हज पर जाने वाले मुसलमान क्यों चढ़ते हैं इस ''रहमत के पहाड़'' पर? जानिए अराफात का महत्व
punjabkesari.in Thursday, Jun 05, 2025 - 09:09 PM (IST)

नेशनल डेस्क: इस्लाम धर्म में हज बहुत ही पवित्र फर्ज माना जाता है, जिसे हर मुसलमान अपने जीवन में कम से कम एक बार जरूर पूरा करना चाहता है। हज का सबसे खास और भावनात्मक दिन होता है-अराफात का दिन। इसी दिन लाखों हाजी मक्का से करीब 20 किलोमीटर दूर अराफात के मैदान में इकट्ठा होते हैं और रहमत के पहाड़ (जबल अर-रहमा) के पास जाकर अल्लाह से दुआ, रहमत और माफी मांगते हैं।
अराफात का महत्व क्या है?
इस्लामी कैलेंडर के आखिरी महीने जिलहिज्जा की 9वीं तारीख को जो दिन आता है, उसे “यौम-ए-अराफा” कहा जाता है। इस दिन को हज का सबसे जरूरी हिस्सा माना गया है। हदीस में साफ कहा गया है — “हज है ही अराफा”, यानी अगर कोई अराफात नहीं गया, तो उसका हज पूरा नहीं हुआ।
यहां क्यों रोते हैं हाजी?
इस दिन हाजी सफेद कपड़े पहनकर, बिना किसी भेदभाव के एक ही मैदान में खड़े होकर अल्लाह से अपने गुनाहों की माफी मांगते हैं। वहां की रूहानी हवा और अल्लाह के करीब होने का एहसास इतना गहरा होता है कि कई लोग फूट-फूटकर रो पड़ते हैं। यह पल लोगों के लिए आत्मशुद्धि और अल्लाह से जुड़ाव का सबसे बड़ा अनुभव होता है।
रहमत का पहाड़ क्या है?
अराफात के मैदान के बीच में एक छोटी सी पहाड़ी है जिसे “रहमत का पहाड़” कहा जाता है। मान्यता है कि हजरत आदम और हजरत हव्वा को जन्नत से निकाले जाने के बाद यही पर एक-दूसरे से मिले थे और यहीं उन्होंने अल्लाह से माफी मांगी थी, जिसे कबूल कर लिया गया। इसलिए यह जगह रहमत यानी माफी और दया की जगह मानी जाती है।
पैगंबर हजरत मोहम्मद का अंतिम उपदेश
यहीं पर पैगंबर हजरत मोहम्मद ने अपने आखिरी हज के समय “ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल विदा” दिया था। इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने इंसाफ, बराबरी, महिलाओं के हक और भाईचारे का संदेश दिया था। यह उपदेश इस्लाम के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है।