‘तेल की फिसलन से’ सरकार बच कर ही चले तो अच्छा

punjabkesari.in Thursday, Jan 22, 2015 - 05:26 AM (IST)

(ईश्वर डावरा) एन.डी.ए. सरकार पर सौभाग्य लक्ष्मी पूरी तरह मेहरबान लग रही है। कमजोर मानसून से आम कृषि उत्पादन चाहे तनिक कम ही रहे पर मुआवजे के रूप में फल और सब्जियों की पैदावार कुदरत ने दिल खोल कर दी है। इससे महंगाई का रोना रोते विरोधी दलों की जुबान पर लगाम लगेगी। महंगाई कम करने में ग्लोबल परिस्थितियां भी देश की आर्थिकता में सहायक हो रही हैं। पैट्रोल बेहद सस्ता (102 डालर प्रति बैरल से कम होकर अब सिर्फ 43 डालर प्रति बैरल पर उपलब्ध है) मिल जाने से देश का इम्पोर्ट बिल एक तिहाई घटने से हमें कुल 50 अरब डालर का लाभ होगा।

यही धन देश के विकास में काम आएगा, आर्थिकता सुधरेगी और उसके साथ ही तेल की खपत से चलते उद्योग-धंधों में बढ़ौतरी का ग्राफ ऊपर छलांगें लगाएगा, हवाई सफर सस्ता, गाडिय़ां सस्तीं और यातायात सस्ता होने से सभी क्षेत्रों में बढ़ रही कीमतों पर भी ब्रेक लगेगी। सबसिडी कम करने का जो फायदा होना था वह पैट्रोल-डीजल की निरन्तर कम होती रिटेल कीमतें खत्म कर देंगी-कुछ दिन के लिए सरकार की वाहवाही तो हो जाएगी पर, जैसा कि ग्लोबल अर्थशास्त्री डर रहे हैं कि कच्चा पैट्रोल 2015 के अंत में फिर चढऩा शुरू करेगा, तब आज की घड़ी में लोकप्रियता बटोरती सरकार को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

आर्थिकता की गंगा उलटी बहने लगी तो सरकार किस मुंह से पैट्रोल-डीजल के रेट फिर बढ़ाएगी? आज नकद कल उधार वाली नीति शायद यहां न चल सके। इन विचारों को सामने रख सरकार सस्ती लोकप्रियता से बचकर दूर की सोचे और कुदरत की दी धनवर्षा को वोट बैंक में डालने से बचा कर विकास के धंधों में लगाए।

कम देखो ज्यादा सोचो
खूब पर्दा है चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
इसी चिलमन के आंशिक रूप से पारदर्शी झीने पर्दे से छलकता हुस्न ही मन को अपनी तरफ खेंचता है-न कि बेबाकी से उखड़ा चेहरा। चिलमन के पीछे छिपे आकर्षण से ही मिलती-जुलती ‘फ्लर्टेशन’ या ‘भंवरेबाजी’ की अदा है जो आशिक को पहले तो उम्मीद बंधवाती है, फिर तोड़ती है और फिर हौसला भी बढ़ाती है-निरी अदाओं व नाज-नखरों का यह एक खेल जिसे अंग्रेजी में ‘अटैंशन विदाऊट इनटैंशन’ यानी किसी को रिझाना अपनाने के किसी इरादे के बगैर।

सदियों से चले आ रहे इस चुलबुले खेल ने कई घर बसाए भी, उजाड़े भी। बार-बार परोक्ष सी इशारेबाजी के बावजूद आशिक की झोली खाली रहे तो नाकाम प्रेमी के मन में हरजाई माशूका के प्रति दुराग्रह की भावना भी पैदा होती है जो कई बार पागलपन की हद तक बदला लेने का भयंकर रूप धारण कर सकती है और कइयों को दीन-दुनिया से विमुख कर साधुगिरी भी करा देती है। दोनों ही अलग-अलग मानसिक विकारों के रूप हैं। बहुधा तो माशूक की बेनतीजा भंवरेबाजी को उसका हरजाईपना (‘‘देखूं यह मुझे किस हद तक चाहता है?’’) व अदा समझ कर प्रेमी समय के स्वाभाविक बहाव के साथ इसे भूलते हुए किसी सृजनात्मक पहलू को लेकर आगे बढ़ जाते हैं-नई संभावनाओं, नए क्षितिजों, आकांक्षाओं के साथ। कोई नया साथी मिला तो घर संसार भी बस जाता है।

