5 राज्यों के चुनाव नतीजों ने खत्म की भाजपा की ‘सूखे वाली स्थिति’

punjabkesari.in Saturday, May 28, 2016 - 01:37 AM (IST)

(हरि जयसिंह): अभी-अभी पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों से कई संकेत मिल रहे हैं, जो भारत के संघीय राजनीतिक तंत्र के भविष्य की दिशा पर गंभीर रूप में प्रभावी होंगे। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि राष्ट्रीय स्तर पर और पार्टी के अंदर मुद्दों पर व्यापक आम सहमति बनाते समय वे कुंजीवत मुद्दों, प्रादेशिक नेताओं की संवेदनाओं तथा जमीनी स्तर पर मानवीय कारकों को हैंडल कैसे करते हैं। 

 
2014 के संसदीय चुनाव में अपनी धमाकेदार जीत के बाद दिल्ली और बिहार के चुनावी नतीजों में भाजपा को जिस ‘सूखे की स्थिति’ को झेलना पड़ रहा था, वह 2016 के परिणामों से समाप्त हो गई है। अत्यधिक बरसात के लिए विश्वविख्यात असम में किस्मत भाजपा पर खूब मेहरबान होकर बरसी है और उस पूर्वोत्तर में पार्टी के लिए एक प्रवेश द्वार खुल गया है, जिसके बारे में प्रधानमंत्री अक्सर बहुत आवेश में आकर बातें किया करते हैं कि यही क्षेत्र भारत की ‘लुक ईस्ट नीति’ को आगे बढ़ाने में सहाई होगा और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए एक नए आर्थिक विकास केन्द्र के रूप में उभरेगा। 
 
34 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले असम में भाजपा की दो-तिहाई बहुमत से ऐतिहासिक जीत बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके बाद अब भाजपा को यह दिखाने का अवसर मिला है कि वह बंगलादेश से हो रही अवैध घुसपैठ को समाप्त करने से लेकर आॢथक बहाली के माध्यम से रोजगार सृजन तक जो भी वायदे लोगों के साथ करती रही है, उन्हें पूरा करके दिखाए। यदि पार्टी को जीत की मदहोशी से भाजपा अध्यक्ष बचाना चाहते हैं तो मेरा ख्याल है कि चुनावी वायदों को भुलाया नहीं जाना चाहिए। 
 
साम्प्रदायिक सौहार्द एवं आदिवासियों से संबंधित मुद्दे बराबर रूप में चिन्ता का विषय हैं। राज्यों की जमीनी स्तर की वास्तविकताओं को नए सिरे से समझने की जरूरत है। भाजपा के सत्तातंत्र द्वारा बरती जाने वाली सक्रियता और निष्क्रियता दोनों का ही पश्चिम बंगाल से बाहर भी बहुत दूर-दूर तक असर पड़ेगा। यहां तक कि बंगलादेश को भी आव्रजन के मुद्दे पर बहुत संवदेनशील ढंग से हैंडल करना होगा क्योंकि वर्तमान शेख हसीना सरकार के साथ सहयोग हर हालत में जारी रहना चाहिए। 
 
भारत की दो सम्मानजनक मोहतरमाओं ममता बनर्जी और जयललिता की धमाकेदारी कारगुजारी से मिलने वाले संकेतों का भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को गंभीर संज्ञान लेने की जरूरत है। क्योंकि इन दोनों ने ही एंटी-इनकम्बैंसी के बावजूद बहुत जबरदस्त जीत हासिल की है। ममता तो खास तौर पर ऐसी नेता हैं, जिनका मजबूत जनाधार ही है और वह लडऩे की बहुत क्षमता रखती हैं। ममता के बारे में मेरा सदा से ही यह विचार है कि वह नंगे पैरों वाली एक ऐसी मानवीय माक्र्सवादी हैं, जिनके अंदर ‘कॉमन सैंस’ भी कूट-कूट कर भरी हुई है। 
 
