सती लोपामुद्रा की कथा से जानिए प्रत्येक महिला को करना चाहिए ऐसे जीवन यापन

punjabkesari.in Friday, Oct 07, 2016 - 04:42 PM (IST)

मित्रा वरुण के पुत्र महर्षि अगस्त्य बड़े ही तपस्वी थे। उनकी धर्म पत्नी लोपामुद्रा भी बहुत उच्च कोटि की पतिव्रता स्त्री थी। इनके पतिव्रता का वर्णन स्कन्द पुराण के काशी खण्ड के चौथे अध्याय में विस्तारपूर्वक किया गया है। 
 

एक समय सब देवताअों के साथ बृहस्पति जी अगस्त्य ऋषि के अाश्रम पर गए
अाश्रम के पास विचरने वाले पशु-पक्षियों को भी मुनियों के समान वैर भाव रहित और प्रेम पूर्वक बर्ताव करते देखकर देवताअों ने यह समझा कि इस पुण्य क्षेत्र का प्रभाव है। फिर उन्होंने मुनि की कुटी देखी जो कि होम अौर धूप की सुगन्ध से सुवासित तथा बहुत से ब्रह्मचारी विद्यार्थियों से सुशोभित थी। पतिव्रता शिरोमणि लोपामुद्रा के चरण-चिह्नों से चिह्नत पर्णकुटी के अांगन को देखकर सब देवताअों ने नमस्कार किया। देवताअों को अाए देखकर मुनि खड़े हो गए और सबका यथायोग्य अादर-सत्कार करके अासन पर बैठाया।

 

तदनन्तर बृहस्पति जी ने कहा, महाभाग अगस्त्य जी अाप धन्य हैं, कृतकृत्य हैं अौर महात्मा पुरूषों के लिए भी माननीय हैं। अाप में तपस्या की सम्पत्ति, स्थिर ब्रह्मातेज, पुण्य की उत्कृष्ट शोभा, उदारता तथा विवेकशील मन है। अापकी सहधर्मिणी ये कल्याणमयी लोपामुद्रा बड़ी पतिव्रता हैं। अापके शरीर की छाया के तुल्य है। इनकी चर्चा भी पुण्यदायिनी है। मुनि ये अापके भोजन कर लेने पर ही भोजन करती है, अापके खड़े होने पर स्वयं भी खड़ी रहती है। अापके सो जाने पर सोती और अापसे पहले जाग उठती है। अापकी अायु बढ़े इस उद्देश्य से ये कभी अापका नाम उच्चारण नहीं करती हैं। दूसरे पुरूष का नाम भी ये कभी अपनी जीभ पर नहीं लाती। ये कड़वी बात सह लेती हैं किन्तु स्वयं बदले में कोई कटु वचन मुंह से नहीं निकालती। अापके द्वारा ताड़ना पाकर भी प्रसन्न ही रहती है। जब अाप इनसे कहते हैं कि प्रिय अमुक कार्य करो, तब ये उत्तर देती हैं-स्वामी अाप समझ लें, वह काम पूरा हो गया। अापके बुलाने पर ये घर के अावश्यक काम छोड़कर तुरंत चली अाती हैं। ये दरवाजे पर देर तक नहीं खड़ी होती न द्वार पर बैठती अौर न सोती है। अापकी अाज्ञा के बिना कोई वस्तु किसकी को नहीं देती अापके न कहने पर भी ये स्वयं ही अपके इच्छानुसार पूजा सब सामान जुटा देती हैं। नित्य -कर्म के लिए जल, कुशा, पुत्र-पुष्प और अक्षत अादि प्रस्तुत करती हैं। 

 

