''सड़कों पर लोग मरे पड़े थे'', पाकिस्तान से भारत आई महिला ने बताई 1947 के बंटवारे की भयावह बातें, बोलीं- जो भी सामने आता, उसे...

punjabkesari.in Thursday, Aug 14, 2025 - 01:45 PM (IST)

नेशनल डेस्क : भारत इस साल आज़ादी की 79वीं सालगिरह मना रहा है। आज़ादी का जश्न हमें गर्व और देशभक्ति से भर देता है, लेकिन साथ ही 1947 के बंटवारे की कड़वी यादें भी ताज़ा कर देता है। 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद तो हुआ, लेकिन लाखों लोगों को अपना घर-बार छोड़कर नए मुल्क में बसना पड़ा। उसी दौर में कई परिवार हिंसा और खून-खराबे का शिकार हुए। यह कहानी ऐसी ही एक महिला, सुदर्शना कुमारी की है।

पाकिस्तान के शेखूपुरा में जन्म

सुदर्शना कुमारी का जन्म 1939 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के शेखूपुरा जिले में हुआ था, जो लाहौर से लगभग 24 मील की दूरी पर है। विभाजन के समय वह सिर्फ 8 साल की थीं। उस वक्त दोनों देशों में सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी।

घर के पास आग और भागकर बचाई जान

एक दिन उनकी मां घर की छत पर रोटियां बना रही थीं। तभी एक पड़ोसी ने आकर बताया कि पास के लकड़ी के कारखाने में आग लगा दी गई है। आग की लपटें उनके घर तक पहुंचने लगीं। मां ने तुरंत रोटियां छोड़ दीं, एक संदूक में थोड़ा-सा सामान और बर्तन रखे और छतों से कूदते हुए वे दोनों वहां से भाग निकलीं। वे शेखूपुरा के सिविल हेडक्वॉर्टर पहुंचे, लेकिन वहां की छोटी दीवारें देखकर लगा कि दंगाई आसानी से अंदर आ सकते हैं। इसलिए वहां भी सुरक्षित महसूस नहीं हुआ।

छत पर छिपकर गुज़ारे दिन

वे एक और घर में जाकर छुप गए। दो दिन से भूखे थे। छत में बने छेदों से बाहर झांकते तो दंगाई नज़र आते, सिर पर पगड़ी, चेहरा ढका हुआ, हाथ में बंदूक या बरछी। वे घरों में आग लगाते, लूटपाट करते और जो भी सामने आता, उसे मार डालते।

परिवार की हत्या का दर्दनाक मंजर

सुदर्शना की आंखों के सामने उनके ताऊ के पूरे परिवार की हत्या कर दी गई। एक साल की बच्ची तक को नहीं छोड़ा गया। ताऊ की एक बेटी किसी तरह भाग निकली, हालांकि उसे भी गोली लगी। वह अस्पताल के पास गिर पड़ी लेकिन डॉक्टरों ने उसे बचा लिया। सड़कों पर कई जाने-पहचाने लोग मरे पड़े थे और बारिश के कारण शव सड़ चुके थे।

जली हुई कोठी में खेल और मिला सामान

भागते-भागते सुदर्शना और उनकी मां एक पक्के मकान में पहुंचे, जहां पहले से कई शरणार्थी मौजूद थे। कुछ दिन बाद वे कंपनी बाग की तरफ बढ़े, जहां अंग्रेज़ अफसरों की कोठियां थीं। एक जली हुई कोठी में बच्चों के साथ खेलते हुए सुदर्शना को दो लकड़ी की टोकरी (पटारियां) और एक छोटी संदूक मिली। उन्होंने सोच लिया कि हिंदुस्तान पहुंचकर इसमें नई गुड़ियां रखेंगी, क्योंकि उनकी पुरानी गुड़ियां पाकिस्तान में रह गई थीं। इन पटारियों और संदूक को उन्होंने शादी के बाद भी संभालकर रखा। पटारियां अपनी बहनों को दे दीं और संदूक अपने पास रखा।ट्रक में जानवरों की तरह भरे गए लोग

आखिरकार वे काफिले के साथ ट्रक का इंतजार करने लगीं। दो ट्रकों में 300 से ज्यादा लोगों को ठूंसकर वाघा बॉर्डर के पास छोड़ा गया। वहां से सुदर्शना अपनी मां के साथ हिंदुस्तान पहुंचीं और काफी समय शरणार्थी कैंप में बिताया। यह कहानी 1947 के विभाजन में लाखों लोगों द्वारा झेली गई पीड़ा और संघर्ष का जीवंत उदाहरण है। सुदर्शना कुमारी के बचपन का यह दर्द आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

 

 

 

 

 


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Content Editor

Mehak

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