नारद पुराण: मंत्रों की शक्ति में बंध कर देवता करते हैं हर इच्छा पूरी

punjabkesari.in Saturday, Jun 04, 2016 - 01:10 PM (IST)

महाराजा करंधम बहुत ही पराक्रमी तथा धर्मात्मा थे। उनके कुलगुरु महर्षि अंगिरा थे। करंधम के पौत्र मरुत ने अपना राज्य इतना बढ़ाया कि इस लोक में देवराज इंद्र से बढ़ कर उनकी प्रतिष्ठा हो गई। देवराज इंद्र किसी अन्य का वैभव तथा प्रतिष्ठा देख नहीं सकते थे। वह नहीं चाहते थे कि उनके समान या उनसे बढ़ कर किसी अन्य राजा का यश तथा राज्य बढ़े। राजा मरुत बिना किसी ईर्ष्या-द्वेष के अपनी प्रजा की उन्नति के लिए काम करते थे। इंद्र उनके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी उन्हें बिल्कुल चिंता नहीं थी।
 
 
एक बार देवराज इंद्र ने असुरों से युद्ध जीतने की खुशी में एक बहुत ही बड़ा यज्ञ करना चाहा। इसके लिए उन्होंने विचार किया कि महर्षि अंगिरा के पुत्र बृहस्पति को ऋत्विज (पुरोहित) बनाया जाए। इनमें एक कठिनाई थी कि महर्षि अंगिरा करंधम के कुलगुरु थे, अत: उनके पुत्र बृहस्पति भी करंधम के पौत्र मरुत के कुलगुरु होते। इंद्र ने सोचा, ‘‘अगर बृहस्पति को मैं अपने यज्ञ का पुरोहित बना लूंगा, तो मरुत को कभी कोई पुरोहित ही न मिलेगा।’’
 
 
यही सोचकर वह बृहस्पति के पास आए और विनती करके उनसे कहा, ‘‘गुरुदेव! मैं एक यज्ञ करना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि आप मरुत के कुलगुरु का पद त्याग कर, मेरे यज्ञ के पुरोहित बनें। मैं देवताओं का राजा हूं। मेरा यश तीनों लोकों में फैला है। मरुत तो केवल पृथ्वी का राजा है। उसका पुरोहित बने रहने में आपको वह मान नहीं मिलेगा जो अजर-अमर देवताओं के कुलगुरु होने से मिलेगा।’’
 
 
इंद्र की बात सुनकर बृहस्पति को भी लगा कि वह ठीक कह रहे हैं। मरण-धर्मा मनुष्य का कुलगुरु होने की अपेक्षा अमर देवों का गुरु होने में ज्यादा मान है। बस, झट से कह दिया, ‘‘देवराज इंद्र! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। देवगुरु होने के नाते तुम्हारे यज्ञ का पुरोहित होना मुझे स्वीकार है।’’
 
 
देवराज इंद्र के यज्ञ की बात सुनकर, मरुत ने इंद्र से भी बड़ा यज्ञ करने का निश्चय किया। यह विचार कर वह अपने कुलगुरु बृहस्पति के पास आए और यज्ञ का पुरोहित होने की उनसे प्रार्थना की।
 
 
बृहस्पति ने कहा, ‘‘राजन! मेरे पिता भले ही आपके कुलगुरु रहे हों, पर मैं अब तुम्हारा कुलगुरु नहीं हूं। अब मैं इंद्र का देवगुरु हूं। देवताओं का यज्ञ करने के बाद मैं मनुष्यों का यज्ञ नहीं कराऊंगा। तुम किसी अन्य को पुरोहित बनाकर अपना यज्ञ पूरा कराओ।’’
 
 
महाराज मरुत को गुरु बृहस्पति के इस उत्तर से बड़ी निराशा हुई। वह खिन्न मन से वापस जा रहे थे कि रास्ते में नारद मिल गए। मरुत को उदास देखकर नारद ने कहा, ‘‘महाराज! आप जैसा चक्रवर्ती सम्राट इस प्रकार उदास क्यों? क्या कष्ट है आपको? क्या मैं आपका दुख दूर कर सकता हूं?’’
 