भंवरेबाजी के साथ ही मेल खाता निर्दयी रूपमतियों का आंशिक प्रेम ‘क्लीवेज व नाभि दर्शन’ ‘‘ब्रह्मास्त्र’’ के रूप में भी नजर आ सकता है। ये सब माशूकों की अदाएं हैं जो उनके रूप को चाट मसाले की तरह भगवान जन्मजात देते हैं वर्ना ‘‘छड़े हुस्न में क्या रखा है-मारती तो माशूक की अदाएं हैं’’-वहीं ‘‘साफ छिपते भी नहीं नजर आते भी नहीं’’ की दार्शनिकता पर आधारित।

किसी जमाने में सुरैया के आंशिक वक्ष-दर्शन यानी क्लीवेज को फिल्म ‘‘मोती महल’’ व ‘‘दीवाना’’ में देखकर किशोर, तरुण, बड़े बूढ़े सभी आनंदित हो उठे थे। फिल्म ‘‘साकी’’ में मधुबाला व फिल्म ‘‘संग्राम’’ में नलिनी जयवंत ने भी अपने आंशिक वक्ष दर्शन से दर्शकों को अद्र्धमूर्छित अवस्था में ला दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि ट्रेलर का जादू पूरी फिल्मसे कहीं ज्यादा प्रभाव डालता है।

इसी का जिक्र चला तो एक मध्यम स्टेट्स की मायाविनी अदाकारा आशा सचदेव को कैसे भुला दें? फिल्म ‘‘ईश्वर’’ में अपनी दैहिक सम्पदा एक छोटे से अंत:वस्त्र में समेटे तालाब के पानी में नहाती जब वह अपनी दो-तिहाई वस्त्रहीन पीठ पर अनिल कपूर से तेल लगवाती है तो दृढ़ निश्चयी दर्शक वहीं बैठे-बैठे फिल्म सिर्फ उसी सैक्सी दृश्य के लिए फिर से देखने का प्रण कर लेते हैं।

‘चिलमन से लग कर बैठने’ का अद्र्धदर्शी जादू ही अलग है। ऊपर वॢणत सुन्दरियों के ‘ट्रेलर’ नुमा दर्शनों के बाद फिल्म ‘रंगरसिया’ में अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन की हीरोइन बेटी नन्दना सेन का कलात्मक मंतव्य के लिए दिखाया गया साक्षात् परन्तु पूर्ण वक्ष दर्शन भी सैक्सी मन में कोई उमंग नहीं जगाता।

औरतों के पास जो यह दिव्य शक्ति है इसका कई बार विध्वंसक इरादों के लिए भी इस्तेमाल हुआ है। बड़े-बड़े विश्वामित्र सरीखे राजनीतिबाज व अफसर लोग जो खुद को अपनी सख्ती के लिए सराहते नहीं थकते, क्लीवेज की फ्लर्टेशन-युक्त नीति से धूल चाट चुके हैं और हर बार इन कागजी शेरों ने अपनी कलम इन्हीं क्लीवेज धारिकों के दर्शाए डॉट-लाइन पर साइन करके ही अपार सुख पाया है।

हुक्म के गुलाम
किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू में एक पत्रकार कैंडीडेट से पूछा गया, ‘‘दो और दो कितने?’’
‘‘बाइस’’, जर्नलिस्ट ने जवाब दिया।
अगला कैंडीडेट एक इंजीनियर था। उससे भी यही सवाल पूछा गया तो अटकलें लगा कर बोला, ‘‘3.999 और 4.0001 के बीच।’’
तीसरा उम्मीदवार एक अकाऊंटैंट था। जब उससे पूछा गया, ‘‘दो और दो कितने?’’
 उसने कान के पास मुंह लाकर सरगोशी में कहा,‘‘जितने आप कहेंगे जनाब।’’ उसे फौरन नौकरी दे दी गई।


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