राजनीतिक बयानबाजी मानकर उनके अगले राजनीतिक कदम का इंतजार करना चाहिए। जब यह साफ हो जाएगा कि उनकी चिंता किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर थी।


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