पीले नहीं लाल और बैंगनी भी होते हैं केले, यहां उगाए जाते

punjabkesari.in Sunday, Sep 10, 2017 - 01:32 PM (IST)

नेशनल डैस्कः बैल्जियम में यूनिवर्सिटी ऑफ ल्यूवेन में 1500 प्रजातियों के केले उगाए जा रहे हैं जिससे यह केलों का विश्व का सबसे बड़ा संग्रह है। हालांकि, यहां केलों के बाग नहीं हैं बल्कि यूनिवर्सिटी के ग्रीनहाऊस में केवल पूरी तरह से विकसित कुछ ही केले के पेड़ हैं। दरअसल, केलों की विविध प्रजातियों को यहां 30 हजार टैस्ट ट्यूब्स में रखा गया है जिनमें पौधों को 10 से 15 सैंटीमीटर तक ही बढऩे दिया जाता है। इसके अलावा केलों की करीब 1 हजार प्रजातियों को ‘क्रायोप्रिजर्वेशन’ नामक प्रक्रिया से संभाल कर रखा गया है। इस विधि के तहत पौधों के स्टेम सैल्स को लिक्विड नाइट्रोजन में जमा कर शून्य से 196 डिग्री सैल्सियस तापमान पर रखा जाता है।

तरह-तरह के केले
इस संग्रह में ऐसी-ऐसी प्रजातियां हैं, जिनमें लाल रंग के छिलके तथा संतरी रंग के गूदे वाले केले या बैंगनी-भूरे सख्त छिलकों वाले अंजीर के आकार के छोटे केले उगते हैं। वहां पर पकाने के लिए उपयुक्त केले, जो कम मीठे होते हैं, से लेकर बीयर अथवा मिष्ठानों के लिए उपयुक्त ज्यादा मीठे केले भी हैं।

7 हजार वर्ष से हो रही केलों की खेती
विशेषज्ञों के अनुसार केले मानव जाति की प्राचीनतम फसलों में से एक है। केलों की कुछ प्रजातियों की खेती इंसान 7 हजार वर्ष पहले भी करता था। जंगलों में उगने वाले केलों में बड़े आकार के बीज तथा बहुत कम गूदा होता है, जबकि खेती किए जाने वाले केलों में नाममात्र बीज होते हैं। सेवन के लिए बीजरहित केले ही सही होते हैं जो कुदरती तौर पर विकसित हुए हैं। हालांकि, बीजों के बिना उनका अस्तित्व खत्म हो जाता यदि इंसान उनकी खेती नहीं करता। मूल रूप से केले दक्षिण-पूर्व एशिया में पाए जाते थे। करीब 3 से 6 हजार वर्ष पहले वे अफ्रीका पहुंचे और लोगों के मुख्य आहार में शामिल हो गए। अंतत: केले के पेड़ उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका महाद्वीपों पर भी पहुंच गए। आज उत्तर अमेरिका तथा यूरोपीय बाजारों में बिकने वाले अधिकतर केले  लातिन अमेरिकी देशों में पैदा किए जा रहे हैं। दुनिया भर में ये 40 करोड़ लोगों के आहार का अहम हिस्सा हैं, जबकि दुनिया भर में 1 अरब लोग इनका सेवन करते हैं।
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बाजार में बिकता है एक ही तरह का केला
हालांकि, बाजारों में मिलने वाले केलों की विविधता के बारे में अधिकतर विकासशील देशों के लोगों को पता भी नहीं है क्योंकि बाजार में बिकने वाले 99 प्रतिशत केले एक ही बीज रहित तथा मीठी प्रजाति ‘कैवेंडिश’ के हैं। जानकारों के अनुसार ‘कैवेंडिश’  केलों की एक व्यावहारिक प्रजाति कही  जा सकती है क्योंकि इसे आसानी से पैक करके दूर-दूर तक भेजा जा सकता है। चूंकि इथेलीन की मदद से कृत्रिम रूप से यह आसानी से पक जाता है।  इसे हरा रहते हुए ही तोड़ा जा सकता है और इसका मीठा स्वाद भी सबको खूब पसंद है।

फफूंद की वजह से शुरू हुई इनकी खेती
केलों की इस प्रजाति का उत्पादन 1950 के दशक में तब शुरू हुआ जब इससे पहले निर्यात के लिए उगाई जाने वाली ‘ग्रोस मिशेल’ नामक प्रजाति की फसलें एक फफूंद रोग (पनामा डिजीज) की वजह से नष्ट हो गई थीं। हाल के वर्षों में ‘कैवेंडिश’ प्रजाति के केलों पर भी उसी फफूंद का हमला हो रहा है जिससे एशिया तथा मोजाम्बिक में केले के पेड़ नष्ट हो रहे हैं।  कुछ लोगों को भय है कि यह दुनिया भर में फैल कर ‘कैवेंडिश’ केलों का भी पूरी तरह से सफाया कर सकता है परंतु वैज्ञानिक इस भय को बेबुनियाद मानते हैं। उनके अनुसार दुनिया भर में लोगों का पसंदीदा केला सुरक्षित रहेगा क्योंकि आज इस फफूंद रोग की रोकथाम की जा सकती है।

आने वाले वक्त में बदल जाएंगे केले
अब केले की पैदावार में लगी कुछ बड़ी कंपनियों ने केलों में विविधता लाने के प्रयास शुरू किए हैं और यूरोप में जल्द लाल व बैंगनी केलों के अलावा छोटे-छोटे आकार के केले भी उपलब्ध हो सकते हैं। हालांकि, बड़े स्तर पर अन्य प्रजाति के केलों की खेती में अभी कुछ वर्ष लग सकते हैं क्योंकि इस दिशा में और जरूरी परीक्षण करने होंगे। खैर तब तक सबका पसंदीदा ‘कैवेंडिश’ पूरी तरह से सुरक्षित है।


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