Election Dairy: भारत की स्याही से होते हैं पाकिस्तान में चुनाव

punjabkesari.in Saturday, Mar 16, 2019 - 10:41 AM (IST)

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): होली आने को है, लेकिन इस बार देश को होली के रंगों से ज्यादा  लोकतंत्र के प्रतीक बन चुके ले उस बैंगनी रंग का इंतज़ार है जो यह साबित करता है कि किसने लोकतंत्र के महायज्ञ में आहुति डाली है और किसने नहीं। जी हां हम मतदान के वक्त अंगुली पर लगाई जाने वाली स्याही की ही बात कर रहे हैं। जाहिर है ये कोई मामूली स्याही नहीं है। इसका भी अपना एक इतिहास है। आज चर्चा इसी गरिमामयी अमिट स्याही की जिसके बिना हमारे देश  ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी चुनाव संभव नहीं हैं,क्योंकि पाकिस्तान में चुनाव के दौरान भी इसी स्याही का इस्तेमाल होता है।
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इस स्याही का ख्याल देश के पहले ही आम चुनाव में आ गया था। पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ब्रिटेन की तर्ज़ पर भारत में भी चुनाव में स्याही का मार्क प्रयुक्त करना चाहते थे।  लेकिन समस्या यह थी कि उस समय ऐसी स्याही सिर्फ ब्रिटेन में ही बनती थी। पहले आम चुनाव में  17 करोड़ तीस लाख के करीब वोटर थे। इतने लोगों के लिए बहुत ज्यादा स्याही की जरूरत थी जिसे ब्रिटेन से मंगवाया जाना मुश्किल और महंगा था। ऐसे में उस चुनाव में यह आईडिया त्यागना पड़ा लेकिन इसे आगे बढ़ाने का फैसला हो गया। इसकी जिम्मेदारी दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला को मिली। कई परीक्षणों के बाद राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला ने जल्द न मिटने वाली स्याही का फार्मूला ईज़ाद कर लिया। लेकिन दिक्क्तें ख़त्म न हुईं। उस समय अधिकांश कंपनियों ने इसे बनाने से इंकार कर दिया। वजह मुनाफा न होना  था। एक तो स्याही की संख्या सीमित और ऊपर से पांच साल बाद उत्पादन ,लिहाज़ा कंपनियों को यह घाटे का सौदा मंजूर नहीं था। आखिरकार इसे कर्नाटक सरकार की मैसूर पेंट्स एंड वार्निश कम्पनी से बनवाने का फैसला हुआ। तब तक दूसरा चुनाव भी निपट चुका था।  अंतत: 1962 में तीसरे चुनाव में जाकर पहली बार देश में मतदान के लिए अमिट स्याही का इस्तेमाल शुरू हुआ जो अब तक जारी है। वर्तमान में देश में दो कम्पनिया यह स्याही बना रही हैं। चुनाव आयोग के नियमानुसार दोनों ही कंपनियों की बनाई स्याही उनके गृह राज्य में इस्तेमाल नहीं की जाती।   

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क्या है इस स्याही की खासियत 
इस स्याही की खासियत यह है कि इसे लगाते ही यह एकदम से सूख जाती है। फिर कम से कम इसका निशान 20 दिन तक नहीं जाता। ऐसा इसमें मौजूद रसायन समीकरण के कारण होता है जिसके तहत इसमें मौजूद सिल्वर नाइट्रेट हवा के सम्पर्क में आते ही सिल्वर क्लोराइड में बदल जाता है।  इसे मिटाना आसान नहीं होता। शुरू में इसकी क्रिया अवधि 20 सेकंड और  सिल्वर नाईट्रेट की मात्रा 7 फीसदी रखी गयी। वक्त के साथ इसमें भी बदलाव हुआ, सिल्वर नाइट्रेट की मात्रा पिछले चुनाव में 60 फीसदी तक रखी गयी थी और अब यह आधे सेकंड के भीतर सूखकर अपनी छाप छोड़ देती है।  स्याही के अन्य रसायन सार्वजानिक नहीं हैं।   

