अमृता प्रीतम: जिन्होने अपने बेटे से कहा, 'काश साहिर तुम्हारे पिता होते'
punjabkesari.in Saturday, Aug 31, 2019 - 12:20 PM (IST)
नेशनल डेस्क: पंजाबी और हिंदी साहित्य की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम की आज 100वीं जयंती है। साहित्य जगत में अमृता प्रीतम को प्रेम के पर्यायवाची माना जाता रहा। अमृता की शादी महज 16 साल की उम्र में प्रीतम सिंह से हो गई और उसके बाद वो अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गई। हालांकि ये शादी दोनों के लिए निभानी मुश्किल हो गई और जल्द ही अमृता और प्रीतम अलग हो गए।
जब बेटे के सवाल पर कहा, काश तुम साहिर के बेटे होते
अमृता ने बेहद कम उम्र से लिखना शुरू कर दिया था। महज 16 साल की उम्र में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हो गया था। जिसकी लेखनी में इतना प्यार और दर्द छुपा हो वो भला खुद प्रेम से कैसे दूर रह सकती थी। और प्रेम को इतनी गहराई से समझनेवाली अमृता को मशहूर शायर और हिंदी फिल्मों गीतकार साहिर लुधयानवी से मोहबेबत हो गई। वो भी ऐसी मोहब्बत जो आप किताबों और कहानियों में पढ़ते हो। कुछ ना कहकर भी सब कुछ जान लेना, एक दूसरे को समझ लेना। अमृता अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में लिखती हैं कि एक बार उनके बेटे ने उनसे पूछा कि, ‘मां क्या मैं साहिर का बेटा हूं ?’ इस पर अमृता ने जवाब दिया, ‘काश तुम साहिर के बेटे होते।’ कुछ इस कदर गहरा था साहिर और अमृता का प्यार। लेकिन ये प्यार मुकम्मल ना हो सका और अपने इसी अधूरे प्यार पर साहिर ने लिखा...
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
'अमृता-इमरोज' एक ऐसा प्यार जो किसी नाम का मोहताज नहीं रहा
अमृता एक बेहद प्रसिद्ध लेखिका और कवियत्री थी और इमरोज एक बुक कवर डिजाइनर/पेंटर। दोनों की मुलाकात अमृता की एक किताब के कवर के डिजाइन के सिलसिलें में हुई जो बाद में जिंदगीभर के साथ में तब्दील हो गई। बाकी आशिकों की तरह नहीं थे अमृता-इमरोज। इमरोज बताते है कि उन दोनों ने कभी एक दूसरे को नहीं बताया कि वो एक दूसरे को कितना चाहते हैं। जब प्यार है तो बोलने की क्या जरूरत। इतना ही नहीं, इमरोज जानते थे कि अमृता के दिल में जो जगह साहिर की है वो उनकी कभी नहीं हो सकेगी। और उन्होने इस बात को बेहद आराम से अपना लिया था। इमरोज कहते है कि हमारे प्यार को किसी तरह की अभिव्यक्ति या दिखावे की जरूरत नहीं थी।
उनके प्यार की समझदारी देखिए, कि सालों तक एक ही घर में साथ रहने के बाद भी दोनों अलग-अलग कमरों में रहते रहे। इमरोज बताते है कि अमृता को रात में लिखने की आदत थी, क्योंकि उस वक्त ना कोई आवाज होती, ना फोन बजता और ना ही कोई आता जाता। हालांकि लिखते समय उनको चाय चाहिए होती थी। अब लिखने में मशरूफ अमृता खुद तो उठकर चाय बना नहीं सकती थी। तो इसीलिए मैंने रात में एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके बगल में रख आता। वो लिखने में इतनी खोई हुई होती कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थी और ये सिलसिला इसी तरह बदस्तूर चालीस-पचास सालों तक चलता रहा।