स्वामी दयानंद संस्वति के इन विचारों को जानकर आपकी भी बदल जाएगी जिंदगी
punjabkesari.in Friday, Apr 15, 2016 - 07:28 PM (IST)

जालंधर: भारत प्राचीन काल से ही साधु संतों का देश रहा है। भगवान ने खुद भी धरती को पवित्र व लोगों को सही राह पर जाने का संदेश देने के लिए मानव रुप में कई बार धरती पर जन्म लिया है और मानवजाति का कल्याण किया है। ऐसे ही समाज सुधारक थे स्वामी दयानंद संस्वती जिन्होंने लोगों को सही राह पर चलने का पाठ पढ़ाया।
महार्षि दयानंद संस्वती का जन्म 1824 में गुजरात के टंकारा नामक गांव में हुआ था, इनके पिता का नाम अबा शंकर था। इनकी शिक्षा घर पर ही हुई थी। स्वामी दयानंद संस्वती जो कि आर्य समाज के संस्थापक के रुप में पूज्यनीय हैं। 1875 में स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना की थी।
एक घटना ने बदल डाली स्वामी जी की जिंदगी
स्वामी जी एक साधारण व्यक्ति थे जो हमेशा पिता की बात का अनुसरण करते थे। जाति से ब्रााह्म्ण होने के कारण परिवार सदैव धार्मिक अनुष्ठानों में लगा रहता था। एक बार महाशिवरात्रि की मौके पर स्वामी जी के पिता ने उनसे उपवास व पूरे विधि विधान से पूजा करने को कहा। तो स्वामी जी ने उपवास रखा और रात के समय शिव मंदिर में पालकी लगा कर बैठ गए। रात में स्वामी जी ने मंदिर में एक ²श्य देखा कि कुछ चुहे भगवान की मूर्ति के पास रखे प्रशाद को खा रहे है तब स्वामी जी के मन में एक प्रश्र उठा कि भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला हैं जो स्वय की रक्षा नहीं कर सकती उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते है। एक सवाल से स्वामी जी की जिंदगी ही बदल गई उनके विचार पूरी तरह बदल गए। उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया। घर छोडने के बाद स्वामी जी मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी गुरु विरजानन्द से ज्ञान लिया, उन्होंने स्वामी जी को वेद पढ़ाया। वेद की शिक्षा देने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी मैं चाहता हूं कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।
1857 की क्रांति में योगदान
1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारभ किया, उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत हैं इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया। उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया। लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया।
आर्य समाज की स्थापना
वर्ष 1875 में इन्होने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था। इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुय आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था। बड़े -बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा।
आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं। आर्यसमाजियों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण हैं। महर्षि दयानंद ने उसी वेद मत को फिर से स्थापित करने के लिए आर्य समाज की नींव रखी। आर्य समाज के सब सिद्धांत और नियम वेदों पर आधारित हैं। आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढ़ंत हैं, वेद विरुद्ध हैं। आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो।
आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं। आर्यसमाजियों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण हैं। महर्षि दयानंद ने उसी वेद मत को फिर से स्थापित करने के लिए आर्य समाज की नींव रखी। आर्य समाज के सब सिद्धांत और नियम वेदों पर आधारित हैं। आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढ़ंत हैं, वेद विरुद्ध हैं। आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो।
स्वामी जी ने लोगों को पढ़ाया विकास और सच्चाई का पाठ
बाल विवाह विरोध
स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को बाल विवाह प्रथा के विरुद्ध जगाया उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित हैं मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रहचर्य के है उसके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा हैं।
सती प्रथा विरोध
पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया।
विधवा पुनर्विवाह
देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा हैं विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण हैं। स्वामी जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस जमाने में भी नारियों के सह समान पुनर्विवाह के लिए अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया।
एकता का संदेश
दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था जो आज तक अधुरा हैं, वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं। जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके।
नारी शिक्षा एवम समानता
स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया। उनका मानना था कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं, जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं।
1883 में षडयंत्र रच स्वामी जी की हुई हत्या
1883 में स्वामी जी जोधपुर के महाराज के पास गए। राजा को वेश्या के साथ बैठा देख उन्होंने राजा को अपशब्द कहे। इससे वेश्या चिढ़ गई और उसने रसोइए के साथ मिलकर दूध में जहर मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। 30 अक्टूबर 1883 को 59 वर्ष की आयु में स्वामी जी की मृत्यु हो गई।