आर.बी.आई. व वित्त मंत्रालय में ‘गतिरोध’ जल्द समाप्त होना चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Nov 03, 2018 - 05:12 AM (IST)

भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और देश के केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आर.बी.आई.)के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर पिछले एक हफ्ते से चल रहा विवाद एक नए मोड़ पर आ गया है। 26 अक्तूबर को रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने आर.बी.आई. की स्वायत्तता की मौजूदा स्थिति से नाखुशी जाहिर करते हुए मांग की थी कि आर.बी.आई. को अपने फैसले पूरी तरह से खुद लेने का अधिकार होना चाहिए। 

वह वित्त मंत्रालय द्वारा आर.बी.आई. में नीति-संबंधी हस्तक्षेप की तरफ इशारा कर रहे थे। चूंकि उनका बयान आर.बी.आई. की वैबसाइट पर भी डाला गया था, इसीलिए माना जा सकता है कि आर.बी.आई. गवर्नर उर्जित पटेल की भी सहमति उस बयान से थी। इसके जवाब में केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेतली ने रिजर्व बैंक को यू.पी.ए. की पिछली केन्द्र सरकार के कार्यकाल के दौरान बैंकों द्वारा बिना सोचे-समझे ऋण बांटने और फिर वसूली में नाकाम रहने के कारण बैंकों के एन.पी.ए. बढऩे का जिम्मेदार ठहराया। 

देश की मौजूदा विकास दर बढ़ाने, देश में उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने और नए रोजगारों की सम्भावनाओं का सृजन करने के लिए केन्द्र सरकार चाहती है कि आर.बी.आई. उद्योग-जगत से ज्यादा बातचीत करे, उनकी जरूरतों को समझे और देश की बैंकों की ऋण-संबंधी नीतियां बनाते समय उद्योग जगत की अपेक्षाओं का भी ध्यान रखे। देश में अगर औद्योगिक विकास दर बढ़ानी है तो उद्योग जगत, केन्द्रीय बैंक और भारत सरकार को मिल कर ही इस दिशा में कार्य करना होगा। रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर उॢजत पटेल के आने के बाद आर.बी.आई. ने बढ़ती मुद्रास्फीति और देश की अर्थव्यवस्था के मद्देनजर कई कड़े फैसले लिए हैं जिनसे उद्योगों की कम ब्याज दर पर आसानी से ऋण मिलने की मांग पूरी नहीं हो पा रही। 

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए आर.बी.आई. ब्याज दरों में कटौती नहीं कर रहा। चंूकि उद्योग जगत को ऐसा लग रहा है कि उनकी मांगें शीर्ष केन्द्रीय बैंक द्वारा सुनी नहीं जा रहीं, इसीलिए उन्होंने सरकार के माध्यम से वित्त मंत्रालय के आर.बी.आई. बोर्ड में नामित निदेशकों के जरिए अपनी बात पहुंचाई है। आर.बी.आई. की मुख्य चिंता देश के बैंकों का एन.पी.ए. है। आर.बी.आई. ने बैंकों से लेनदारों के कर्जे और ब्याज सख्ती से वसूलने के लिए इसी साल 12 फरवरी को एक सर्कुलर भी जारी किया है, जिसके तहत एक दिन की भी देरी लेनदार को डिफाल्टर की श्रेणी में ला सकती है। सरकार और उद्योग जगत का मानना है कि यह बहुत ज्यादा सख्त है और इससे वसूली संबंधी समस्याएं और बढ़ेंगी। दूसरी ओर आर.बी.आई. का यह मानना है कि ‘प्रांप्ट करैक्टिव एक्शन’ यानी पी.सी.ए. के कारण ही बैंकों की देनदारियों की स्थिति में सुधार आ सकता है। 

12 बैंकों पर पुरानी वसूली बहुत कमजोर होने के कारण नए ऋण देने संबंधी रोक भी आर.बी.आई. द्वारा लगाई गई है। वित्त मंत्रालय उसे शिथिल करने पर जोर दे रहा है ताकि छोटी और मंझोली कम्पनियों को ऋण लेने में आसानी हो। तेल कम्पनियों और नॉन-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों को धन उपलब्ध कराने को लेकर भी आर.बी.आई. और वित्त मंत्रालय में मतभेद हैं। सरकार आर.बी.आई. से ज्यादा लाभांश भी चाहती है जबकि आर.बी.आई. धन को बैंकिंग व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने पास रखना चाहता है। 

नीरव मोदी केस में भी सरकार ने बैंकों के ऊपर नियमों में अनदेखी करने का आरोप लगाया था। जवाब में आर.बी.आई. की तरफ   से अधिकारियों की कमी का हवाला दिया गया। फिर सरकार की तरफ से कहा गया कि अधिकारियों की नियुक्ति के अधिकार आर.बी.आई. के पास हैं। सरकार आर.बी.आई. से अलग एक स्वायत्त ‘पेमैंट सैटलमैंट रैगुलेटरी बोर्ड’ भी चाहती है जबकि आर.बी.आई. इस मसले पर अपने अधिकारों में कटौती नहीं चाहता। आर.बी.आई. के शीर्ष अधिकारी उसके केन्द्रीय बोर्ड में नचिकेत मोर की जगह एस. गुरुमूॢत की नियुक्ति से भी सहज नहीं थे। जिन मुद्दों को सरकार ने आर.बी.आई. बोर्ड में अपने नामित सदस्यों के द्वारा उठाया, उन पर आर.बी.आई. का पर्याप्त तवज्जो न देना भी मौजूदा गतिरोध की एक मुख्य वजह है। पर स्थिति तब ज्यादा बिगड़ी जब आर.बी.आई. के डिप्टी गवर्नर ने सार्वजनिक रूप से इनमें से कई मुद्दों पर अपनी असहमति जताई और केन्द्र सरकार की आलोचना की। यह सरकार को नागवार गुजरा। 