पाकिस्तान समेत 35 देशों में भारतीय स्याही से चुनाव 
ऐसा नहीं है कि इस स्याही का इस्तेमाल सिर्फ भारत में ही होता है। चुनाव में फर्जीवाड़ा रोकने के लिए यह स्याही 35 देशों में प्रयोग की जा रही है। सबको इसकी आपूर्ति भारत से ही होती है। भारत में इसका उपयोग बाएं हाथ की सांकेतिक अंगुली के नाखून पर निशान लगाकर किया जाता है। जबकि कंबोडिया और मालदीव में स्याही में अंगुली डुबाई जाती है। अफगानिस्तान में पेन से निशान लगाया जाता है।। बुरन्डी व बुर्कीना फासो में इसे हाथ पर ब्रश से लगाया जाता है। दिलचप ढंग से पाकिस्तान को भी यह स्याही हमारे ही यहां से जाती है।
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क्या है कम्पनी का इतिहास 
मैसूर पेंट्स एंड वार्निश को इसका वर्तनाम नाम 1989 में मिला। इससे पहले इसे मैसूर लैक एंड पेंट्स नाम से जाना जाता था। स्थापना 1937 में मैसूर के तत्कालीन महाराजा नालवाडी कृष्णराज वाडियार ने अपने महलों/सार्वजानिक इमारतों, मंदिरों आदि की साज- सज्जा में प्रयुक्त होने वाले रंगों के निर्माण के लिए की थी। तब यहां वनस्पति से रंग बनाये जाते थे। आज़ादी के बाद इसे  सार्वजानिक कम्पनी में बदलकर कर्नाटक सरकार के अधीन कर दिया गया।कम्पनी  सेना के टैंकों, रेल,बसों आदि पर किये जाने वाले रंग भी बनाती है। कम्पनी के प्रबंध निदेशक चंद्रशेखर डोडामणि ने पंजाब केसरी को बताया कि वर्तमान में 5 मिमी, 10 मिमी, 15-20-25-40-60- 70-80 और 100 मिमी की बोतल में यह स्याही बनाती है। निर्माण राष्ट्रिय भौतिकी प्रयोगशाला और नेशनल रिसर्च डेवेलपमेंट कार्पोरेशन की कड़ी निगरानी में होता है। कम्पनी यूके, मलेशिया, टर्की, डेनमार्क और पाकिस्तान समेत 28 देशों में स्याही भेजती है। निर्माण सारा साल चलता रहता है और हर  बैठक  की राष्ट्रीय  भौतिकी प्रयोगशाला में दोबारा जांच होती है।  

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अब रायुडू लैब्स के पास भी काम 
वक्त के साथ जब चुनाव में धांधली की शिकायतें और शंका बढ़ी तो सिस्टम को और पारदर्शी बनाने की जरूरत महसूस हुई। चुआव आयोग ने तब विकल्प के तौर पर एक और कम्पनी को इस स्याही के निर्माण के लिए चुना। यह कम्पनी है हैदराबाद की रायुडू लैब्स। रायुडू लैब्स के निदेशक नागेश्वर राव रायुडू ने पंजाब केसरी को फोन पर बताया कि उनकी कम्पनी 1995 से लगातार इस स्याही का निर्माण कर रही है। फार्मूला राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला से ही आता है और वही स्याही की बोतलों की निर्माण संख्या तय करते हैं। यहां बनने वाली स्याही का रासायनिक फार्मूला मैसूर से अलग रहता है।   वर्तमान में उनकी कम्पनी करीब-करीब सभी अफ़्रीकी देशों को भी यह स्याही निर्यात करती है।  कंपनी  रवांडा, मोजांबीक, दक्षिण अफ्रीका , जांबिया जैसे देशों में स्याही की आपूर्ति करती है। साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर पल्स पोलियो प्रोग्राम के लिए भी काम करती है। रायुडू लैब्स प्रतिदिन 10 हज़ार छोटी बोतल स्याही का निर्माण करती है। 

जब नोटबंदी में भी हुआ इस्तेमाल 
नवंबर 2017 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में  नोटबंदी की घोषणा की तो उसके बाद बैंकों से पैसे निकालने के लिए मारामारी मच गयी। नए नोटों की संख्या कम होने के कारण सरकार को पैसे निकालने की सीमा और समय सीमा तय करनी पड़ी। ऐसे में कोई तय समय के भीतर दो बार पैसे न निकाल ले इसके लिए बैंकों में इस स्याही के निशान का इस्तेमाल हुआ था। बैंक पैसा निकालने वाले  की अंगुली पर इसी स्याही से निशान लगाते थे। उधर 1995 में देश में पल्स पोलियो अभियान शुरू हुआ। उसमे भी बच्चे को चिन्हित करने के लिए इसी स्याही का इस्तेमाल हुआ था जो अभी भी जारी है।  


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vasudha

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