रियासत में महंगी दवाओं की आड़ में लूटे जा रहे गरीब मरीज

punjabkesari.in Wednesday, Jul 10, 2019 - 12:50 PM (IST)

 कठुआ (गुरप्रीत) : केंद्र सरकार द्वारा दवा कंपनियो पर मूल्य नियंत्रण नहीं रखने का खामियाजा गरीब अवाम को चुकाना पड़ रहा है। एक ही साल्ट की दवा के मूल्यों में भारी भरकम अंतर गरीब की जेब पर डाका डाल रहा है। मजेदार बात यह है कि मल्टीनेशनल व ब््रांाडेड कंपनियों की दवाओं की तुलना में कई अन्य कंपनियों से बनी दवाइयों के दाम दो से तीन गुणा ज्यादा हैं। यह कंपनिया भी ऐसी हैं जिनका किसी ने नाम तक न सुना होगा। ऐसी कंपनियों की दवाओं को अधिकतर डाक्टरों द्वारा भी लिखने से गरीब अवाम की कमर भी टूट रही है। 


दरअसल दवाओं के इस कारोबार में पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली सहित अन्रू कई प्रदेशों से दवा कंपनियों से डिमांड पर दवाएं तैयार करवाकर इस कारोबार को किया जा रहा है। इस कारोबार को करने वाले लोग, कई डाक्टरों के साथ मिलकर अपना धंधा चला रहे हैं। हालांकि दवा बेचने वाली दुकानों को इसका कोई फायदा नहीं होता लेकिन इन दवाओं के लिखने वाले कई डाक्टरों व इस कारोबार से जुडे लोगों की जेबें जरूर भर रही हैं। हालांकि सभी डाक्टरों की स्थिति ऐसी नहीं है, कई डाक्टर आज भी मरीजों का इलाज चंद रुपयों की इफेक्टिव दवाओं से कर देते हैं लेकिन जो डाक्टर महंगे दामों वाली दवाएं मरीजों को दे रहे हैं, वे मरीजों को सस्ते दामों वाली दवाएं क्यों नहीं लिखते? उनपर नियंत्रण के लिए क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है, यह भी जांच एवं चिंता का विषय है। पंजाब केसरी आज आपको एक ऐसी ही स्थिति से अवगत करवाएगी। हालांकि कुछ वर्ष पूर्व सरकार द्वारा अनिवार्य किया गया था कि डाक्टर मरीजों को दवा के नामों के बजाय साल्ट लिखेंगे पंरतु यह कुछ देर तक ही चला। बाद में फिर से मरीजों की प्रिसक्रिपशन स्लिप से साल्ट गायब और दवाओं के नाम पढऩे को मिलना श्ुारू हो गए थे। 


 क्या मूल्यों पर नियंत्रण का नहीं है कोई प्रावधान?
 
मल्टीनेशनल, ब्रांडैंड कंपनियों के अलावा अन्य कई कंपनियों द्वारा बनाई जाने वाली दवाओं के मूल्यों में इतने बड़े अंतर से सरकार की प्रणाली भी सवालों के घेरे में आती हैं। मूल्य निर्धारित करने वाली एजैंसियों, सरकार का इसपर कोई नियंत्रण नहीं है। विभिन्न कंपनियों की एक ही साल्ट वाली दवाओं के मूल्यों में आखिर जमीन आसमान का अंतर कैसे हो सकता है। क्या इनके मूल्यों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता। अगर नहीं किया जा सकता तो फिर दवाओं की आड़ में गरीबों को लूटे जाने का क्रम भी बंद नहीं हो सकता। भाजपा के जिला प्रधान प्रेम डोगरा ने इस पूरे मामले पर चिंता जताते हुए कहा कि एक ही साल्ट की विभिन्न दवा कंपनियों द्वारा बनाई जाने वाली दवाओं के मूल्यों मेें काफी ज्यादा अंतर है। एक दवा अगर एक सौ रुपये ही मिलती है और वो भी बकायदा स्टैंडर्ड कंपनी की है जबकि अन्य कंपनियों की दवाएं, जिनके कभी नाम भी किसी ने सुने नहीं होंगे, उनके मूल्यों में स्टैंडर्ड कंपनी से कई गुणा ज्यादा अंतर एक तरह से जांच का विषय है। उन्होंने कहा कि सरकार को इस पूरे प्रकरण मामले की जांच करनी होगी और साथ ही यह सुनिश्चित होना चाहिए कि  कोई गरीब मरीज इस सुनियोजित लूट का शिकार न बने। इनमें कई दवाएं तो ऐसी भी होंगी जिनके शायद ही सैंपल भी पास होते हों। 
 
