संसद में फ्लॉप हुई रेखा: लाखों में सैलरी, हाजिरी महज 5 प्रतिशत

punjabkesari.in Saturday, Jul 14, 2018 - 06:03 PM (IST)

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा राज्यसभाके लिए चार नए सदस्यों को मनोनीत किए जाने  के साथ ही एक बार फिर से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ऐसे सांसदों की जरूरत  क्या है। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा अहम है क्योंकि जिन चार मनोनीत सांसदों की खाली जगह भरी गयी है उनका संसदीय रिकार्ड काफी खराब रहा है। इनमे सचिन तेंदुलकर,रेखा, अनु आगा और के परासरन शामिल थे।
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अनु आगा और के परासरन की हाज़िरी तो संसद में ठीक रही लेकिन शेष योगदान नगण्य रहा। अनु आगा की राज्यसभा में उपस्थिति 69 फीसदी और के परासरन की 81 फीसदी रही। जबकि रेखा की महज 5 फीसदी और सचिन की हाज़िरी 11 फीसदी रही। दिलचस्प ढंग से चारों  कई महत्वपूर्ण संसदीय समितियों के सदस्य भी थे लेकिन अधिकांशत: उनकी बैठकों से नदारद रहे। सवाल पूछने के मामले में भी ये लोग फिसड्डी रहे हैं इन्होने पूरे छह साल के कार्यकाल में महज 22 सवाल पूछे। दिलचस्प ढंग से ये सभी सवाल सचिन तेंदुलकर ने पूछे। यानी अनु आगा, के परासरन और रेखा ने छह साल में कोई सवाल नहीं पूछा। इन चारों ने एक भी प्राइवेट मेंबर डे पर कोई बिल/प्रस्ताव नहीं रखा। 

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सबसे बुरा हाल रेखा और सचिन का
हाल ही में राज्यसभा सीट खाली करने वाले चार मनोनीत सांसदों में सबसे खराब प्रदर्शन सचिन तेंदुलकर और रेखा का रहा। रेखा की छह साल में सदन के भीतर उपस्थिति 5 फीसदी रही। वे 2013 के पूरे बजट सत्र से ही नदारद रहीं। सबसे ज्यादा हिस्सा उन्होंने 2017 के मानसून सत्र में लिया जो 11 फीसदी रहा। हालांकि उस समय तक इनकी उपस्थिति और प्रदर्शन पर खुलेआम सवाल उठने शुरू हो गए थे। उधर सचिन तेंदुलकर की हाज़िरी भी महज 11 फीसदी ही रही। रेखा से भी आगे जाते हुए सचिन तेंदुलकर ने तीन सत्र पूरी तरह मिस किये। वे 2012 के बजट सत्र और शीतकालीन सत्र में एक बार भी संसद नहीं गए। 2013 का बजट सत्र भी उन्होंने मिस किया। यही वो समय था जब उनको लेकर समाजवादी पार्टी के नरेश अग्रवाल ने सदस्यता से हटाए जाने तक की मांग सदन में कर दी थी। हालांकि सेवानिवृति के तुरंत बाद ही  सचिन ने  वेतन के तौर पर मिले 90 लाख प्रधानमंत्री राहत कोष में दे दिए हैं, लेकिन यह शायद फेस सेविंग कदम से अधिक और कुछ नहीं है।
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सुविधाओं की कमी नहीं 
सांसदों को मिलने वाली सैलरी और सुविधाएं किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारणहो सकती हैं। औसतन एक लाख वेतन के अतिरिक्त दफ्तरी खर्च, चुनाव क्षेत्र भत्ता मिलाकर एक राजयसभा सांसद औसतन अढ़ाई लाख प्रतिमाह हासिल करता है।  फ्री कालिंग के दौर में भी इन्हें मोटा दूरभाष भत्ता मिलता है जो सर्वत्र चर्चा का विषय है। दिल्ली में बंगले की सुविधा अलग से है। हवाई यात्रा, सड़क यात्रा, रेल यात्रा सभी में विशेष रियायतें इन्हें मिलती हैं। जाहिर है यह सब जनता की गाढ़ी कमाई से ही जाता है। ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि अगर मनोनीत सांसदों ने कुछ करना ही नहीं है। संसद आने में भी उन्हें संकोच महसूस होता है या उनके पास इसका टाइम ही नहीं है तो क्यों उनका मनोनयन हो ? क्या यह मनोनयन महज चहेतों को रेवड़ियां बांटने वाली बात नहीं? क्या इसे बंद नहीं कर देना चाहिए ?


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vasudha

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