जम्मू-कश्मीर में सरकार के गठन में हो रहे ‘विलम्ब के कारण निराशा’

punjabkesari.in Tuesday, Jan 20, 2015 - 05:16 AM (IST)

(गोपाल सच्चर) कई तरह की कठिनाइयों के पश्चात भी जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में लोगों ने भारी संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग किया किन्तु सरकार के गठन में हो रहे विलम्ब से निराशा उत्पन्न होना एक स्वाभाविक बात है क्योंकि सरकार के गठन बिना बहुत कुछ ढीला पड़ गया है।

चुनाव परिणामों में किसी एक पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो पाया है और फिर कश्मीर घाटी में पी.डी.पी. सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। जम्मू में भाजपा को भारी सफलता मिली है और लद्दाख की 4 में से 3 सीटें कांग्रेस ने जीती हैं।

परिणामों से यह भी प्रकट होता है कि जाने वाली गठबंधन सरकार में शामिल दोनों बड़ी पार्टियों अर्थात नैशनल कॉन्फ्रैंस और कांग्रेस को बहुमत से वंचित होना पड़ा है किन्तु पी.डी.पी. 28 सीटें प्राप्त करके सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई है। भाजपा ने 25 सीटें प्राप्त की हैं और मतों की दृष्टि से पहले स्थान पर आई है। नैशनल कॉन्फ्रैंस को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है और कांग्रेस चौथे नम्बर पर चली गई है।

लोकतंत्र का तकाजा है कि राज्य में सरकार बनाने के लिए पी.डी.पी. को आगे आना चाहिए किन्तु भाजपा की जिम्मेदारी भी कुछ कम नहीं। कांग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रैंस भी सरकार के गठन में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं किन्तु पी.डी.पी. ने यह कहकर उनके समर्थन को ठुकरा दिया है कि लोगों ने इन पार्टियों को रद्द कर दिया है इसलिए इनकी सहायता से सरकार बनाना मतदाताओं के साथ अन्याय होगा।

इन परिस्थितियों में बड़ा रास्ता यही दिखाई देता है कि पी.डी.पी. और भाजपा को मिलकर सरकार के गठन में अपना दायित्व निभाना चाहिए किन्तु चुनाव परिणामों की घोषणा हुए लगभग एक महीने का समय बीत चुका है किन्तु परोक्ष रूप से कोई बड़ी पेशरफ्त सामने नहीं आई। पर्दे के पीछे क्या हो रहा है यह स्पष्ट नहीं। नैशनल कॉन्फ्रैंस और कांग्रेस ने एक तरह से चुप्पी साध रखी है किन्तु पी.डी.पी. और भाजपा में क्या बातचीत हो रही है, यह कुछ स्पष्ट नहीं।

दोनों पार्टियों के दृष्टिकोण भिन्न हैं और कुछ एक बातों में तो दोनों के बीच कड़े मतभेद पाए जाते हैं। इन विषयों में धारा-370, स्वप्रशासन, सैनिकों के विशेष अधिकारों का अंत तथा कुछ अन्य शामिल हैं। अत: गठबंधन सरकार के गठन के लिए इन दोनों पार्टियों को दृष्टिकोणिक लचक लानी होगी और विकास कार्यों को प्राथमिकता देते हुए न्यूनतम सांझा कार्यक्रम को लेकर आगे बढऩा होगा। इस संबंधी यह भी अन्याय दिखाई देता है कि विवादित विषयों को सरकार के एजैंडे से अलग-थलग रख दिया जाए।

यह सब कुछ इतना सरल दिखाई नहीं देता क्योंकि जम्मू और कश्मीर में बड़ा अंतर है। जम्मू की अधिकतर जनसंख्या राज्य के संबंध भारत के साथ देश के अन्य भागों की भांति चाहती है जबकि कश्मीर की सोच इससे भिन्न है जो चुनाव परिणामों से भी स्पष्ट होता है। जम्मू में मोदी लहर के कारण भाजपा ने पहली बार 37 में से 25 सीटों पर बहुमत के साथ सफलता प्राप्त की है। पी.डी.पी. ने अधिकांश सीटें कश्मीर घाटी से प्राप्त की हैं किन्तु जम्मू के कुछ एक क्षेत्रों में भी कुछ सफलता पाई है।

जहां तक धारा-370 का संबंध है, कश्मीर के लोग इसे जारी रखना चाहते हैं किन्तु भाजपा का इसे समाप्त करने का गीत पुराना है किन्तु मोदी ने एक दूरदर्शी राजनेता के रूप में जम्मू में आरंभ में ही कह दिया था कि इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए कि इसके लाभ तथा हानियां क्या हैं, अर्थात उन्होंने शुरू में ही एक लचक की ओर संकेत किया था और विकास को ही प्राथमिकता देने की बात कही थी, जिसे अब भी सरकार के गठन के लिए एक नींव बनाया जा सकता है।