अस्पतालों, निजी क्लीनिकों में नेटवर्क कर रहा है काम 
 
दवाओं के इस खेल में पूरा तना ही जकड़ा हुआ है। इन लोगों को नेटवर्क इतना स्ट्रांग है कि अस्पतालों के साथ साथ निजी क्लीनिकों में इन लोगों की दस्तक समय समय पर डाक्टरों को हाजिरी लगाने के लिए देखी जा सकती है। इसमें कोई गल्त नहीं है लेकिन दवाओं की आड़ और गरीब लोगों के मर्ज का जो इलाक चंद पैसों में हो सकता है, उस इलाज को हजारों रुपये तक पहुंचा देना भला कहां का इंसाफ है। आपको बता दें कि मज्ल्टीनेशनल, ब्रांडैंड कंपनियों ने मार्केट में कई मुलाजिम रखे हैं जबकि अन्य कई कंपनियों ने स्टैंडर्ड कंपनियों के मुकाबले कर्मी भी कम ही रखे हैं। एक या दो दो कर्मियों का सीधा दवा कंपनियों से संपर्क रहता है जो दवा कंपनियों के बाद सीधा डाक्टरों से संपर्क कर अपने प्रोडक्ट लिखवाते हैं। यही नहीं जिला कठुआ की अगर बात करेें तो यहां कुछ ऐसे कर्मी भी हैं जो ऐसी ही महंगे दामों वाली दवाईयां बनाने वाली कंपनियों में काम करने के साथ साथ सरकारी नौकरी का भी मजा लूट रहे हैं। ऐसे कर्मी सरकार की ड्यूटी करने के बजाय पैसों के मोटे चक्कर में अस्पतालों, क्लीनिकों में ही डेरा जमा रखते हैं। न कि वे लोग अपने सरकारी ड्यूटी वाले कार्यालय में समय देते हैं ऐसे कर्मियों की भी निशानदेही होनी चाहिए।  
 

बाहरी स्थानों पर नहीं मिलती डाक्टरों द्वारा लिखी गई दवाएं 
 
कई अस्पतालों सहित निजी क्लीनिकों में सेवाएं देने वाले डाक्टरों द्वारा लिखे जाने वाली दवा वहां के ही मेडिकल स्टोर पर उपलब्ध रहती है। अगर कोई मरीज दवा शहर के कहीं अन्य हिस्से में दुकानदार से लेने जाएगा तो शायद ही उसे डाक्टर की लिखी दवा मिले। ऐसा कठुआ शहर में भी कई सालों से हो रहा है। अस्पताल, निजी क्लीनिकों में डाक्टर जो दवाएं लिखते हैं वो अधिकतर दवाएं अस्पताल परिसर में या फिर अस्पताल से सटे मेडिकल स्टोर पर ही उपलब्ध रहती हैं। हां दवा अगर ब्रांडैंड कंपनी की होगी तो वो अन्य स्थानों से भी मिल सकती है लेकिन दवा अगर किसी लोकल कंपनी की होगी तो फिर अन्य स्थानों के दवाखानों से शायद ही ढूंढे हुए मिले। 
 

स्टैंडर्ड और अन्य कंपनियों के दवाओं के मूल्यों का अंतर 
दवाएं साल्ट            ब्रांडैंड कंपनी                 अन्य कंपनी      
                        प्रति स्ट्रिप मूल्य रुपयों में           प्रति स्ट्रिप 

- सिफोराक्सिम                320                                550
-इटारवासटेटिन 10            25                                 100
-रोजवासटेटिन 10             80                                  140
-पेंटाप्राजोल 40                30                                 90
-रोजूवास्टिन                   60                                 170
  और फिनोफाइब्रेट       
- रेबीप्राजोल 20               12                                   70
- लिवोसलप्राइड              70             220            
 और रेबीप्राजोल  
-विटामिन डी 3                70             130
- डोक्सीफाइलिन 400         20                                   60
-यूरसोडिआक्सिकोलिक       260                                   340
 

 

रियासत के ड्रग विभाग ने खड़े किए हाथ 
मूल्य नियंत्रण को लेकर ड्रग विभाग ने हाथ खड़े किए हैं। सहायक नियंत्रण ड्रग कठुआ-सांबा राजेश अंगराल ने खुद स्वीकारते हुए कहा कि कई जैनरिक या फिर अन्य कंपनियों की दवाओं के मूल्यों में ब्रांडैंड कंपनियों से काफी ज्यादा अंतर है। लेकिन वे इसके लिए कुछ नहीं कर सकते। ड्रग प्राइस एक्ट के अधीन 38 के करीब दवाएं आती हैं जबकि अन्य की दवाएं इस एक्ट में भी नहीं आती। हां, बाकी की अन्य दवाएं जो डाक्टरों द्वारा ज्यादातर लिखी जा रही हैं, उनके सैंपल भरने का प्रावधान विभाग के पास है। परंतु मूल्य नियंत्रण को लेकर उनके हाथ खड़े हैं। 
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Monika Jamwal

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