जहां ममता बनर्जी का भाजपा के साथ वैचारिक टकराव है, वहीं जयललिता की भाजपा के साथ इस मुद्दे पर कोई तकरार नहीं है। वैसे वह श्रीलंकाई तमिलों के मामले में अन्य सभी तमिल नेताओं की तरह ही संवेदनशील बनी रहेंगी और केन्द्र सरकार को इस बात का संज्ञान लेना होगा। अपने प्रिय मुद्दों पर जयललिता चूंकि बहुत जमकर सौदेबाजी करती हैं इसलिए प्रधानमंत्री को ममता के अलावा उनके साथ भी अच्छा तालमेल बनाकर रखना होगा। 
 
आने वाले महीनों में प्रधानमंत्री की ‘सहकारी संघवाद’ की अवधारणा की अग्रिपरीक्षा होगी। इस परीक्षण में संघ परिवार के हर छोटे-बड़े नेता के सार्वजनिक बयानों का लोगों द्वारा संज्ञान लिया जाएगा। इसलिए किसी भी संवेदनशील मुद्दे पर बयानबाजी करते समय इन लोगों को बहुत संयम से काम लेना होगा। यहां तक कि मोदी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के लोग उन्हें देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं न कि किसी विशेष पार्टी के नेता के रूप में। 
 
जहां तक माकपा नीत वाम मोर्चे का सवाल है, यह गुजरे जमाने के ‘अच्छे दिनों’ के सपनों में इतनी बुरी तरह खोया हुआ है कि बाहर आने में अक्षम है। पश्चिम बंगाल में हाल ही में इसी कारण इसकी कारगुजारी घटिया रही है। इन चुनावों में माकपा की कारगुजारी सीताराम येचुरी के नेतृत्व पर कई सवाल खड़े करती है। माकपा के लिए बेहतर होगा कि वह माओ त्से तुंग के अमरीकीकृत चीन से कुछ सबक सीख ले। जहां तक केरल का सवाल है, शृंखलाबद्ध घोटाले ही ओमान चांडी की कांग्रेस सरकार की नैया डुबोने के लिए जिम्मेदार हैं। फिर भी केरल में भाजपा द्वारा लगभग 15 प्रतिशत वोट हासिल करना इसके भविष्य को लेकर एक बहुत ही शानदार संकेत है और वामपंथियों का गढ़ रहे केरल में इसके विकास की अच्छी संभावनाएं हैं। 
 
मई 2016 के चुनावों का सबसे उल्लेखनीय संकेत है-कांग्रेस का पतन।  बिल्कुल इसी पल की बात करें तो इस ऐतिहासिक पार्टी की स्थिति बहुत ही दयनीय है। किसी लोकतंत्र में एक खानदान का राज आखिर कब तक कायम रखा जा सकता है? खास तौर पर तब, जब इसके पास कोई ढंग का नेता भी न हो? राहुल ने तो बार-बार सिद्ध कर दिया है कि उनमें नेतृत्व क्षमता नाम की कोई चीज नहीं। वैसे चापलूसी की संस्कृति के चलते अभी भी पार्टी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। 
 
चुनाव नतीजों ने कांग्रेस की नकारात्मक राजनीति को भी सिरे से रद्द कर दिया है। कांग्रेस के लिए एकमात्र सांत्वना केवल छोटा-सा राज्य पुड्डूचेरी है, जहां यह द्रमुक की सहायता से जीत गई है। 
 
फिलहाल कोई भी नेता इतना ऊंचे कद का नहीं कि वह 2019 के चुनाव में एक लहर पैदा कर सके। नरेन्द्र मोदी की अपील बेशक काफी व्यापक है लेकिन अब उनका अक्स उस व्यक्ति जैसा नहीं जिसे पराजित न किया जा सके। उनके इरादे बेशक नेक हों लेकिन वायदों और कारगुजारी में काफी बड़ा अंतर है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। 
 

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