आर.बी.आई. का गठन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अधिनियम के तहत 1934 में हुआ था। उसको और विस्तृत अधिकार बैंकिंग रैगुलेशन एक्ट के तहत 1949 में मिले। अब केन्द्र सरकार ने आर.बी.आई. अधिनियम की धारा-7 के तहत तीन पत्र लिखकर उसे सलाह दी है और एक ऐसे अधिकार का इतिहास में पहली बार इस्तेमाल किया है जो सरकार को व्यापक जनहित में आर.बी.आई. को दिशा-निर्देशित करने के अधिकार देता है। धारा-7 उसे आर. बी.आई. गवर्नर को निर्देश देने का भी अधिकार देती है जिसे मानने को गवर्नर संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। अभूतपूर्व परिस्थितियों में सरकार आर.बी.आई. को चलाने का अधिकार भी इसके केन्द्रीय बोर्ड निदेशकों को दे सकती है। 

उर्जित पटेल की आर.बी.आई. गवर्नर पद पर जब नियुक्ति हुई थी तब उन्होंने अपने पूर्ववर्ती रघुराम राजन के विपरीत नोटबंदी का समर्थन किया था। इससे यह धारणा बनी थी कि वह वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों के समर्थक हैं और वैसे ही कार्य करेंगे जैसा सरकार चाहती है मगर परिस्थितियों में निर्णायक बदलाव तब आया जब उन्हें नोटबंदी को सही ठहराने के लिए आगे किया गया। वह जानते थे कि नोटबंदी तात्कालिक आर्थिक मंदी के लिए जिम्मेदार है और छोटे-मंझोले उद्योग-धंधों पर उसका नकारात्मक असर ज्यादा पड़ा है। तब से ही आर.बी.आई. के शीर्ष अधिकारियों और सरकार के बीच मतभेदों की शुरूआत हुई और आर.बी.आई. ने आॢथक मुद्दों को सरकार के दृष्टिकोण से अलग अपने तरीके से हल करना शुरू किया। मतभेद बढऩे पर मौजूदा परिस्थितियों में सरकार के पास दो ही रास्ते थे- या तो वह आर.बी.आई. के शीर्ष क्रम से इस्तीफा लेती या फिर आर.बी.आई. अधिनियम की धारा-7 का उपयोग करती। उसने दूसरा रास्ता चुना। 

माना जा रहा है कि आगामी 19 नवम्बर की आर.बी.आई. बोर्ड मीटिंग में सरकार के नुमाइंदे आर.बी.आई. के शीर्ष अधिकारियों पर दबाव बनाने की कोशिश करेंगे। ऐसी परिस्थिति में आर.बी.आई. गवर्नर उर्जित पटेल या डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य इस्तीफा भी दे सकते हैं। दूसरी तरफ  अगर तब तक दोनों पक्षों की ओर से हो रही बयानबाजी कम होती है तो यह मीटिंग सुलह-मशविरे से मसले को हल करने का जरिया भी बन सकती है। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि आर.बी.आई. गवर्नर अब बदली परिस्थितियों में क्या सरकार के दृष्टिकोण पर नरम रुख रखते हैं और कुछ मुद्दों पर बीच का रास्ता निकालते हैं और क्या केन्द्र सरकार धारा-7 को वापस बक्से में डालकर बातचीत से आपसी मतभेद सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ती है। 

केन्द्र सरकारों और शीर्ष केन्द्रीय बैंकों के बीच गहरे मतभेद भारत में ही नहीं, सारे विश्व में होते रहे हैं। पूर्व आर.बी.आई. गवर्नर रघुराम राजन के कार्यकाल के दौरान भी एन.पी.ए., ब्याज दरों और नोटबंदी पर उनके केन्द्र सरकार से गहरे मतभेद थे। राजन ने पद से हटने के बाद एक कार्यक्रम के दौरान बहुत सटीकता से आर.बी.आई. की स्थिति की विवेचना की है। वह कहते हैं कि आर.बी.आई. एक स्वायत्त संस्था है इसीलिए उसके पास न कहने का अधिकार सुरक्षित है। पर वह सरकार से पूरी तरह से अलग भी नहीं है और आखिरकार उसी फ्रेमवर्क में काम करेगा जो केन्द्र सरकार द्वारा बनाया जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि देश की अर्थव्यवस्था के हितों के मद्देनजर सरकार और आर.बी.आई. मिल-बैठ कर मतभेद और विवादों का परस्पर हल निकालें और एक होकर सद्भावनापूर्ण माहौल में समन्वय के साथ काम करते रहें।-अमरीश सरकानगो


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Pardeep

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