पी.डी.पी. के प्रमुख मुफ्ती मोहम्मद सईद राजनीति के मैदान के एक पुराने खिलाड़ी हैं। वह कश्मीर के साथ ही जम्मू और लद्दाख की धड़कन भी पहचानते हैं। वह नैशनल कॉन्फ्रैंस और कांग्रेस सरकारों का हिस्सा भी रहे हैं और केंद्र में जनता दल की सरकार में भी गृहमंत्री के पद पर रह चुके हैं। उन्हें राज्य और केंद्र अर्थात दोनों सरकारों में काम करने का अच्छा- खासा अनुभव है। अब देखना यह है कि भाजपा के साथ उनकी सरकार बन पाती है या नहीं। सामान्य धारणा यही दिखाई देती है कि दोनों पार्टियों की सरकार सुदृढ़ बन सकती है, अगर दोनों ओर से लचक का पक्ष प्रभावी रहे।

किन्तु सरकार और संगठनों के साथ भी बनाई जा सकती है किन्तु वह पी.डी.पी. और भाजपा जैसी सुदृढ़ नहीं हो सकती क्योंकि सदस्यों की संख्या भी विभिन्न संगठनों के पास कुछ ऐसी ही है। अपितु राजनीति में किसी भी पक्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती। सभी ने अपने द्वार खुले रखे हैं किन्तु सरकार के गठन में हो रहा विलम्ब लोगों में निराशा का वातावरण उत्पन्न कर रहा है।

अगर सरकार का गठन जल्द न हुआ तो राष्ट्रपति शासन लम्बा ङ्क्षखच सकता है और फिर नए चुनाव तक की नौबत आ सकती है जो अशुभ होगा। इससे तो कई तरह के तनाव उत्पन्न होंगे, जिससे राज्य की एकता को खतरा हो सकता है। आशा की जानी चाहिए कि कठिनाइयों पर नियंत्रण पाया जाएगा और सरकार का गठन जल्द होगा जिससे लोगों की कठिनाइयों का समाधान करने में सहायता मिलेगी और निर्माण व विकास का एक नया युग आरंभ होगा। नहीं तो जो परिस्थितियां इस समय बनी हैं, वे किसी भी रूप से संतोषजनक नहीं कही जा सकती हैं।

यह ठीक है कि राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने सरकार के कामकाज को पटरी पर लाने की कोशिश की है किन्तु लोकतांत्रिक युग में राष्ट्रपति शासन एक अस्थायी पग तो हो सकता है, मगर जनप्रतिनिधियों की सरकार का विकल्प नहीं बन सकता।

राज्य में राष्ट्रपति शासन का लागू होना कोई नई बात नहीं। सबसे पहले 1977 में राष्ट्रपति शासन उस समय लागू हुआ जब 26 मार्च, 1977 में कांग्रेस ने शेख सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जिसके पश्चात राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए और 9 जुलाई 1977 को फिर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सरकार बनी। दूसरी बार 6 मार्च, 1986 को राष्ट्रपति शासन फिर से लागू हुआ, जब कांग्रेस ने जी.एम. शाह सरकार से समर्थन वापस ले लिया जिसके बाद 7 नवम्बर, 1986 तक राष्ट्रपति शासन लागू रहा किन्तु इसके पश्चात राजीव-फारूक समझौता हुआ जिसके आधार पर नैशनल कॉन्फ्रैंस-कांग्रेस की सरकार बनी। तीसरी बार राज्य में राष्ट्रपति शासन 19 जनवरी, 1990 को उस समय लागू हुआ जब उग्रवाद ने खतरनाक रूप धारण कर लिया था और डा. फारूक की सरकार ने त्यागपत्र दिया था। यह राष्ट्रपति शासन लम्बे समय तक लागू रहा। 19 अक्तूबर 1996 को विधानसभा चुनाव के पश्चात नैशनल कॉन्फ्रैंस की सरकार बनी जिसके डा. फारूक अब्दुल्ला दोबारा प्रमुख बने।

चौथी बार राष्ट्रपति शासन 18 अक्तूबर, 2002 को उस समय लागू हुआ जब राज्य में पी.डी.पी. और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के गठन में विलम्ब हुआ। यह शासन सबसे कम समय अर्थात 15 दिन लागू रहा। 5वीं बार राष्ट्रपति शासन 11 जुलाई, 2008 को उस समय लागू हुआ जब पी.डी.पी. गुलाम नबी आजाद सरकार से अलग हुई थी। अब की बार यह शासन कब तक लागू रहेगा, इसका पता आने वाले समय में चल पाएगा।


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