अपराधियों को सजा के लिए भारतीय अदालतें सुना रहीं ‘शिक्षाप्रद फैसले’

punjabkesari.in Tuesday, Aug 04, 2020 - 02:02 AM (IST)

पारंपरिक रूप से छोटे-मोटे अपराधों में पकड़े जाने वालों को नकद जुर्माना अथवा कम अवधि की कैद आदि की सजाएं दी जाती हैं परंतु मनोवैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि जहां कठोरता काम न करे वहां कभी-कभी दोषियों के साथ नरम व्यवहार और उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से शर्मिंदा करने का भी सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसी कारण अपराधियों को शिक्षाप्रद और मनोवैज्ञानिक ढंग से दंडित करने के लिए भारतीय अदालतें समय-समय पर भिन्न किस्म के शिक्षाप्रद फैसले सुनाती रहती हैं जिनके चंद ताजा उदाहरण निम्र में दर्ज हैं : 

* 16 अप्रैल को लॉकडाऊन के दौरान नियम तोड़कर भागने की कोशिश करने के आरोप में गिरफ्तार एक युवक को कोलकाता की अलीपुर अदालत ने 7 दिनों तक ट्रैफिक पुलिस के रूप में काम करके लॉकडाऊन के दौरान लोगों को जागरूक करने का आदेश सुनाया। 

* 22 अप्रैल को इंदौर उच्च न्यायालय ने लॉकडाऊन के दौरान सोशल डिस्टैंसिंग का पालन नहीं करने वाले ‘नागदा’ निवासी दिलीप विश्वकर्मा को जेल से छूटने के बाद 7 दिनों तक प्रतिदिन प्रशासन के निर्देशानुसार ड्यूटी करने, 10,000 रुपए प्रधानमंत्री कोष में जमा करवाने और 35,000 रुपए का मुचलका भरने का आदेश दिया।
* 25 अप्रैल को बिहार के ‘दुमका’ में सोशल मीडिया पर सोनिया गांधी और अमित शाह के संबंध में आपत्तिजनक पोस्ट करने के आरोपी 4 युवकों को पी.आर. बांड पर छोडऩे से पहले मुख्यमंत्री के सामुदायिक किचन में जरूरतमंदों को खाना खिलाने की सजा सुनाई। 

* 28 मई को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने एक ही विषय पर अनेक याचिकाएं दाखिल कर अदालत को गुमराह करने वाले सुल्तानपुर के ब्रजेंद्र मिश्रा नामक युवक को अपने गांव में 20 फलदार छायादार वृक्ष लगाने और उनके काफी बड़ा हो जाने तक उनकी सिंचाई और देखभाल करने का आदेश दिया।
 अदालत ने यह आदेश भी दिया कि इन पेड़ों और उनके फलों पर ब्रजेंद्र मिश्रा का कोई अधिकार नहीं होगा तथा स्थानीय एस.डी.एम. नियमित रूप से समय-समय पर यह देखने के लिए गांव में आते रहेंगे कि अदालत के आदेश का संतोषजनक ढंग से पालन हो रहा है या नहीं। 
* 30 मई को पटना उच्च न्यायालय ने समय पर खरीदार को फ्लैट न देने के आरोप में कैद काट रहे प्रापर्टी डिवैल्पर खालिद रशीद को तीन महीनों तक कोरोना वायरस संक्रमितों की सेवा करने की शर्त पर जमानत दे दी। 

* 03 जून को पटना उच्च न्यायालय ने एस.सी./एस.टी. एक्ट के तहत पकड़े गए बेगूसराय के मनोज कुमार नामक व्यक्ति को जिला स्वास्थ्य केंद्र, बेगूसराय के कोरोना अस्पताल में 3 महीनों तक स्वयंसेवक के रूप में कोरोना संक्रमितों की एक योद्धा की तरह सेवा करने की शर्त पर जमानत दी।
* 04 जून को बिहार के किशनगंज में पटना उच्च न्यायालय ने एक फौजदारी केस में शिक्षाप्रद सजा सुनाते हुए बहादुरगंज के ‘सतीभिट्ट’ गांव के मोहम्मद हसनैन को एक महीने तक एम.जी.एम. मैडीकल कालेज, ‘महेथबथना’ के रूरल सैंटर में बने आइसोलेशन वार्ड में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में कोरोना पीड़ितों की सेवा करने का आदेश दिया।
* 13 जून को पटना उच्च न्यायालय ने बिहार के नालंदा जिले के ‘करजरा’ गांव के रहने वाले शैलेंद्र मिस्त्री को अपनी पत्नी गुडिय़ा की हत्या के आरोप में अपने इलाके के 5 किलोमीटर क्षेत्र में विभाग के सदस्यों के साथ 31 दिनों तक प्रतिदिन कम से कम 25-30 घरों में जाकर डोर-टू-डोर लोगों की कोरोना संबंधी स्क्रीङ्क्षनग करने की शर्त के साथ जमानत दी। 

* और अब 30 जुलाई को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रोहित आर्य ने उज्जैन जिले के ‘सांदला’ के रहने वाले विक्रम बागरी नामक युवक को एक महिला के घर में घुस कर उससे छेड़छाड़ करने के आरोप में अनोखी शर्त के साथ 50,000 रुपए की जमानत पर रिहा करने की अनुमति दी है। इसके अनुसार उक्त युवक रक्षाबंधन के दिन अपनी पत्नी और रक्षा सूत्र को साथ लेकर पीड़ित महिला के घर जाकर उससे राखी बंधवाने, महिला से उसे भाई के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध करने, जीवन भर अपनी सामथ्र्य के अनुसार उसकी रक्षा करने का वचन देने, पीड़िता के बेटे को मिठाई और कपड़ों के लिए 5000 रुपए देने के अलावा पीड़ित महिला को भी राखी बंधवाने पर 11,000 रुपए शगुन देने का आदेश दिया। उन्होंने यह भी आदेश दिया कि उसे राखी बंधवाते हुए पैसे और मिठाई देते समय का फोटो अदालत में पेश करने के बाद ही जमानत दी जाए। 

विभिन्न छोटे-मोटे अपराधों में ऐसी शिक्षाप्रद सजाओं के मामले हालांकि कम ही देखने को मिलते हैं परंतु कुछ कम गंभीर मामलों में इस प्रकार की प्रयोगात्मक सजाएं देने का सिलसिला बहुत अच्छा है जिसे न्याय प्रणाली से जुड़े अन्य न्यायाधीशों को भी अधिक से अधिक बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा करने से जहां कैदियों की भीड़ की शिकार हमारी जेलों में भीड़ कम होने से उन पर बोझ घटेगा वहीं कैदियों पर किए जाने वाले सरकारी खर्च में भी बचत होगी और न्याय का उद्देश्य भी पूरा करके अपराधियों को सुधारने में कुछ सहायता अवश्य मिलेगी।—विजय कुमार 


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