 
महाराज मरुत ने कहा,‘‘देवर्षि! मैं अपने कुलगुरु बृहस्पति जी से यज्ञ का पुरोहित बनने के लिए प्रार्थना करने गया था पर बृहस्पति ने कहा-अब मैंने अमृत्य देवों का देवगुरु बनना स्वीकार कर लिया है। अत: मरण-धर्मा  मनुष्यों के यज्ञ का पुरोहित नहीं बन सकता।’’
 
 
नारद ने कहा, ‘‘राजन! अंगिरा के द्वितीय पुत्र संवर्त अपने भाई बृहस्पति के कटु बर्ताव से दुखी होकर,सब कुछ छोड़ कर मोहमाया से मुक्त हो गए हैं। तुम उन्हें अपने यज्ञ का पुरोहित बनाओ। तेजस्वी संवर्त तुम्हारा कल्याण करेंगे। आजकल वह काशी में विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए घूमते रहते हैं। वहां तुम उन्हें सहज ही पहचान लोगे।’’
 
 
यह जानकर मरुत संवर्त की खोज में काशी पहुंचे। वहां उन्हें संवर्त बरगद के वृक्ष के नीचे घनी छाया में विश्राम करते दिखाई दे गए। मरुत ने उनके चरण छूकर दंडवत किया तो संवर्त चौंके। पूछा, ‘‘कौन हो तुम, क्या चाहते हो?’’
 
 
मरुत ने कहा, ‘‘हे अंगिरानंदन संवर्त मुनि! मैं महाराज करंधम का पौत्र मरुत हूं। मैं इंद्र के यज्ञ से भी बढ़कर एक यज्ञ करना चाहता हूं। मेरी प्रार्थना है कि आप उस यज्ञ के पुरोहित बनें। आप मेरे कुलगुरु हैं।’’
 
 
महात्मा संवर्त ने सलाह दी कि वह अपना यज्ञ बृहस्पति से ही सम्पन्न कराएं। उन्होंने कहा, ‘‘बृहस्पति मेरे बड़े भाई हैं। आजकल देवराज इंद्र तक उनका सान्निध्य पाने के लिए लालायित रहते हैं। मेरी स्थिति को तो तुम देख ही रहे हो, मैं तो बृहस्पति के अत्याचारों से दुखी होकर घर-परिवार, सम्पत्ति तथा कुल-पौरोहित्य त्याग कर अपनी इसी दशा में मोह-माया से मुक्त होकर सुखी हूं।’’
 
 
मरुत ने कहा, ‘‘हे मुनिवर! बृहस्पति ने अब धन, यश की लालसा में इंद्र को अपना यजमान बनाया है। वह देवगुरु हो गए हैं, अब वह मनुष्यों का पौरोहित्य नहीं स्वीकारेंगे। मैं अपना सर्वस्व देकर आपसे ही यज्ञ कराऊंगा तथा इंद्र और बृहस्पति को दिखा दूंगा कि आपकी कृपा से मेरा यज्ञ देव-यज्ञ से श्रेष्ठ होगा।’’
 
 
संवर्त ने कहा, ‘‘मुझे अपने लिए धन अथवा यजमान बनने का मोह नहीं है, पर मैं तुम्हारे यज्ञ का पुरोहित बनूंगा। मैं यह दिखा दूंगा कि उन अमर देवताओं की अपेक्षा कर्मशील मनुष्य अधिक श्रेष्ठ हैं। देवताओं के इस अहंकार पर मानव की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए आप यज्ञ प्रारंभ करें, किंतु साथ ही यह भी सोच लें कि मेरे द्वारा यज्ञ कराने पर बृहस्पति तथा इंद्र हम दोनों से कुपित हो जाएंगे और आपका यश पूरा न हो सके, ऐसा प्रयास करेंगे।’’
 
 
मरुत ने कहा, ‘‘गुरुदेव! आप इसकी चिंता न करें। इंद्र मेरे प्रतिद्वंद्वी हैं तो बृहस्पति भी आपके प्रतिद्वंद्वी होंगे, पर मैं इन दोनों को अपने पराक्रम से यज्ञ-स्थल से सहस्त्रों योजन दूर रखूंगा।’’
 
