राफेल डील विवाद: आखिर इन सवालों से क्यों बच रही है मोदी सरकार

punjabkesari.in Friday, Dec 14, 2018 - 11:30 AM (IST)

नई दिल्ली: राफेल डील पर मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली है। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए ने फ्रांस से 36 राफेल विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार को क्लीन चिट दे दी है। कांग्रेस जहां इस डील को घोटाले का रुप दे रही थी तो वहीं इसे लेकर कई खुलासे भी सामने आए थे। अब सवाल यह उठता है कि आखिर ये डील क्या है जिससे राजनीति में भूचाल ला दिया है और इससे जुड़े सवालों से क्यों बच रही है सरकार।

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रिलायंस की क्या है भूमिका 
खबरों के अनुसार इस समझौते में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए भारतीय निजी कंपनियों की भी अहम भूमिका रखी गई। रिलायंस डिफेंस इस काम की बड़ी भागीदार बनी। हालांकि कांग्रेस का आरोप है कि डिफेंस ऑफसेट कांट्रैक्ट रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को दे दिया गया, जिसे लड़ाकू जहाज बनाने का कोई अनुभव नहीं था। जबकि सरकारी कंपनी, एचएएल को ‘डिफेंस ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट’ से दरकिनार कर दिया गया। रिलायंस डिफेंस लिमिटेड ने दावा किया है कि उसे ‘डसॉ एविएशन’ से 30,000 करोड़ रुपए . का ‘ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट’ और 1 लाख करोड़ रुपए का ‘लाईफसाईकल कॉस्ट कॉन्ट्रैक्ट’ मिल गया है।  

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पीएम के फ्रांस दौरे के बाद ही क्यों हुई रिलायंस की स्थापना 
नेशनल हेरल्ड द्वारा कागजातों के अध्ययन से पता चलता है कि अनिल अंबानी ने 2015 में पीएम मोदी के फ्रांस दौरे से महज 10 दिन पहले ही अपनी कंपनी की स्थापना की थी। कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार फ्रांस की कंपनी डसॉल्ट एविएशन के साथ राफेल डील करने वाली रिलायंस डिफेंस लिमिटेड की स्थापना 500000 रुपये की बेहद कम पूंजी निवेश के साथ 28 मार्च 2015 को हुई थी। अनिल अंबानी की कंपनी के गठन के महज 10 दिन के बाद 10 अप्रैल को पीएम मोदी ने फ्रांस के साथ राफेल डील की घोषणा की थी।

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क्या रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए हुई डील
डील होने के तुरंत बाद अनिल अंबानी की अगुवाई वाले रिलायंस समूह तथा राफेल विमान बनाने वाली कंपनी दस्सो एविएशन ज्वाइंट वेंचर लगाने की घोषणा की। दोनों कंपनियों के ज्वाइंट वेंचर से साफ हुआ कि कि सरकार, दस्सो और रिलायंस ने मिल-जुल कर एक ऐसा मसौदा तैयार किया, जिससे बंद होने वाली कंपनी दस्सो बच भी जाए और रिलायंस को फायदा भी हो जाए। ज्वाइंट वेंचर का मक़सद सिर्फ इतना था कि पूरे सौदे के 50 फीसदी रक़म को ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट को पूरा करने में रिलायंस अहम भूमिका निभाएगा। समझौते में 50 प्रतिशत ऑफसेट बाध्यता है, जो देश में अब तक का सबसे बड़ा ऑफसेट अनुबंध है।

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सवालों से क्यों बच रही सरकार 
अब सवाल ये है कि सरकार अनिल अंबानी की रिलायंस पर इतनी मेहरबान क्यों है? अनिल अंबानी की रक्षा क्षेत्र में क्या विशेषज्ञता है? रक्षा क्षेत्र में रिलायंस का अनुभव शून्य है, फिर भी मोदी सरकार ने भारत की सुरक्षा में इस्तेमाल होने वाले सबसे महत्वपूर्ण लड़ाकू विमान को वायुसेना तक पहुंचाने और मेंटेन करने की ज़िम्मेदारी रिलायंस को क्यों दे दी? हालांकि मोदी सरकार इन सभी सवालों के जवाब देने में असहज है।

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कितने में हुआ सौदा
इन 36 घातक राफेल विमानों का सौदा मोदी सरकार ने 59000 हजार करोड़ रुपये में किया था। राफेल ही भारत की इकलौती पसंद नहीं थी। कई अंतरराष्‍ट्रीय कंपनियों ने लड़ाकू विमान के लिए टेंडर दिए थे। 126 लड़ाकू विमानों के लिए छह कंपनियां दौड़ में थी। इनमें लॉकहीड मार्टिन, बोइंग, यूरोफाइटर टाइफून, मिग-35, स्‍वीडन की साब और फ्रांस की दशॉ शामिल थी। वायुसेना की जांच परख के बाद यूरोफाइटर और राफेल को शॉटलिस्‍ट किया गया। राफेल को सबसे कम बोली के लिए मौका मिला। 

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क्या है राफेल की खासियत 
सितंबर 2016 में मोदी सरकार ने फ्रांस से 7.87 अरब यूरो (करीब 58 हजार करोड़ रुपये) में 36 राफेल लड़ाकू विमानों को खरीदने का समझौता किया था। इस जेट की खासियत ये है कि यह कई तरह के रोल निभा सकता है। हवा से हवा में मार कर सकता हवा से जमीन पर भी आक्रमण करने में सक्षम है। अत्याधुनिक हथियारों से लैस राफेल में प्लेन के साथ मेटेअर मिसाइल भी है। यह परमाणु बम गिराने में भी सक्षम है। इसमें खास इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम भी लगा है जिसके जरिए दुश्मनों को लोकेट किया जा सकता है, उनके रडार को जाम भी कर सकते हैं। 


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Anil dev

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