सेवा के लिए अवसर देखती रहती हैं और जिस समय जो अावश्यक अथवा उचित है वह  सब बिना किसी उद्वेग के अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित करती हैं। अापके भोजन करने के बाद बचा हुअा अन्न अौर फल अादि खाती और अापकी दी हुई प्रत्येक वस्तु को महाप्रसाद कहकर शिरोधार्य करती हैं। देवता,पितर और अतिथियों को तथा सेवकों, गौओं अौर याचकों को भी उनका भाग अर्पण किए बिना ये कभी भोजन नहीं करती। वस्त्र, अाभूषण अादि सामग्रियों को स्वच्छ अौर सुरक्षित रखती हैं। ये गृहकार्य में कुशल है, सदा प्रसन्न रहती है, फिजूलखर्च नहीं करती एवं अापकी अाज्ञा लिए बिना ये कोई उपवास अौर व्रत अादि नहीं करती है। जन समूह के द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों का दर्शम दूर से ही त्याग देती हैं। तीर्थ यात्रादि तथा विवाहोत्सवदर्शन अादि कार्य़ो के लिए भी ये कभी नहीं जाती। रजस्वला होने पर ये तीन रात तक अपना अौर पति का ही मुंह देखती हैं और किसी का नहीं यदि पति देव उपस्थित न हो तो मन ही मन उनका ध्यान करके सूर्यदेव का दर्शन करती हैं। 

 

पति की अायुवृद्धि चाहती हुई पतिव्रता स्त्री अपने शरीर से हल्दी, रोली, सिन्दूर, काजल , चोली, कबजा, पान और शुभ मांगलिक अाभूषण कभी दूर न करें। केशों को संवारना , वेणी गूंथा तथा हाथ और कान अादि में अाभूषणों को धारण करना अादि श्रृंगार कभी बंद न करें।

 

स्त्रियों का यही उत्तम व्रत, यही परम धर्म और यही एक मात्र देव-पूजन है कि वे पति के वचन को न टाले। पति चाहे नपुंसक, दुर्दशाग्रस्त, रोगी, वृद्ध हो अथवा अच्छी स्थिति में या बुरी स्थिति में हो अपने पति का कभी त्याग न करे। पति के हर्षित होने पर सदा हर्षित और विषादयुक्त हो। पतिपरायणा सती सम्पत्ति और विपत्ति में भी पति के साथ एक रूप होकर रहे। तीर्थ स्नान की इच्छा रखने वाली नारी अपने पति का प्रणोदक पीए क्योंकि उसके लिए केवल पति ही भगवान शिव हैं। वह उपवास अादि के नियम पालती है, अपने पति की अायु हरती है अौर मरने पर नरक को प्राप्त होती है। स्त्री के लिए पति ही देवता, गुरु, धर्म, तीर्थ एव व्रत है। इसलिए स्त्री सबको छोड़कर केवल पति की सेवा-पूजा करें।
 

इस प्रकार कहकर बृहस्पतिजी लापामुद्रा से बोले- पति के चकणारविन्दों पर दृष्टि रखने वाली महामाता लापामुद्रा हमने यहां काशी में अाकर जो गड़ाग्स्नान किया है, उसी का यह फल है कि हमें अापका दर्शन प्राप्त हुअा है।
  

स्त्रियों को चाहिए कि रजस्वला होने पर तीन रात्रि तक घर की वस्तुओं को न छुए क्योंकि उस समय वे अपवित्र रहती हैं। अाजकल स्त्रियां जब स्त्री धर्म से युक्त होती हैं तब घर की वस्तुअों को तथा बालकों को छू लेती हैं, एेसा करना बहुत ही खराब है। स्त्रियों को इन तीन दिनों में बड़ी सावधानी से जीवन बिताना चाहिए। इस समय वह अांखों में अंजन न लगाएं, उबटन अौर नदी अादि में स्नान न करें, पलंग पर न सोकर भूमि पर शयन करे, दिन में न सोएं, किसी से हंसी-मजाक न करे और न घर में रसोई अादि का काम ही करे। दीनताभाव से एक वस्त्र ही धारण करे, स्नान और भूषणादि छोड़ दें। मौन होकर नीचा मुख किए रहे तथा नेत्र, हाथ और पैरों से चंचल न हो।
 


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