 
मरुत के यज्ञ तथा संवर्त के आचार्य होने का समाचार जब देवलोक पहुंचा तो बृहस्पति दुखी होकर इंद्र के पास पहुंचे। बोले, ‘‘देवराज! तुम अपने ऐश्वर्य में भूल गए हो कि मरुत तुमसे भी बढ़कर यज्ञ करने जा रहा है। उसका आचार्य मेरा शत्रु भ्राता संवर्त होगा। शीघ्र कोई उपाय करो जिससे न यज्ञ पूर्ण हो, न संवर्त को अपार धन मिले।’’
 
 
इंद्र को एक कपट सूझा। बोले, ‘‘गुरुदेव! आप मरुत के यज्ञ का पुरोहित होना स्वीकार कर लें, पर यज्ञ इस प्रकार से कराएं कि उसकी पूर्णाहूति ही न हो। मैं इसके लिए अग्रि को दूत बनाकर भेजता हूं।’’
 
 
बृहस्पति ने कहा, ‘‘जो करना हो शीघ्र करिए।’’
 
 
इंद्र ने अग्रि को यह प्रस्ताव लेकर मरुत के पास भेजा तो मरुत ने कहा,  ‘‘हे अग्रिदेव! इंद्र से कहना कि मैं मरण-धर्मा मनुष्य हूं। मेरा यज्ञ अमर देवगुरु बृहस्पति के योग्य नहीं। इसे तो मनुष्यों के बीच रहने वाले मानव-कल्याण चेता ऋषि संवर्त ही कराएंगे। उन अमर और अकर्मण्य अहंकारी देवताओं की अपेक्षा हम मरण-धर्मा मनुष्य श्रेष्ठ हैं। मैं इसी की प्रतिष्ठा के लिए यज्ञ करूंगा। उसके आचार्य हमारे कुलगुरु संवर्त ही होंगे।’’
मरुत का ऐसा दृढ़ निश्चय देखकर, अग्रिदेव ने कहा, ‘‘तो फिर देवता आपके यज्ञ का हविष्य ग्रहण नहीं करेंगे।’’
 
 
मरुत ने कहा, ‘‘वह यज्ञ ऐसा भव्य होगा कि देवगण स्वयं हविष्य लेने आएंगे?’’
 
 
अग्रिदेव चले गए। मरुत का यज्ञ प्रारंभ हुआ। इंद्र ने यज्ञ को पूर्ण न होने देने के लिए मरुत पर आक्रमण कर दिया। राजा मरुत यज्ञ-वेदी से उठकर इंद्र का सामना करने जाने वाले थे कि संवर्त ने उन्हें रोक लिया। कहा, ‘‘राजन! यज्ञ पूर्ण करो। देवता तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं कर सकते। मैंने मंत्र से देवों को शस्त्रों समेत स्तंभित कर दिया है। अब वे आकाश में खड़े-खड़े तुम्हारा यज्ञ देखेंगे। पूर्णाहूति पर यज्ञ का अपना हविष्य भी ग्रहण करेंगे।’’
 
 
मरुत ने देखा कि आकाश में सारे देवता इंद्र समेत चुपचाप खड़े हैं। इंद्र का हाथ वज्र उठाए ही रह गया।
 
 
निधूर्म यज्ञ की अग्रि हविष्य पाकर ऊपर उठने लगी। मंत्र-बल से स्तंभित देवगण आकाश में खड़े-खड़े यज्ञ देखते रहे। पूर्णाहूति पर संवर्त ने मंत्र वापस लिया तथा देवगणों ने नीचे उतरकर अपना हविष्य ग्रहण किया। अपने किए पर इंद्र ने पश्चाताप किया। बृहस्पति ने संवर्त से क्षमा मांगी।
 
 
इंद्र ने कहा, ‘‘हम अपने ही कारण बार-बार असुरों से पराजित होते रहते हैं। महाराज मरुत अपनी कर्मठता से आज हम देवों से भी उच्च आसन पर विराजमान हैं।’’
 
 
संवर्त ने यज्ञ का सारा धन दीन-दुखियों तथा ब्राह्मणों में बांट देने का आदेश दिया। वे स्वयं जैसे आए थे, वैसे ही चले गए। न मरुत से मित्रता, न बृहस्पति से वैर। जो परोपकार की दृष्टि से किसी कार्य का संपादन करते हैं, वे किसी प्रतिदान की कामना नहीं करते। उनकी वह प्रवृत्ति किसी प्रकार मोह से ग्रस्त नहीं होती।    
 

(नारद पुराण से) 


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