गुजरते साल ने थामी आप के मिशन विस्तार की रफ्तार

punjabkesari.in Tuesday, Dec 26, 2017 - 03:42 PM (IST)

 नई दिल्ली: बदलाव की राजनीति का सपना संजोकर देश के सियासी फलक पर तेजी से उभरी आम आदमी पार्टी (आप) के लिए साल 2017, संगठन में विस्तार के लिहाज से बहुत फलदायी साबित नहीं हुआ। साल 2015 में जिस हैरतअंगेज चुनाव परिणाम के साथ दिल्ली की सत्ता पर आप काबिज हुई, उसे देखकर तो यही लगा कि चुटकी बजाते ही सब कुछ बदल देने की धुन में रमे नौजवानों की यह टोली समूचे देश में बड़े राजनीतिक बदलाव का वाहक बनेगी। लेकिन इस साल के शुरू में हुए दिल्ली नगर निगम चुनाव और फिर पंजाब तथा गोवा के विधानसभा चुनाव में आप को उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं मिलना, पार्टी की पूर्व नियोजित ‘मिशन विस्तार’ योजना के लिये ‘स्पीड ब्रेकर’ साबित हुआ। आप के अपने आधार स्तंभ नेताओं का भी इस साल पार्टी से मोहभंग हुआ। प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव और प्रो. आनंद कुमार को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा, असीम अहमद, जितेन्द्र तोमर और अब कुमार विश्वास सरीखे नेताओं के पार्टी में रहकर ही उभर रहे बगावती असंतोष को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 

 पंजाब और गोवा की जनता से वादों और दावों के जाल में नहीं फंसने का दो टूक जवाब मिलने के बाद साल 2017 से आप मुखिया अरविंद केजरीवाल सहित पार्टी के अन्य नेताओं ने ‘जुबां काबू’ में रखने की नसीहत ली। जीवन के पहले दो चुनाव लड़कर दोनों बार मुख्यमंत्री बनने और अपनी पार्टी को सत्तासीन करने का रिकॉर्ड बनाने वाले आप संयोजक अरविंद केजरीवाल के लिये भविष्य में पार्टी का स्ट्राइकिंग रेट बरकरार रख पाने की चुनौती गुजरते समय के साथ गंभीर होती जा रही है। लाभ के पद के मामले में फंसे आप के 21 विधायकों की विधानसभा सदस्यता पर चुनाव आयोग में लटकी तलवार पार्टी के लिये इस साल की दूसरी बड़ी परेशानी बनी। आप नेतृत्व भले ही इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इन विधायकों की संसदीय सचिव पद पर नियुक्ति को ‘शून्य’ करार देने के बाद चुनाव आयोग से भी अपने पक्ष में फैसला आने के लिये निशिं्चत दिख रहा हो, लेकिन वह कानूनी पेचीदगी से भरे इस मामले में हरसंभव स्थिति का सामने करने को भी तैयार है। इसका फैसला अगले साल के शुरू में ही आने की उम्मीद है। तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद महज पांच साल में एक राज्य की सत्ता पर काबिज होना और एक अन्य राज्य तथा स्थानीय निकाय में मुख्य विपक्षी दल बन जाना इस अल्पवय राजनीतक पार्टी के लिये उपलब्धि से कम नहीं है।  

केजरीवाल ने उपलब्धि के इस सफर को निरंतरता प्रदान के लिये अब अपनी नजरें साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर टिका दी हैं। इस बीच अगले साल आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव का पड़ाव भी आप को पार करना है। इस पड़ाव में पार्टी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक पर नजर गड़ायी है। इन राज्यों में आप अपना संगठन मजबूत करने में लगी है। जबकि पंजाब में बने जनाधार को दरकने से बचाने के लिये केजरीवाल ने दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को राज्य इकाई का प्रभारी बनाकर नुकसान रोकने की कारगर कवायद की है। 

वहीं पार्टी की दिल्ली इकाई के प्रभारी गोपाल राय छत्तीसगढ़ में, रत्नेश गुप्ता मध्य प्रदेश में, केजरीवाल के पूर्व राजनीतिक सलाहकार आशीष तलवार कर्नाटक में और फिलहाल नाराज चल रहे कुमार विश्वास राजस्थान में आप के लिये चुनावी जमीन तैयार करने में जुटे हैं। केजरीवाल खुद 2019 के लोकसभा चुनाव की कमान संभाल रहे हैं।   साल 2018 के लिये केजरीवाल की पहली आसन्न चुनौती राज्यसभा की दिल्ली की तीन सीटों के लिए माकूल चेहरों का चुनाव करना है। पार्टी में संसद के उच्च सदन का सदस्य बनने के लिये पहले से ही कुमार विश्वास, संजय सिंह और आशुतोष में घमासान जारी है। केजरीवाल खेमे ने इस घमासान को ठंडा करने के लिये पार्टी से बाहर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत प्रतिष्ठित लोगों को राज्यसभा भेजने का फार्मूला पेश किया था लेकिन वह शिगूफा साबित हुआ।  


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