फांसी के दो घंटे बाद भी जिंदा था कुख्यात रेपिस्ट, फिर पुलिस ने किया कुछ ऐसा...
punjabkesari.in Sunday, Jun 01, 2025 - 03:12 PM (IST)

नेशनल डेस्क: भारत के इतिहास में कई अपराध ऐसे हुए हैं जो ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ की श्रेणी में आते हैं। लेकिन 1978 का रंगा-बिल्ला रेप और मर्डर केस ऐसा था जिसने न सिर्फ देश को झकझोर दिया बल्कि दिल्ली को 'रेप कैपिटल' जैसी बदनामी की ओर धकेलने की शुरुआत भी की। 26 अगस्त 1978 को दिल्ली के धौला कुआं इलाके में रहने वाले नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा की बेटी गीता और बेटा संजय, ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के एक कार्यक्रम ‘युववाणी’ में हिस्सा लेने के लिए घर से निकले थे। गीता उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीजस एंड मैरी कॉलेज में सेकंड ईयर की छात्रा थी और संजय स्कूल में पढ़ता था। बारिश हो रही थी, तो रास्ते में दोनों ने एक जान-पहचान के डॉक्टर एम.एस. नंदा से लिफ्ट ली। उन्होंने बच्चों को गोले डाकखाना के पास उतारा जो AIR भवन से महज़ 1 किलोमीटर की दूरी पर था।
गोल मार्केट से दिन दहाड़े हुआ अपहरण
दोनों पैदल ही ऑल इंडिया रेडियो की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक फिएट कार रुकी। कार में बैठे रंगा और बिल्ला ने दोनों को जबरदस्ती अंदर खींच लिया। कार की हलचल देखकर एक दुकान वाले ने पुलिस को फोन कर सूचना दी। उसी वक्त एक इंजीनियर इंद्रजीत सिंह नोआटो, जो स्कूटर पर सवार थे, उन्होंने कार से लड़की की चीखें सुनीं और उसे रोकने की कोशिश की। संजय ने उन्हें खून से सनी शर्ट दिखाकर मदद मांगी, लेकिन तब तक कार निकल चुकी थी। 28 अगस्त 1978 को दिल्ली रिज के घने जंगल में एक चरवाहे को दोनों बच्चों की लाशें मिलीं। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से यह साबित हुआ कि गीता के साथ बलात्कार हुआ और फिर दोनों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।
कौन थे रंगा और बिल्ला?
असली नाम कुलजीत सिंह उर्फ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला। ये दोनों बेहद शातिर अपराधी थे। उनके खिलाफ कई हत्या और लूट के मामले पहले से ही दर्ज थे। घटना के बाद वे फरार हो गए और आगरा में छिपे हुए थे। लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। दोनों गलती से सेना की बोगी में चढ़ गए और वहीं जवानों ने उन्हें दबोच लिया। बाद में उन्हें दिल्ली पुलिस के हवाले कर दिया गया।
कब और कैसे दी गई फांसी?
इन दोनों अपराधियों को पहले दिल्ली हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई। 7 अप्रैल 1979 को अंतिम फ़ैसला आया और 31 जनवरी 1982 को तिहाड़ जेल में दोनों को फांसी दी गई। इस फांसी को अंजाम देने के लिए दो जल्लाद फकीरा और कालू को मेरठ और फरीदकोट से बुलाया गया था।
मौत के बाद भी नहीं मरा था रंगा!
तिहाड़ जेल की 'फांसी कोठी' में दोनों को एक साथ फंदे पर लटकाया गया। नियम के अनुसार, फांसी के दो घंटे बाद डॉक्टरों को जांच करनी होती है कि अपराधी मर चुका है या नहीं। जांच में पाया गया कि बिल्ला मर चुका था लेकिन रंगा की नब्ज़ चल रही थी। जेल अधिकारी, जल्लाद और डॉक्टर्स सब हैरान रह गए। अब सवाल था - क्या करें? काफी सोच-विचार के बाद एक पुलिसकर्मी को ‘फांसी कोठी’ के नीचे भेजा गया। उसने रंगा के पैर जोर से नीचे खींचे, जिससे उसका दम टूट गया और वह मर गया।इस भयावह घटना का ज़िक्र तिहाड़ जेल के पूर्व कानूनी अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी की किताब ‘ब्लैक वॉरंट’ में विस्तार से किया गया है।