दिल्ली शहर बन रहा है लापता होने वाले बच्चों का ‘महानगर’

punjabkesari.in Wednesday, Jun 14, 2017 - 11:05 PM (IST)

देश की राजधानी होने के नाते यह उम्मीद की जाती है कि दिल्ली भारत का सबसे सुरक्षित महानगर होगा और इसी कारण बेशक विश्व समुदाय का एक बड़ा वर्ग दिल्ली को ‘हिंदुस्तान के दिल’ के रूप में देखता हो परन्तु वास्तविकता इससे कोसों दूर है। लगातार बढ़ रहे अपराधों, अपहरणों, बलात्कारों, लूटपाट, डकैती और हत्याओं आदि के चलते आज यह ‘हिंदुस्तान का दिल’ न रह कर  ‘दिल तोडऩे वाला’ शहर बन कर रह गया है। 

एक अनुमान के अनुसार राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन 20 के लगभग बच्चे लापता हो रहे हैं। इनमें से मात्र 30 प्रतिशत बच्चों का ही अपने माता-पिता से पुनर्मिलन हो पाता है और अधिकांश बच्चे एक बार घर से जाने के बाद वापस नहीं लौटते जिनका उनके माता-पिता इंतजार ही करते रह जाते हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो प्रति वर्ष दिल्ली एन.सी.आर. व अन्य राज्यों में बच्चों के लापता होने के मामलों में 15 से 18 प्रतिशत तक की वृद्धि हो रही है। इससे भी बुरी बात यह है कि घरों से लापता होने वाले हर 10 बच्चों में 6 लड़कियां होती हैं और इनकी संख्या में भी गत 5 वर्षों से हर वर्ष लगातार वृद्धि हो रही है। 

इसका परिणाम यह है कि आज दिल्ली महानगर ‘बाल तस्करी’ का केंद्र बन कर रह गया है। यहां बच्चे तस्करी और अपहरण करके दूसरे राज्यों से लाए भी जाते हैं और दूसरे राज्यों को भेजे भी जाते हैं। पुरानी दिल्ली तथा बाहरी दिल्ली के इलाके से सर्वाधिक बच्चे लापता होते हैं। इनमें अधिकांश गरीब वर्ग से संबंधित 6 से 15 वर्ष आयु वर्ग के बच्चे होते हैं। संदेह है कि मानव तस्कर, मानव अंगों के व्यापारी और बाल मजदूरी करवाने वाले गिरोहों के सदस्य इन्हें अपना निशाना बना रहे हैं। मात्र पिछले 5 महीनों में ही दिल्ली में 1500 से अधिक बच्चे लापता हो चुके हैं। 

मानव तस्कर कुछ बच्चों को तो स्थानीय घरों या दुकानों आदि में बाल मजदूरी के लिए दलालों को सौंप देते हैं या अंग भंग करके इन्हें भिक्षा वृत्ति, बाल मजदूरी तथा अन्य अपराधों में धकेल दिया जाता है। अपहृत या लापता बच्चियों को ज्यादातर वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है। इनमें से काफी बच्चियों को कम लिंगानुपात वाले गांवों में भेज कर इनसे दोगुनी-तिगुनी आयु के मर्दों से ब्याह दिया जाता है। राजधानी दिल्ली में सुनियोजित ढंग से काम करने वाले शिशु तस्करों का मासूम जिंदगियों से खिलवाड़ करने का घिनौना खेल केवल अपने देश तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये खाड़ी के देशों में भी बंधुआ मजदूरों और यौन गुलामों के रूप में काम करवाने के लिए बच्चों को भिजवा रहे हैं। 

अपराध रिकार्ड कार्यालय (दिल्ली) के डी.सी.पी. राजन भगत के अनुसार, ‘‘चूंकि राजधानी में दूसरे राज्यों से रोजी-रोटी कमाने के लिए बड़ी संख्या में आने वाले लोग गरीब होते हैं, अत: इनमें से अनेकों के पास तो अपने बच्चों का चित्र तक नहीं होता।’’ ऐसे बच्चों में से मात्र 60 प्रतिशत ही अपने घरों को लौटते हैं। इनमें से भी अधिकांश बच्चे पुलिस की मुस्तैदी के कारण नहीं बल्कि अपने तौर पर वापस आते हैं तथा साइबर टैक्नोलॉजी की मदद से लापता बच्चों का पता लगाने के मामले में दिल्ली पुलिस का रिकार्ड संतोषजनक नहीं है। 

बेशक हमारे शासक दिल्ली को ‘विश्व श्रेणी का महानगर’ बताते हैं परन्तु यहां लगातार बढ़ रहे बाल और यौन अपराध, हत्या-डकैती और ऐसी ही अन्य घटनाएं हमारे शासकों के इस दावे को झुठलाती हैं और मांग करती हैं कि राजधानी को वास्तव में ‘हिंदुस्तान का दिल’ बनाने के लिए इसे आपराधिक घटनाओं से मुक्ति दिलाना जरूरी है। सड़कों पर सी.सी.टी.वी. कैमरों तथा दिल्ली की हाईटैक पुलिस की निगरानी के बावजूद यहां इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का लापता होना व उनमें से अधिकांश का पता न लगा पाना दिल्ली पुलिस की कार्यक्षमता पर प्रश्रचिन्ह लगाता है और रुल रहे बचपन  बारे तो यही कहा जा सकता है कि :कितनी कलियां कुचली जातीं, मसले जाते फूल, भोला बचपन खाता धक्केे और फांकता धूल। —विजय कुमार


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